श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 17
हृदयेश,
कल रात छत पर खड़ी निभ्रर आकाश को देख रही थी। सोच रही थी कि इसी आकाश के नीचे तुम्हारा घर होगा-घर की छत होगी-और छत के ऊपर यही चाँद निकला होगा...क्या! तुम भी इसी तरह चाँद को देख रहे होगे...! क्या मेरा चाँद-तुम तक मेरी बात पहुँचा देगा...। इन बादलों के टुकड़ों के बीच उबरता-निकलता-छुपता-क्या तुम तक पहुँच जायेगा! तुम भी कहीं-इसी तरह, इसकी छिटकी-चाँदनी के नीचे एकांत में बैठे होगे-या सो रहे होगे...बुरा न मानना-मेरा यह चाँद फलक से उतर कर तुम्हारे अधरो का स्पर्श करेगा-करने देना इसे प्राण...और वही चाँद जब मुझ तक लौटेगा-तो उसके पैरा तले तुम्हारे अधरोष्ठों की मदिरा होगी-जिसे मैं रात-भर उड़ेल-उड़ेल कर पीती रहूँगी। अपनी देह से मन से और आँखों से। जब कभी तुम मेरे सामने आओगे-तो मैं देखूँगी कि चाँद के चिन्ह-तुम्हारे अधरोष्ठों पर तो नहीं रह गए। उसे दिन-बस तुम मेरी आँखों में मत देखना...मैं बावली हो जाऊँगी-राज...।
क्या कहूँ और कैसे कहूँ कि यह सब क्यों लिखा जाता है...जो लिखना नहीं चाहती...कभी-कभी क्यों मन इतना प्यासा-सा होकर-जैसे रेगिस्तान की रेत-सा भटकने लगता है। नदी-किनारे बैठा भी मन प्यासा क्यों है।
देह के सारे पुराण-मेरे समक्ष उजागर है-लेकिन तुम्हें लेकर-देह मंदिर की देहरी लगने लगती है-उस पर तुम कभी सजदा न कर देना...नहीं तो मेरे मंदिर की दीवारें भुरभुरा जायेगी। मंदिर कोई सांसारिक चीज नहीं होता प्राण...। वह तो स्पर्श और अनुभूति से परे की चीज है। तुम भी तो मानते हो न इसे। शायद न भी मानते होवो। एक दिन शहजाद ही कह रही थी-कि तुम भी एक सीमा तक नितांत भौतिकवादी हो उठते हो-सारे पुरुषों की तरह...। खैर मैं तुम्हारे इस पहलू को नहीं जानती...और तुम्हें पुरुषत्व से विलग भी क्या करना चाहूँगी...।
ऊपर वाले ने हर जीव को अपने-आप में पूर्णता-प्रदान की है। फिर तुम भी पूरे क्या न होवो...। पर पूर्ण होना-छलकना नहीं है। सीमा में रहना सहजना है और मैं जितना तुम्हें जानती हूँ-वह अनर्गलता या सीमा हीनता तुम मैं नहीं है-नहीं ही होगी-अन्यथा आज तक तुम उच्छृखंलता की कोई भी सीमा लांघ सकते थे ...। यहाँ कौन-सा तुम किसी बन्धन में बंधे थे-अपने एकांत क्षणों को तुम भरपूर जी सकते हो- मेरे लिये यही पूर्णता है। तुम पूर्ण हो और मेरी चाहत अपनी सीमाओं में रह कर भी पूरी है तुम्हें लेकर...।
इस संबंध और देह के श्राप से, मैं ही क्या पूरी नारी-जाति-अभिशापित है। इस खोखल में रहना और ऊपर से जीना-हमारी नियति है राज...।
-भरपूर प्यार के साथ-
तुम्हारी...
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