श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 16
राज मेरे...।
क्या कभी तुम केवल आसमान को देखते हो! कितना खुला और विशाल आकाश है...क्या वहाँ भी मनुष्य एक दिन जमीन की तरह लकीरें खीच देगा! प्रभु न करे-कभी मनुष्य इतनी बुलंदी पर पहुँचे-और अपने अमानवीय चरण आसमान पर रखकर-वहाँ भी धर्म और देश की सीमाएँ बना सके। भगवान ने तो केवल संसार की सृष्टि की थी-सभी प्राकृतिक नयामतों से भरपूर...उसमें कोई लकीरें नहीं खीची थी। भौगोलिक कारणों से हमारे रंग-रूप और भाषायें अलग हो गई है। चार-कदम साथ चलने से-जन्मों के संबंध बन जाते है और छः कदम चलने से भाषा बदल जाती है...पर रक्त का रंग कभी नहीं बदला या बदलता। सारी सृष्टि के प्राणी मात्र (जीव-जन्तू) का रक्त रंग एक ही है। फिर यह मनुष्य-मनुष्य में अंतर क्यों! मनुष्य के जन्म-मरण की स्थितियाँ क्या केवल इन मानव-निर्मित सीमाओं के कारण भिन्न हो जाती है।
राज! मैं तो सोचती हूँ कि अगर मनुष्य अपनी हर-पल अपनी मौत और अपने इष्ट को स्मरण रखे तो वह कभी मानवता के स्तर से नहीं गिर सकता। किंतु जब वह इस मूल-सत्य को भूल कर संसार में इतना रम जाता है कि स्वयं के अमरता का प्रतीक मानने लगता है-तभी वह धरती पर खून बहाता है। वैभव और अहंकार मैं डूबकर-एटमी-शक्तियों का आविष्कार करता है-एक दूसरे पर हावी होने का निष्फल प्रयत्न करता है। उसका दंभ-इतना ऊँचा होकर बोलता है कि मानवता उस के पैरो तले कराह उठती है। फिर भी वह अपनी महत्वाकांक्षाओं की धुन में बढ़ता चला जाता है-बिन देखे-बिन सुने-सब कुछ रौंधता हुआ-अटंक और बेलाग
आज बस इतना ही-
तुम्हारी-
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