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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 15


मेरे प्रिय...।

तुम्हें मैं पत्र तब लिखती हूँ जब मेरे मन की दीवारें चटकने लगती है। हृदयागार से ऊँचे-ऊँचे धुआँधार बादल उठने लगते है-तब लगता है मेरे सामने तुम्हारा मूर्त-रूप है-जिस के सामने मैं रो सकती हूँ-जिस के सामने मैं अपने हृदय में डूबी हुई व्यथार्यों को उड़ेल सकती हूँ। कभी-कभी सोचती हूँ यह कैसी एकांत साधना है मेरी...जिसे तुम कदापि जानते नहीं-और कभी जान भी न सकोगे! इष्ट का साक्षात उपस्थित होना क्या अनिवार्य है...क्या यूँ भी हमारी श्रृद्धा के फूल उस तक नहीं पहुँच सकते। हमारा चढ़ाया हुआ अर्ध्य क्या उसे नहीं चढ़ता! मूक एवं अदृश्य रहते हुए भी क्या वह हमारे हृदय के एक-एक उदगार से परिचित नहीं होता! जिस दिन उस अदृश्य के प्रति  मनुष्यता का यह विश्वास टूट जायेगा-उस दिन मैं भी समझ लूँगी, मेरी सारी आस्था, मेरी सारी आराधना और मोह व्यर्थ है। यही क्या कम है कि तुम्हारे अमूर्त-रूप के समक्ष में अपनी पीड़ा का पिटारा खुले मन से खोलकर बैठ सकती हूँ...और अपने हृदय के अनगढ़ता से सिले पैबंद दिखाती रह सकती हूँ...क्योंकि तुम मेरी सीवन नहीं उधेड़ते तुम मेरी पीड़ा को अपनी दृष्टि को राहत देकर उसे आत्मसात कर जाते हो। यह उपहार मेरे लिये कम नहीं है।

अब तुम्हारे साथ-तुम्हारी शहनाज है-मेरे मन में तुम्हारी तस्वीर-तुम्हारी मूर्ति पूरी हो गई है। उसे तुम्हारे साथ देखकर-एक अनन्य सुख ही मासता है मुझे...। तुम अर्द्धनारीश्वर थे-अब पूर्ण पुरुष हो गये हो...क्या इसीलिये मेरे अंदर भी एक पूर्णता आ गई है। मेरे लिये तो तुम शिव हो गये हो। पार्वती के बिना क्या शिव की कल्पना की जा सकती है! मैं तो वह अभिशप्त उमा हूँ...प्राण! जो जब भी शिव के साथ रही-अपना अभिशप्त साया उस पर डाले रही और भस्म होकर भी शिव के गले से लिपटी रही...पर यही क्या उमा की मुक्ति नहीं कि वह शिव के सम्मान के लिये भस्म हो सके...। नारी की इस आस्था को इस त्याग को पुरुष कभी नहीं समझ पायेगा...। यह लेन-देन के संबंधों से-आदान-प्रदान के चक्कर से परे की चीज है। इस गहनता को स्त्री धारण नहीं करती-कहीं वह उसके हाड़-माँस में गुंथी हुई, दबी चिंगारी की तरह उसे मथती एवं गढ़ती रहती है। उसमें उसका कोई बड़प्पन या अपेक्षा की लालसा नहीं होती-बल्कि वह उस मैं आत्मसात होकर- विमोर हुई रहती है और उस भावना को शाश्वत-रूप में जीती है।

प्राण! न जाने आज यह सब क्या लिखती जा रही हूँ। तुम नहीं समझोगे-यह सब! ये मेरे अर्नगल प्रलाप ही सही-पर कहीं मेरे जीवन की सत्यतायी से जुड़े हुए है।

हिंदु-दर्शन में तुम्हारा अगाध विश्वास देखकर और वैदिक मंत्रों को तुम्हारे मुख से सुनकर-मैं अंदर ही अंदर भीग जाती हूँ...इसी से शायद, कही तुम्हारे और निकट अनुभव करती हूँ स्वयं को...। अन्यथा क्या खाम्यता है, क्या धरातल है-हम दोनों का या कुछ ऐसी ही संवेदना भरी-भावना का-जो बिना नाम पाये-तुम्हें और मुझे बाँध कर रखती है...।

एक अबोध भाव...

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