श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 14
प्रिय!
रात के इस पिछले पहर में तटस्थ होकर सोच रही हूँ-कही तुम्हारी शहनाज को देखकर लगता है कि तुम अब पूर्ण हो गये हो...। बड़ी प्यारी है...वह। उसकी अजुरियो में सदैव तुम्हारे लिये प्यार के फूल भरे रहें और तुम्हारा कोमल हृदय कभी-किसी पाषाणता से न टूटे...यही मेरी प्रार्थना है। पिछले दिनों मैंने सायास एक असंग-सा उपेक्षित भाव...तुम्हारे लिये अपने मन में पाल लिया था...इसलिए नहीं कि तुम उस जाति के हो-जिसने सदियों से न जाने कहाँ-कहाँ हमारे लिये कांटे उगाये हैं बल्कि इसलिये कि तुम्हारे मन में भी तो कही ऐसी भावनाएँ नहीं है! कहीं तुम भी बाह्य रूप से धर्म-निरपेक्ष बनने का नाटक करते हो और आन्तरिक रूप से वही दकियानूसी, सांस्कारिक एवं कहर हो। यो मेरा मन बहुत दुःखता है जब मैं तुम्हें ऐसी गाली देती...। यह गलती मैं तुम्हें नहीं-पूरी मानवता को दे रही हूँ-किंतु बया करूँ-मन है न...। आसपास उगे संशय के नागफनी के काँटों के बीच रहते-रहते शंकालू हो गया है। यों घमंड से नहीं कह रही किंतु इस राम और कृष्ण की धरती पर, जहाँ वेदों की पावन सृष्टि हुई है-पहले दूर अतीत में कही भी साम्प्रदायिकता नहीं थी। धर्म-निरपेक्षता थी। हमारे सारे धार्मिक ग्रंथ-यहाँ तक कि वेदों में किन्हीं जातियों का वर्णन नहीं है केवल काम बाँटे गये-शारीरिक और मानसिक शक्ति को आधार बनाकर। आज न जाने-किस धर्म-शिक्षा से हमने अपने घरों में लकीरे खींच ली है। मेरा मन कहीं से उठता है। जब मैं अखबार उठाकर देखती हूँ तो वह साम्प्रदायिक दँगो, निहत्थी, मानवता की हत्याओं के लहू से रंगा हुआ प्रतीत होता है।
मेरे दिलावर मुझे बताओं-यह खुदा की दी हुई जिंदगी को लेने वाले कौन हात हैं...ये अमानवीय कृत करने वाले...। मानव होने का दम भरने वाला यह निष्कृष्ट जीव-क्या यह नहीं सोचता कि एक-हत्या के पीछे भी एक कितना बड़ा घर होता है, एक माँ होती है, एक प्रेयसी, बूढ़े पिता की बेबस आहें, मासूम खिलखिलाते बच्चे...। क्या इन हत्यारों को रात-भर नींद आ जाती होगी! किसी की बेबस आहे-क्या उनकी रातों के अंधियारे को भयभीत न करती होगी। वे अतृप्त एवं सन्तपत रूहे क्या प्रेत बनकर उनकी आत्माओं को झकझोरती न होगी। मैं तो समझ नहीं पाती कि कौन-सी संगीनौ से इन की बंदूकों के मुंह बंद हो सकते है। कौन-सी डोरियाँ इन के हृदयों को परस्पर बाँधकर रख सकती है...तुम्ही बतायों...। तुम से इसलिये आ रही हूँ कि तुम अन्य देश के वासी-सही लेकिन मानवता के मूल से तो उसी भाँति जुड़े हो...!
देशों के बीच खिंची राजनैतिक लकीरों ने संबंधों के बीच खाईयाँ-दर-खाईयाँ एवं अजनबीपन का भूगोल बना दिया है। पिछले दिनों समाचार पत्र में था-किसी ने लिखा था-वह अपने रिश्तेदारों को मिलने गया तो उन्हें वहाँ ऐसे देखा गया जैसे वे अजायब-घर के कोई पंछी हो। उन दिनों वहाँ इस बात पर गरमा-गरमी चल रही थी कि हिंदु की लाश को वह अपनी धरती पर जलाने नहीं देगे। उसे दफनाना हो तो दफनाये...। किसी को क्या अपने मन का मरण भी नहीं दिया जायेगा प्राण! जीवन तो हम सदैव दूसरों को बनाये चौखटों में रखकर जीते ही है-पर मरकर अपने दंग की एक राहत का अधिकार पाने की इच्छा तो सब की होती है...तो क्यों वह अधिकार भी मनुष्य से छीन लिया जायेगा...! मैं देख रही हूँ-तुम्हारे चेहरे का भाव कि आप मरे जग प्रलय...। पर नहीं जान-पीछे छूटी हुई आप की सलनत इस से बहुत आहत होती है।
मेरी कल्पना के आधार। मैं यह क्या कह रही हूँ-यह कोई आज से तो शुरू नहीं हुआ न। निरन्तर यह अत्याचार चलते रहे हैं। हिटलर ने ज्रूश पर जैसे अमानवीय आघात किये-जो-अनाथ-अवर्णित-कल्पनातीत-पीड़ा दी-संहार किया वह तो शायद-इतिहास की किताबों में सदैव रक्त की तरह रिसता रहेगा-पर फिर भी-हम पर-समय-हर युग में कुछ नया-कुछ अच्छा-कुछ मानवीयता की अपेक्षा करते रहते है।
चलो! जाने दो। रात बहुत हो गई है और किन-किन दुनियाई विसंगतियों की करवटों में-मैं जाग रही हूँ...पत्र बंद करती हूँ-बहुत लंबा हो गया है। यो भी तुमसे जुड़ी कल्पनाओं में इन कठोर यथार्थ-परक-कट्टरताओ का क्या अर्थ है। यह सब मैं तुम्हारा खुला-विस्मृत-मन देखकर कह जाती हूँ...। तुम्हारा भारतीय लड़की में भारतीय नैतिक संस्कार ढूँढ़ना-कहीं तुम्हारा बड़प्पन ही नहीं था कहीं। इस दुनिया में फा के अपार-सागर है-हम कहीं प्रेम की छोटी-सी पतवार बनकर मानवता को त्राण दे सके तो क्या बुरा है...।
यदि एक-एक करके एक भी व्यक्ति-मनुष्य जीवन के इस सास्तत्व को समझ ले, तो मेरा यह प्रलाप सार्थक हो जायेगा-प्राण...।
शेष-तुम्हें अपनी इस बोझिल दार्शनिकता में और नहीं डूबोना चाहती...। तुम पार के जिस इन्द्रधनुष पर डोल रहे हो उससे तुम्हें परे नहीं करना चाहती।
आज इतना ही-
तुम्हारी-
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