श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 13
मेरे दर्पण
इस बार एक लम्बे अंतराल के बाद तुम्हें देखा-वह भी बिल्कुल एक नये रूप में...इस बार तुम अपनी इरानी प्रेमिका को साथ लाए थे...। यही नहीं तुम उसके साथ विवाह का निर्णय भी लेकर आए थे...। मुझे मिलाने चले आये थे-उसे...। मालूम नहीं...हमारे संबंधों के बीच क्या है, किंतु लगता है कहीं-न-कहीं तुम स्वयं को मुझ से जुड़ा हुआ महसूस करते हो...और मैं इसी से जुड़ा पाती हूँ..। मेरे टूटन की किरच-किरच बिखरते-बिखरते संभल जाती हूँ।
बहुत देर तक एक चुप्पी-सी बहती रही थी हमारे बीच-जो मेज पर पड़ी तश्तरियाँ पर धुँध-सी उड़ती रही थी-शायद तुम्हें शब्द नहीं मिल रहे थे-या मेरा भौचक चेहरा तुम से कोई चुगली खा रहा था-उस सबके बीच अनजान लहर-सी सहमी बैठी रही थी शहजाद...।
मालूम नहीं-वह क्या सोचती रही होगी-या उसने क्या समझा होगा...पर कुछ तो जरूर अखरा होगा-उसे-जिस संबंध की हम आजतक परिभाषित नहीं कर पाये-वह क्या जानेगी-बस कोई संशय न पाला हो उसने। क्योंकि उसकी कच्ची उम्र-नीम की निमोलियाँ कहाँ पचा पायेगी...।
इस विषय में और कुछ न कहकर यहीं कहूँगी कि अच्छी लगी। वह भी तुम्हारी तरह एक गहन-गंभीर व्यक्तित्व की मालिक है...आजकल की सी फुदकती चिड़िया नहीं। मैं तो तुम्हें पहले ही कह चुकी थी कि छोड़ो चक्कर और किसी ईरानी लड़की से विवाह करके घर बसा लो। आदमी कहीं भी पहुँच जाये पर अपने दिल-दिमाग और पेट का गुलाम ही होता है। अपने देश की लड़की उसे इस दासत्व से मुक्ति दिला सकती है। जिन संस्कारों, जिन भाषायी, अंदाज एवं खहे मीठे व्यंजनो के सौधेपन ने उसका बचपन संवारा या बिगाड़ा होता है-उस को आखरी सकून भी वहीं मिलता है। अपनी भाषा में तुम अपने दुःख-दर्द को जिस संजीदगी या अंतरंगता से कह सकते हो, पराई भाषा की संप्रेषणीयता कभी इतनी ईमानदार नहीं हो सकती। जिस सीधी पकवान की बाँस तुम्हारी देशी रसोई से उठकर, तुम्हारे नथुनों की खुशबूओं से सरोबार कर सकती है वह विदेशी अन्नपूर्णा नहीं दे सकती। तुम सदैव खुश रहो-तुम्हारे प्यार को भी-आश्वस्ति और विश्वास मिले मुझे इसी में सुख मिलता है।
पर प्राण! इतने अन्तराल के बाद आकर तुम ने इसे तलछट की सोई लहरों को फिर क्यों उद्वेलित कर दिया। क्यों एक डाँट खाकर सोई हुई पीड़ा को फिर से जगा दिया। मेरी संजोई हुई, तुम्हारे प्रति सारी उपेक्षा को, अखबारी समाचारों से संचित कट्टर-धार्मिकता आडम्बरता एवं जातिगत असुरक्षा को तुम ने पलभर में ढेर कर दिया। तुम आखिर क्या चाहते हो मुझसे मेरे प्राण...। मुझे शांति से जीने क्यों नहीं देते...। मेरी संचित शक्ति को-फिर से बिखेरने आ जाते हो। मालूम नहीं, तुम्हें क्या मिलता है-यह सब करके...!
काश! तुम समझ पाते...मेरी आँखों में तिरते रक्तिम डोरों की भाषा...या कहीं अपना बिंब देख पाते-जो मुझे हरपल उद्वेलित किये रहता है। लेकिन क्या कहूँ-तुम्हें द्वार से लौटा भी तो नहीं सकती...। आँगन में आई हुई धूप से कैसे मुँह मोड़ लूँ...आखिर...कैसे।
-एक अनकहा छल...
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