श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 12
प्राण!
तुम्हारे मन की उड़ानों को मैं क्यों रोकूँ! तुम्हारे आजाद पँखों को मैं क्या बाँधू! मैं नहीं चाहती-मेरे हृदय की किसी भी भावना में तुम बंधो। अब मुझ में वह बहाव तो नहीं है-वह अमूल्य क्षण, वह मनुहार, वह किसलयी-कोमलता तो नहीं है जिससे मैं आग्रह कर, तुम्हें भटकती राहों से लौटा लाऊँ...। तुम्हारे क्वारे अरमानों को देने के लिये-मेरे पास केवल कुछ सम्मति की यथार्थ-छड़ियाँ हैं जो तुम्हें दुनिया की मार से बचाने का उपक्रम-भर कर सकती हैं...। मैं नहीं चाहती, तुम पुनः अविश्वास और विश्वास-घात की मार से आहत होवो-और आवारा लड़कियों की बेरूखी का शिकार बनो...मेरी चाहत तो केवल तुम्हे पनपते देखने की है। भगवान की शर्त के हम दर्शन कर सकते है, उस की शर्त की स्थापना भी हृदय में कर सकते है, लेकिन उसे सम्पूर्ण पाने की एकांत कामना तो नहीं कर सकते न! तुम एक मूर्ति की तरह मेरे आलौकिक क्षणों को अन्विति बने रहो-यही मेरी कामना है। कभी-कभी साक्षात रूप में मेरे सामने बैठकर अपनी भव्यता से अभिभूत करते रहो बस...। तुम्हारे माध्यम से शायद मैं भी संसार को किसी नयी दृष्टि से देखने का दर्शन पा सकूँ...। तुम कहीं भी रहो, किसी के साथ भी रहो-इस बारे में-मैं क्यों सोचू...पर जब कभी-कभी तुम बहुत दिनों तक नहीं दिखते हो-तो न जाने क्यों उदास हो जाती हूँ। तब धर्म और देश की लकीरें कही बीच में-खींचकर तुम से तटस्थ रहने का मन-ही-मन प्रण करती हूँ। मन को जीतने के ये सारे उपक्रम कभी-कभी कितने व्यथा परक होते हैं तुम तो जानते ही हो...संदर्भ चाहे अलग-अलग हो पर मूल-भाव तो नहीं बदलते न। प्राण।
एक भावना-
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