श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 11
मेर राज
अब तुम्हारी तटस्थता शायद तुम्हारी शक्ति बन गई है। अब मैं देखती हूँ...तुम उदास नहीं हो...। तुम में एक तरह का मानसिक बल आ गया है। जो कविता तुम उस दिन लिखकर आये थे...उस में तुम ने जैसे उषा को ईश्वर या मसीहा बना दिया था। तुम ने आकाश से भी ऊँचा पहुँचा दिया था उसे...तुम ने लिखा था-ओ! मसीहे तुम्हारे चरण कैसे गहूँ-तुम ने मेरी आँखे खोल दी है। दुनियां को देखने के लिए तुम ने मुझे नयी आँखें दे दी है। तुम सुना रहे थे और मैं तुम्हारी इस भावना से अभिभूत हुये जा रही थी...। मैं कहना चाह रही थी...। मसीहा वह नहीं-तुम हो...तुम...। क्या तुम रामानंद नहीं हो! जो कबीर के पाँव सहलाने लगे हो...तुम तो सचमुच मसीहा हो-जो पार की इतनी सुन्दर व्याख्या कर सकता है। विश्वासघात का इतना सुन्दर श्रृंगार शायद ही किसी कवि ने किया हो।
उसके बाद तुम यह भी कह रहे हो-कि अब इसके बाद किसी अन्य को उस दृष्टि से देखना भी तुम्हारे लिये-जैसे गुनाह हो जाता है। पाप-सा लगता है...। तुम किसी पाप-भाव से ग्रस्त हो जाते हो...जब दूसरी लड़कियाँ तुम से केवल मित्रता की बात करती है...तब...! प्राण! क्या तुम इस धरती के हो! क्या तुम सचमुच पुरुष हो! नहीं! पुरुष के साथ में इतना सौन्दर्य...इतनी भव्यता नहीं जोड़ पाती...। इतनी शुचिता, इतनी पावनता पुरुष के लिये असंभव है। तुमने मेरे युगों से बने विश्वासों को हिला दिया है। मुझे एक बार फिर सोचने पर विवश कर दिया है-कि या तो मैं गलत हूँ-या दुनियाँ में अब भी अपवाद-असंभव नहीं हैं। दोनों में से एक को तो ठीक होना ही होना है- अन्यथा तुम तो मेरे विचारों की जमीन का ही अपदस्थ कर दोगे-
- तुम्हारी
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