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मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


व्याख्यान

8

बच्चों के स्वप्न

हमें यह महसूस हुआ था कि हम बहुत तेज़ चल आए हैं; इसलिए आइए थोड़ा-सा पीछे लौटा जाए। अपना पिछला परीक्षण करने से पहले, जिसमें हमने अपनी विधि द्वारा स्वप्न-विपर्यास की कठिनाई से बचने की कोशिश की थी, हमने यह कहा था कि यदि कोई ऐसे स्वप्न हों जिनमें विपर्यास बिलकुल नहीं होता या बहुत थोड़ा होता है तो उन्हीं तक अपना ध्यान सीमित रखकर विपर्यास के प्रश्न को छोड़ जाना सबसे अच्छा रहेगा। ऐसा करते हुए भी हम अपने ज्ञान के परिवर्धन का असली मार्ग छोड़ रहे हैं, क्योंकि वास्तव में जिन स्वप्नों में विपर्यास होता है, उनमें अर्थ लगाने की अपनी विधि का लगातार प्रयोग करने के बाद और उनका पूरा विश्लेषण करने के बाद हमें उन स्वप्नों के अस्तित्व का पता चला था, जिनमें विपर्यास नहीं होता।

जिन स्वप्नों को हम खोज रहे हैं वे बच्चों में मिलते हैं। वे छोटे, स्पष्ट, सुसम्बद्ध और समझने में आसान तथा असंदिग्ध होते हैं, फिर भी निश्चित रूप से होते स्वप्न ही हैं। पर आप यह न समझिए कि बच्चों के सब स्वप्न इस तरह के होते हैं। बचपन में बहत जल्दी स्वप्नों में विपर्यास दीखने लगता है। और हमारे रिकार्ड में पांच और चार वर्ष के बीच के बच्चों के ऐसे स्वप्न हैं, जिनमें बाद के जीवन के सब स्वप्नों की विशेषताएं दिखाई देती हैं। पर यदि आप उन स्वप्नों पर ही विचार करें जो पहचानने योग्य मानसिक क्रिया आरम्भ होने के और चौथे या पांचवें वर्ष के बीच में होते हैं तो आपको एक ऐसी श्रेणी दिखाई देगी जिसे हम शैशवीय, अर्थात् शैशव में होने वाली स्वप्न-श्रेणी कह सकते हैं, और बचपन के बाद के वर्षों में आपको उसी तरह के अकेले स्वप्न मिल सकते हैं। सच तो यह है कि बड़े आदमियों में भी कुछ अवस्थाओं में ऐसे स्वप्न दिखाई देते हैं जो शैशवीय स्वप्नों से भिन्न नहीं होते।

बच्चों के इन स्वप्नों से स्वप्नों की असली प्रकृति के बारे में, बिना कठिनाई के, भरोसे की जानकारी मिल सकती है। और हमें आशा है कि यह जानकारी निर्णायक और सर्वमान्य सिद्ध होगी।

1. इन स्वप्नों को समझाने के लिए न किसी विश्लेषण की आवश्यकता है और न कोई विधि प्रयोग में लाने की। जो बच्चा स्वप्न बतलाता है, उससे सवाल पूछने की भी आवश्यकता नहीं, पर हमें उसके जीवन के बारे में कुछ पता होना चाहिए; प्रत्येक उदाहरण में पिछले दिन का कोई ऐसा अनुभव होता है जो स्वप्न की व्याख्या करता है। स्वप्न पिछले दिन के अनुभव पर, नींद में, मन की प्रतिक्रिया है। अब हम कुछ उदाहरण लेंगे जिनके आधार पर हम आगे निष्कर्ष निकाल सकेंगे:

(क) एक वर्ष दस महीने आयु के किसी लड़के को, किसी को जन्मदिवस के उपहार के रूप में एक टोकरी जामुन देने थे। उसने स्पष्टतः बड़ी अनिच्छा से यह उपहार दिया, यद्यपि उसे भी उनमें से कुछ देने का वायदा किया गया था। सवेरे उसने अपना स्वप्न बताया, 'हरमैन ने सारे के सारे जामुन खा लिए।'

(ख) सवा तीन साल की एक लड़की पहली बार एक झील पर सैर करने गई। जब वे ज़मीन के पास पहुंचे तब वह नाव से उतरना ही नहीं चाहती थी, और जोर से रोने लगी। स्पष्ट है कि झील पर उसका समय बहुत तेजी से गुज़रा था। सवेरे उसने कहा, 'रात मैं झील पर सैर कर रही थी।' हम सम्भवतः यह अनुमान कर सकते हैं कि यह सैर ज़्यादा देर रही होगी।

(ग) सवा पांच साल के एक लड़के को हालस्टाट के पास ऐसकर्टल घुमाने ले जाया गया। उसने सुना था कि हालस्टाट डाकस्टीन की तलहटी में है और उस पर्वत में उसने बड़ी दिलचस्पी दिखाई थी। औसी में बने हुए मकान से डाकस्टीन का दृश्य बड़ा सुन्दर दिखाई देता था, और दूरबीन से उसकी चोटी पर बनी हुई साइमनी हट या कुटिया देखी जा सकती थी। बच्चे ने बार-बार दूरबीन से कुटिया देखने की कोशिश की थी, पर किसी को मालूम नहीं कि उसे सफलता मिली या नहीं। यह यात्रा हर्षपूर्ण आशाएं लेकर शुरू हुई थी। जब कोई नया पहाड़ दिखाई देता था, तभी वह बच्चा पूछता था, 'क्या वह डाकस्टीन है?' हर बार उसके प्रश्न का उत्तर नकारात्मक होता था। हौसला छोड़कर वह बिलकुल चुप हो गया और उसने औरों के साथ चलकर जलप्रपात तक पहुंचने से भी इनकार कर दिया। लोगों ने समझा कि वह बहुत थक गया है, पर अगले दिन सवेरे उसने बड़ी खुशी से कहा, 'रात हमने यह स्वप्न देखा कि हम साइमनी हट में हैं-'तो उसने इस आशय से याना में हिस्सा लिया था। वह एक ही ब्योरा पता लगा सका जो उसने पहले सुना था, 'छह घण्टे तक सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं।'

इस प्रश्न पर हमें जितनी जानकारी चाहिए उसके लिए ये तीन स्वप्न काफी हैं।

2. हम देखते हैं कि बचपन के स्वप्न अर्थहीन नहीं होते। वे पूर्ण और समझ में आने योग्य मानसिक कार्य होते हैं। स्वप्नों के बारे में डाक्टरी विज्ञान की जो राय मैंने आपको बताई थी, वह याद करिए, और पियानो की कुंजियों पर चलने वाली अकुशल उंगलियों की तुलना भी याद रखिए। आपको अवश्य दिखाई देगा कि बच्चों के जो स्वप्न मैंने आपको बताए हैं उनसे इस धारणा का कितना प्रबल खण्डन हो जाता है, पर यह बात बड़ी असामान्य होगी कि कोई बच्चा नींद में पूर्ण मानसिक कार्य कर सके और बड़ा आदमी उस स्थिति में सिर्फ बीच-बीच में प्रबल होने वाली प्रतिक्रियाएं ही कर सके। इसके अतिरिक्त, हमें यह बात युक्तियुक्त मालूम होती है कि बच्चे की नींद अधिक अच्छी और अधिक गहरी होती है।

3. इन स्वप्नों में कोई विपर्यास नहीं है, और इसलिए इनका अर्थ लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यहां व्यक्त और गुप्त वस्तु में भिन्नता नहीं है। इससे हम यह नतीजा निकालते हैं कि विपर्यास स्वप्न की प्रकृति का सर्वथा आवश्यक हिस्सा नहीं है। मुझे आशा है कि यह बात सुनकर आपके दिमाग से एक बोझ हट जाएगा। तो भी बारीकी से विचार करने पर हमें यह मानना पड़ता है कि इन स्वप्नों में भी विपर्यास यद्यपि बहुत ही कम मात्रा में होता है, और गुप्त स्वप्न-विचार में थोड़ा अन्तर होता है।

4. बच्चे का स्वप्न पिछले दिन के अनुभव की एक प्रतिक्रिया है। वह अनुभव कोई अफसोस, कोई चाह, या कोई अधूरी इच्छा पीछे छोड़ गया है। स्वप्न में हम इस इच्छा की सीधी और प्रत्यक्ष रूप से पूर्ति करते हैं। अब उन बातों पर विचार कीजिए जो हमने पहले पेश की थीं, और जिनमें यह बताया था कि बाहरी या भीतरी कायिक उद्दीपन नींद के विघातक और स्वप्न के जनक के रूप में क्या कार्य करते हैं। इस प्रश्न पर हमने कुछ निश्चित तथ्य प्राप्त किए थे, पर यह व्याख्या सिर्फ थोड़े-से स्वप्नों के बारे में सही उतरती थी। बच्चों के इन स्वप्नों में ऐसे कायिक उद्दीपनों के प्रभाव का कोई संकेत नहीं मिलता, इस विषय में हमारी कोई भूल नहीं हो सकती, क्योंकि ये स्वप्न पूरी तरह समझ में आ जाने वाले हैं और प्रत्येक स्वप्न, पूरे का पूरा आसानी से समझा जा सकता है। पर इस कारण हमें यह विचार नहीं छोड़ देना चाहिए कि यह उद्दीपन स्वप्न पैदा करता है। हम सिर्फ यह पूछ सकते हैं कि शुरू से ही हम यह क्यों भूल जाते हैं कि शारीरिक नींद-विघातक उद्दीपनों के अलावा मानसिक नींद-विघातक उद्दीपन भी होते हैं। निश्चय ही हम जानते हैं कि वयस्कों की नींद में मुख्यतः इन्हीं के कारण बाधा होती है। ये नींद के लिए आवश्यक मानसिक अवस्था अर्थात बाहरी दुनिया से दिलचस्पी के खिंचाव को रोकते हैं। आदमी चाहता है कि मेरे जीवन में कोई व्याघात न आए; वह जो कुछ कर रहा है, वही करते रहना चाहता है, और उसके न सोने का यही कारण है। इसलिए, बच्चे के लिए नींद खराब करने वाला मानसिक उद्दीपन उसकी अधूरी इच्छा है, और इस पर बच्चे की प्रतिक्रिया ही स्वप्न है।

5. इससे ज़रा-सा आगे बढ़ते ही हम स्वप्नों के कार्य के बारे में एक नतीजे पर आ जाते हैं। यदि स्वप्न एक मानसिक उद्दीपन की प्रतिक्रिया हैं, तो उनका महत्त्व इस बात में होना चाहिए कि वे उत्तेजन का आवेश (चाजी खत्म कर दें, जिससे उद्दीपन हट जाए, और नींद जारी रह सके। हम अभी यह नहीं जानते कि स्वप्न के द्वारा यह निरावेश या विसर्जन (डिस्चार्ज) गतिकीय दृष्टि से कैसे होता है, पर यह हम पहले ही देख चुके हैं कि स्वप्न नींद के विघातक नहीं हैं (जैसा कि उन्हें आमतौर से कहा जाता है), बल्कि विघातक प्रभावों से इसकी रक्षा करने वाले हैं। यह सच है कि हम यह सोचते हैं कि स्वप्न न आए होते तो हम अच्छी नींद सोए होते, पर हमारा ख्याल गलत है। सचाई यह है कि स्वप्न की सहायता के बिना हम ज़रा भी न सो पाते, और हम स्वप्न के कारण ही ज़्यादा-से-ज्यादा अच्छी तरह सो सके। ये थोड़ी-बहुत हमारी नींद विगाड़ते ज़रूर हैं, पर यह तो ठीक वैसे ही है जैसे पुलिस वाला शान्ति भंग करने वालों को भगाते हुए प्रायः शोर करके हमें जगा दिया करता है।

6. स्वप्न किसी इच्छा के कारण पैदा होते हैं और स्वप्न की वस्तु उस इच्छा को प्रकट करती है-यह स्वप्नों की एक मुख्य विशेषता है। दूसरी इतनी ही स्थिर विशेषता यह है कि स्वप्न विचार को केवल व्यक्त ही नहीं करता, बल्कि इस इच्छा को एक मतिभ्रमात्मक अनुभव के रूप में पूर्ण हुआ दिखाता है। 'मैं झील पर सैर करना चाहता हूं,' इस इच्छा से एक स्वप्न पैदा होता है : जिसकी वस्तु यह है, 'मैं झील पर सैर कर रहा हूं।' इस प्रकार बचपन के इन सरल स्वप्नों में भी गुप्त और व्यक्त स्वप्नों का अन्तर है और गुप्त स्वप्न-विचार में यह विपर्यास भी है कि विचार अनुभव के रूप में आ गया है, किसी स्वप्न का अर्थ लगाने में सबसे पहले हमें इस परिवर्तन के प्रक्रम को हटाना होगा। यदि इसे सब स्वप्नों की सबसे व्यापक विशेषताओं में से एक मान लिया जाए तो हमें पता चलता है कि ऊपर बताए गए स्वप्न-अवयव को कैसे अनुवादित या रूपान्तरित किया जा सकता है, 'मैं अपने भाई को नलाई करते देखता हूं' का यह अर्थ नहीं कि 'मेरा भाई घास हटा रहा है, बल्कि मैं चाहता हूं कि मेरा भाई खर्च कम करे, बल्कि उसे खर्च कम करना ही पड़ेगा। हमने जो दो व्यापक विशेषताएं बताई हैं, उनमें से पहली की अपेक्षा दूसरी को स्पष्टतः बिना विरोध स्वीकार कर लिए जाने की अधिक सम्भावना है।

विस्तृत जांच-पड़ताल से ही हम यह निश्चय कर सकते हैं कि स्वप्न पैदा करने वाला कारण सदा कोई इच्छा ही होती है, और वह कभी भी कोई आवश्यक कार्य या प्रयोजन या कोई डांट-फटकार नहीं हो सकती; परन्तु दूसरी विशेषता जैसी की तैसी रहती है, अर्थात् यह कि स्वप्न इस उद्दीपन को सिर्फ पुनः प्रस्तुत ही नहीं करता, बल्कि एक तरह से 'इसको जीकर' इसे हटा देता है, दूर कर देता है, शान्त कर देता है।

7. स्वप्नों की इन विशेषताओं के प्रसंग में हम अपनी स्वप्नों और गलतियों की तुलना पर फिर विचार कर सकते हैं। गलतियों पर विचार करते हुए हमने बाधक प्रवृत्ति और बाधित प्रवृत्ति में भेद दिखाया था, जिन दोनों के समझौते के रूप में गलती पैदा हुई। स्वप्न भी उसी श्रेणी के आते हैं; बाधित प्रवृत्ति सोने की ही प्रवृत्ति हो सकती है और बाधक प्रवृत्ति मानसिक उद्दीपन के रूप में आ जाती है, जिसे हम 'इच्छा' कह सकते हैं (जो पूर्ति या तृप्ति के लिए शोर मचा रही है), क्योंकि इस समय हम नींद के बाधक और किसी मानसिक उद्दीपन को नहीं जानते। यहां भी स्वप्न एक समझौते का परिणाम है; हम सोते हैं, पर फिर भी एक इच्छा की तृप्ति अनुभव करते हैं; एक इच्छा की तृप्ति करते हैं और साथ ही सोते भी रहते हैं। प्रत्येक को आंशिक सफलता और आंशिक विफलता मिलती है।

8. आपको याद होगा कि एक स्थान पर हमने यह आशा की थी कि स्वप्नों की समस्या को समझने का रास्ता इस तथ्य से निकल आएगा कि कुछ बड़े स्पष्ट कल्पना-जाल 'दिवास्वप्न' कहलाते हैं। ये दिवास्वप्न तो सचमुच इच्छाओं की पूर्ति ही है। ये आकांक्षापूर्ति या कामुक इच्छओं की पूर्ति है, जिन्हें हम इस रूप में पहचानते हैं, पर वे विचार में पहुंच जाती हैं और उनकी चाहे कितनी ही सजीव कल्पना की जाए, पर वे कभी भी मतिभ्रमात्मक अनुभवों का रूप नहीं लेतीं। इसलिए यहां स्वप्न की दो मुख्य विशेषताओं में से कम निश्चित विशेषता कायम रहती है, और दूसरी विशेषता जिसके लिए नींद की अवस्था आवश्यक है, और जो जाग्रत जीवन में नहीं अनुभव की जा सकती, सर्वथा अनुपस्थित है। इसलिए भाषा में हमें यह संकेत मिलता है कि इच्छापूर्ति स्वप्नों की मूल्य विशेषता है, और फिर यदि स्वप्नों में होने वाला अनभव कल्पनात्मक निरूपण का ही दसरा रूप है (यह रूप नींद की विशेष अवस्थाओं में सम्भव हो जाता है और इसे हम ‘रात का दिवास्वप्न' कह सकते हैं) तो हम तुरन्त समझ जाते हैं कि स्वप्न-निर्माण का प्रक्रम किस तरह रात में क्रियाशील उद्दीपन को प्रभावहीन कर सकता है; और तृप्ति करा सकता है। कारण यह है कि दिवास्वप्न भी तृप्ति से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई क्रिया-व्यापार की एक रीति ही है, और असल में तृप्ति के लिए ही हम लोग इसे प्रयोग में लाते हैं।

भाषा में इसके अलावा कई और भी रूढ़ प्रयोग हैं जिनसे यही ध्वनि निकलती है। हम इस कहावत से परिचित हैं, 'सूअर को स्वप्न में भी आम की गुठली दीखती है और मुर्गी को अनाज के दाने।' आप देखते हैं कि यह कहावत और भी नीचे, बच्चों से भी परे, पशु-पक्षियों पर पहुंचती है, और यही कहती है कि स्वप्नों की वस्तु किसी अभाव की पूर्ति है। हम कहा करते हैं, 'मैंने सपने में भी नहीं सोचा,' 'स्वप्न के समान सुन्दर,' 'वह धन के स्वप्न देखता रहता है,' 'सारे स्वप्न धूल में मिल गए, 'स्वप्न साकार हो गए'। यहां बोलचाल की भाषा में स्पष्टतः प्रभाव की पूर्ति के लिए स्वप्न का प्रयोग किया जाता है। यह ठीक है कि चिन्ताओं और कष्टों के भी स्वप्न आते हैं, पर 'स्वप्न' शब्द का सामान्य प्रयोग हमेशा किसी बढ़िया इच्छापूर्ति के लिए होता है, और ऐसी कोई कहावत नहीं है जो यह कहती हो कि सूअर और मुर्गियां ज़िबह किए जाने का स्वप्न देखती हैं।

निस्सन्देह यह बात समझ में आने वाली नहीं है कि स्वप्नों का इच्छापूर्ति का यह गुण इस विषय पर पहले के लेखकों की नज़र से बच गया हो। सच तो यह है कि उन्होंने इसका बहुत बार उल्लेख किया है, पर उनमें से किसी के मन में यह बात नहीं आई कि इस विशेषता को व्यापक विशेषता के रूप में पहचान लें और इसे स्वप्नों की व्याख्या की कुंजी समझें। इसमें उन्हें जो रुकावट पड़ी होगी, उसकी हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं। हम बाद में इस प्रश्न पर विचार करेंगे।

अब ज़रा यह सोचिए कि हमें बच्चों के स्वप्नों पर विचार करने से कितनी सारी जानकारी प्राप्त हो गई, और वह भी बिना किसी विशेष परेशानी के! हमने जाना कि स्वप्नों का कार्य नींद की रक्षा करना है कि वे दो विरोधी प्रवत्तियों के परिणामस्वरूप पैदा होते हैं। जिनमें से एक, अर्थात् नींद की अभिलाषा अपरिवर्तित रहती है, और दूसरी किसी मानसिक उद्दीपन को तृप्त करने की कोशिश करती है; कि स्वप्न मानसिक व्यापार सिद्ध हुए हैं जो अर्थपूर्ण होते हैं; कि उनकी दो मुख्य विशेषताएं हैं, अर्थात् वे इच्छापूर्ति हैं और मतिभ्रमात्मक अनुभव हैं; और इस बीच हम यह प्रायः भूल ही गए हैं कि हम मनोविश्लेषण का अध्ययन कर रहे थे। स्वप्नों और गलतियों में सम्बन्ध-सूत्र बांधने के अलावा हमारे काम का और कोई विशेष नतीजा नहीं हुआ। मनोविश्लेषण की मान्यताओं से बिलकुल अपरिचित भी कोई मनोवैज्ञानिक यह व्याख्या कर सकता था। फिर किसी ने ऐसा क्यों नहीं किया?

यदि सब स्वप्न शैशवीय प्ररूप के भी होते तो समस्या सुलझ गई होती और हमारा उद्देश्य पूरा हो गया होता और वह भी स्वप्न देखने वाले से बिना कुछ पूछे, अचेतन से बिना कुछ कहे, या मुक्त साहचर्य के प्रक्रम का बिना उपयोग किए ही हो गया होता। स्पष्ट है कि हमें इसी दिशा में अपना काम जारी रखना होगा। हम पहले बार-बार देख चुके हैं कि सर्वत्र मान्य बताई जाने वाली विशेषताएं बाद में सिर्फ एक तरह के और थोड़े-से स्वप्नों के लिए ही ठीक सिद्ध हुईं। इस प्रकार, हमें अब जो प्रश्न तय करना है वह यह है कि क्या बच्चों के स्वप्नों से प्रकट हुई सामान्य विशेषताएं इनसे अधिक स्थायी होती हैं, और क्या वे उन स्वप्नों के लिए भी ठीक उतरती हैं जिनका अर्थ सीधा नहीं है और जिनकी व्यक्त वस्तु में हमें पिछले दिन की बची हुई इच्छा का कोई निर्देश नहीं मिलता। हमारा ख्याल यह है कि इन दूसरे स्वप्नों में बहुत अधिक विपर्यास हो गया और इसलिए हमें फौरन कोई फैसला नहीं करना चाहिए। हमें यह भी सन्देह है कि इस विपर्यास को हटाने के लिए हमें मनोविश्लेषण की विधि की आवश्यकता होगी; जिसे हम अभी, इस विषय को सीखते समय, अलग रख देना चाहते हैं; और जैसे हमने अभी बच्चों के स्वप्नों का अर्थ लगाते हुए किया है, वैसे ही उसके बिना काम चलाना चाहते हैं।

कम-से-कम एक और तरह के स्वप्न भी ऐसे होते हैं जिनमें कोई विपर्यास नहीं होता, और जिन्हें बच्चों के स्वप्नों की तरह हम आसानी से पहचान सकते हैं कि वे इच्छापूर्ति हैं। ये वे स्वप्न हैं जो भूख, प्यास और कामुक इच्छा-इन अनिवार्य शारीरिक आवश्यकताओं के कारण जीवन-भर आते रहते हैं और इस अर्थ में वे इच्छापूर्ति हैं कि भीतरी कायिक उद्दीपनों की प्रतिक्रिया हैं। इस प्रकार मेरे रिकार्ड में एक साल सात महीने की एक छोटी लड़की का स्वप्न है जिसमें भोजन की वस्तुएं तथा उसका नाम लिखा था (अन्ना एफ०...स्ट्राबेरी, बिलबेरी, अण्डा, फल)। यह स्वप्न एक दिन के उपवास की प्रतिक्रियास्वरूप आया था, और स्वप्न में दो बार वही फल दिखाई पड़े जिन्हें खाने से उसे अपच की शिकायत हो गई थी और जिसके कारण उसे उपवास करना पड़ा था। साथ ही उसकी दादी को-उन दोनों की आयुओं को जोड़ सत्तर वर्ष था-गुर्दे में तकलीफ के कारण एक दिन उपवास करना पड़ा और उसे रात को यह स्वप्न आया कि वह कहीं दावत में गई हुई है और उसके आगे बड़ी स्वादिष्ट रसीली वस्तुएं रखी गई हैं। जिन कैदियों को भूखा छोड़ दिया जाता है और जिन लोगों को सफर में या साहसिक यात्राओं में भूखे रहना पड़ता है, उन पर की गई जांच से पता चलता है कि इन परिस्थितियों में उन्हें नियमित रूप से अपने अभावों की पूर्ति का स्वप्न आता है। ओटो नोर्डेन्सकोल्ड ने दक्षिणी ध्रुव-सम्बन्धी अपनी पुस्तक (1904) में उस टोली की चर्चा इस प्रकार की है, जिसके साथ उसने जाड़ा गुज़ारा था (जिल्द 1, पृष्ठ 336), 'हमारे स्वप्नों से हमारे विचारों के चलने की दिशा का बहुत स्पष्ट रूप से पता चलता था। जितने अधिक और जितने सजीव स्वप्न हमें उस समय आए उतने कभी नहीं आए थे। हमारे जिन साथियों को आमतौर से बहुत ही कम स्वप्न आते थे, वे भी सवेरे इस कल्पनालोक के ताजे अनुभवों पर होने वाली गोष्ठी में अव लम्बे-लम्बे किस्से सुनाते थे। सब स्वप्न उस बाहरी दुनिया के बारे में होते थे जो हमसे दूर छूट गई थी, पर प्रायः उनमें हमारी उस समय की अवस्था का निर्देश भी होता था...खाने और पीने को केन्द्र बनाकर ही हमारे स्वप्न अधिकतर चलते थे। हममें से एक आदमी, जो नींद में बड़ी-बड़ी दावतों में जाया करता था, सवेरे हमें यह बताकर बड़ा प्रसन्न होता था कि स्वप्न में उसने तीन 'कोर्स' वाला शानदार भोजन किया। एक ओर को तम्बाकू का स्वप्न आया करता था; तम्बाकू के पहाड़ के पहाड़ दिखाई पड़ते थे उसे; तीसरे को एक जहाज़ दीखता था जो पानी पर पूरी तरह तैरता हुआ आ रहा था, और पानी से बर्फ साफ हो गया था। एक और स्वप्न उल्लेख योग्य है : डाकिया चिट्ठियां लेकर आया और उसने उनके देर से आने की बड़ी लम्बी सफाई पेश की। उसने कहा कि मैंने वे एक गलत जगह पहुंचा दी थीं जिन्हें वापस लेने में मुझे बड़ी परेशानी हुई। इससे भी असम्भव बातें नींद में हमारे मनों में घूमती रहीं। पर जो स्वप्न मैंने देखे या दूसरों से सुने, उसमें एक बात विशेष रूप से महसूस हुई, कि प्रायः सब स्वप्नों में कल्पना का अभाव था। यदि हम इन सब स्वप्नों का लेखा रख पाते तो निश्चय ही वह बड़ी मनोवैज्ञानिक दिलचस्पी की चीज़ होती। आप कल्पना कर सकते हैं कि हम नींद के लिए कितने उत्सुक रहते होंगे जो हममें से हरएक को वह चीज़ देती थी जिसके लिए वह सबसे अधिक उत्सुक था। एक और उदाहरण लीजिए जो डू प्रेल का है, 'मंगोपार्क को अफ्रीका में यात्रा करते हुए प्यास के मारे मरा हुआ-सा हो जाने पर लगातार अपने देश के जलमय पहाड़ों और घाटियों के स्वप्न आते रहे। इसी तरह ट्रॅक जब मैगडेबुर्ग के गढ़ में भूख की यंत्रणा से परेशान था, तब उसने स्वप्न में अपने को बढिया भोजनों से घिरा हआ देखा: और जार्ज बैंक, जिसने फ्रैंकलिन की पहली यात्रा में हिस्सा लिया था, जब अपने भयंकर अभावों के कारण भूख के मारे मरणासन्न था, तब उसे नियमित रूप से प्रचुर भोजन का स्वप्न आता था।'

यदि कोई आदमी शाम को बहुत अधिक तली हुई चीजें खाकर प्यास अनुभव करने लगे तो उसे पानी पीने का स्वप्न आने की सम्भावना है, पर तीव्र भूख या प्यास को दूर नहीं किया जा सकता। उस अवस्था में हम प्यासे जाग उठते हैं, और हमें असली पानी पीना पड़ता है। यहां स्वप्न का कार्य व्यावहारिक महत्त्व का नहीं है, पर तो भी इतना स्पष्ट है कि यह हमारी नींद को उस उद्दीपन से बचाने के लिए आया था जो हमें जागने और कार्य करने के लिए प्रेरणा दे रहा था। जहां इच्छा की तीव्रता कम होती है वहां 'सन्तुष्टि'-स्वप्न से प्रायः प्रयोजन सिद्ध हो जाता है।

इसी प्रकार जब उद्दीपन कामुक इच्छा का होता है, तब स्वप्न उसकी सन्तुष्टि करता है, पर इस सन्तुष्टि में कुछ उल्लेखनीय विशेषताएं दिखाई देती हैं। क्योंकि काम-आवेग की यह विशेषता होती है कि वह अपने आलम्बन पर भूख और प्यास की अपेक्षा कुछ कम निर्भर होता है, इसलिए स्वप्नदोष में सन्तुष्टि वास्तविक हो सकती है, और आलम्बन की दृष्टि से कुछ कठिनाइयां होने के कारण (जिन पर बाद में विचार किया जाएगा) प्रायः ऐसा होता है कि वास्तविक सन्तुष्टि तब भी एक धुंधली या विपर्यस्त स्वप्नवस्तु से जुड़ी रहती है। स्वप्नदोषों की इस विशेषता के कारण वे, जैसा कि ओ० रैंक ने कहा है, स्वप्न-विपर्यास के अध्ययन के लिए उपयुक्त वस्तु हैं। इसके अलावा वयस्कों में इच्छा के स्वप्नों में सन्तुष्टि के अलावा प्रायः कुछ और चीजें भी होती हैं जो शुद्ध रूप से मानसिक स्रोत से पैदा होती हैं, और इन्हें समझने के लिए इनके निर्वचन की आवश्यकता होगी।

प्रसंगवश मैं यह कह दूं कि हमारी यह मान्यता नहीं है कि शैशवीय प्रकार के इच्छापूर्ति-स्वप्न वयस्कों के ऊपर बताई गई अनिवार्य इच्छाओं की प्रतिक्रियाओं के रूप में ही होते हैं। हम इस तरह के छोटे स्पष्ट स्वप्नों से भी उतने ही परिचित हैं-ये स्वप्न कुछ अभिभूत करने वाली स्थितियों के कारण आते हैं, और निश्चित रूप से मानसिक उद्दीपनों से पैदा होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ 'अधैर्य-स्वप्न' होते हैं, जिनमें कोई आदमी किसी यात्रा की तैयारी कर रहा है, या किसी व्याख्यान में या किसी से मिलने जाने की तैयारी कर रहा है। उसकी आशाएं स्वप्न में समय से पहले ही पूरी हो जाती हैं और वह असली यात्रा से पहली रात को ही अपनी यात्रा खतम कर लेता है. या थियेटर पहुंच जाता है या उस मित्र से बात कर लेता है जिससे मिलने वह जाने वाला है। फिर 'आराम स्वप्न' हैं जिनका यह नाम ठीक ही है, जिनमें कोई आदमी, जो सोता रहना चाहता है, यह स्वप्न देखता है कि मैं उठ गया हूं, नहाकर स्कूल पहुंच गया हूं, जबकि असल में वह सारे समय सो रहा है; जिसका अर्थ यह है कि वह सचमुच उठने के बजाय उठने का स्वप्न ही देखना पसन्द करेगा। इन स्वप्नों में नींद की इच्छा, जिसे हमने स्वप्न-निर्माण में नियमित रूप से हिस्सा लेने वाली मान लिया है, साफ रूप में अपने-आपको प्रकट करती है, और उनके असली उत्पादक के रूप में सामने आती है। नींद की आवश्यकता दूसरी बड़ी शारीरिक आवश्यकताओं के बराबर महत्त्व की है, और यह उचित ही है।

यहां मैं आपसे म्युनिख की शैक गैलरी में शिवड द्वारा बनाए गए एक चित्र की प्रतिलिपि की चर्चा करना चाहता हूं। आप ध्यान से देखिए कि दिमाग पर छाई हुई परिस्थितियों के कारण जन्म लेते स्वप्नों का अनुभव कलाकार ने कितने सही रूप में किया है! चित्र का शीर्षक है कैदी का स्वप्न और स्वप्न का विषय निश्चित रूप से उसका कैद से भाग निकलना होगा। यह बड़ा सखदायी विचार है कि कैदी को खिड़की के रास्ते भागना है क्योंकि खिड़की में होकर ही प्रकाश की किरण अन्दर आई है और उसने उसे नींद से जगाया है। एक-दूसरे के ऊपर जो बौने खड़े हैं, वे उन उत्तरोत्तर स्थितियों को सूचित करते हैं जिन पर उसे खिड़की पर चढ़ने के लिए पहुंचना होगा, और यदि मैं गलती नहीं करता और कलाकार के आशय को समझने में अति नहीं कर रहा तो सबसे ऊपर वाले बौने का रूप, जो जालियों को बीच से पकड़ रहा है (कैदी भी स्वयं यही कार्य करना चाहेगा), मनुष्य के रूप के समान ही है।

मैं कह चुका हूं कि बच्चों के स्वप्नों तथा शैशवीय स्वप्नों के अनुरूप स्वप्नों को छोड़कर और सव स्वप्नों में विपर्यास की वाधा पार करनी पड़ती है। हम तुरन्त यह नहीं कह सकते कि वे भी इच्छापूर्तियां ही हैं, जैसा कि हम उन्हें मानना चाहते हैं, या कुछ और, तथा उनकी व्यक्त वस्तु से हम यह अन्दाज़ा भी नहीं कर सकते कि वे किस मानसिक उद्दीपन से पैदा होते हैं, अथवा यह भी सिद्ध नहीं कर सकते कि वे दूसरे स्वप्नों की तरह उद्दीपन को दूर करने या शान्त करने का प्रयत्न करते हैं। सचाई यह है कि उनका निर्वचन करना होगा, अर्थात् उन्हें अनुवादित या रूपान्तरित करना होगा, विपर्यास के प्रक्रम को उलटना होगा, और व्यक्त वस्तु के स्थान पर गुप्त को लाना होगा। इसके बाद ही हम इसके बारे में कोई सुनिश्चित घोषणा कर सकते हैं कि बच्चों के स्वप्नों के बारे में हमने जो बात पता लगाई है, वह सब स्वप्नों पर एक जैसी सही बैठ सकती है या नहीं।

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