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मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


अब एक तीसरा समूह रह जाता है जो हमें बिलकुल समझ में नहीं आता। जब कोई ताकतवर वयस्क आदमी अपने ही सुपरिचित नगर में किसी सड़क या चौराहे को पार करने में डरता है, या जब कोई स्वस्थ और वयस्क स्त्री सिर्फ इस कारण प्रायः बेहोश हो जाती है कि कोई बिल्ली उसके कपड़े से रगड़ती चली गई, या कोई चूहा कमरे में से भागा, तो हमें इन घटनाओं का किसी खतरे से सम्बन्ध कैसे दिखाई दे सकता है? पर स्पष्टतः इन लोगों के लिए खतरा मौजूद है। इस तरह की (मनुष्येतर) प्राणि-भीति में यह नहीं कहा जा सकता कि उनके प्रति मनुष्य का घृणा अधिक तीव्र हो जाने के कारण ऐसा होता है। असल में बिलकुल इसके विपरीत बात सिद्ध होती है, क्योंकि ऐसे कितने ही लोग हैं जो, उदाहरण के लिए, बिल्ली को देखकर उसे अवश्य अपनी ओर बुलाएंगे और थपथपाएंगे। चूहे से बहुत सारी स्त्रियां डरती हैं, पर फिर भी यह बहुत प्रचलित पुकारने का नाम है। बहुत-सी लड़कियां, जो अपने प्रेमियों द्वारा इस नाम से पुकारे जाने पर प्रसन्न हो जाती हैं, उस छोटे-से सचमुच के प्राणी को देखकर भय से चिल्ला उठती हैं। जो आदमी सड़कें और चौराहे पार करने में डरता है, उसके व्यवहार में हमें एक ही बात प्रतीत होती है, कि वह छोटे बालक की तरह व्यवहार कर रहा है। बालक को सीधे शब्दों में यह समझाया जाता है कि ऐसी स्थितियां खतरनाक होती हैं और इस आदमी की चिन्ताएं भी दूर हो जाती हैं जब कोई और आदमी उसे खुली जगह से पार करा देता है।

चिन्ता के जिन दो रूपों का वर्णन हमने किया है, अर्थात् 'मुक्त उड़ता हुआ' साशंक त्रास और वह त्रास जो भीतियों या फोबिया से बंधा हुआ है, वे एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं। ऐसा नहीं है कि इनमें से एक कुछ आगे बढ़ने पर दूसरा बन जाता हो। ऐसा बहुत कम होता है कि वे जुड़े हुए हों, और वह भी मानो कभी संयोगवश। साधारण भयपूर्णता के तीव्रतम रूप से भी भीति या फोबिया पैदा होना आवश्यक नहीं। जिन लोगों को सारे जीवन एगोरा फोबिया या खुला स्थान पार करने की भीति सताती रही है, वे निराशावादी साशंक त्रास से बिलकुल मुक्त हो सकते हैं। बहुत-सी भातिया, उदाहरण के लिए, खुले स्थानों का या रेल-यात्रा का भय, पहली बार बाद के जीवन में ही स्पष्ट रूप से पैदा होती हैं; और भीतियां, जैसे अंधेरे, बिजली या (मनुष्येतर) प्राणियों का भय, शुरू से मौजूद मालूम होती हैं। पहले प्रकार की भीतियां गम्भीर रोग की सूचक हैं और दूसरे प्रकार की विलक्षणताओं की सूचक हैं। जिस मनुष्य में इन पीछे वाली भीतियों में से कोई विद्यमान है, उसके बारे में यह समझा जा सकता है कि उसमें इस जैसी और भीतियां भी होंगी। इतनी बात और कह दूं कि हम इन सब भीतियों को चिन्ता हिस्टीरिया के अन्तर्गत रखते हैं, अर्थात् हम उन्हें उस प्रसिद्ध विकार से निकट सम्बन्ध रखने वाला मानते हैं, जो कन्वर्शन-हिस्टीरिया या कायापलट-हिस्टीरिया कहलाता है।

स्नायु-रोगियों की चिन्ता का जो तीसरा रूप है, वह हमें उलझन में डाल देता है; चिन्ता का और जिस खतरे से डर है, उसका ज़रा-सा भी सम्बन्ध नहीं दिखाई देता। यह चिन्ता उदाहरण के लिए, हिस्टीरिया में, हिस्टीरिया के लक्षणों के साथ पैदा होती है, या उत्तेजन की अनेक अवस्थाओं में पैदा होती है, जिनमें हमें यह तो आशा करनी चाहिए कि कोई भाव प्रदर्शित होगा, पर वह चिन्ता-भाव ही होगा यह आशा बिलकुल नहीं करनी चाहिए; या परिस्थितियों से कोई सम्बन्ध न रखने वाला और हमें तथा रोगी को भी समझ में आने वाला एक असम्बद्ध चिन्ता-दौरा होता है। दूर-दूर तक देखने पर भी कोई ऐसा खतरा या मौका नज़र नहीं आता, जिसे अतिरंजित रूप देकर भी इसका कारण बताया जा सके। इसलिए इन आपसे-आप पैदा हो जाने वाले दौरों या आक्रमणों से यह पता चलता है कि उस संकुल दशा को, जिसे हम चिन्ता कहते हैं, दो खण्डों में बांटा जा सकता है। सारे हमले या दौरे को एक तीव्र परिवर्धित लक्षण, कंपकंपी, कमज़ोरी, दिल की धड़कन, सांस बन्द होने के द्वारा निरूपित किया जा सकता है; और वह सामान्य भावना, जिसे हम चिन्ता कहते हैं, बिलकुल अनुपस्थित हो सकती है, या नज़र में आने के अयोग्य हो गई हो सकती है, और फिर भी यह अवस्था की 'चिन्ता पर्याय' कहलाती है, वही रोगात्मक और कारणात्मक प्रामाणिकता है जो स्वयं चिन्ता थी।

अब दो सवाल पैदा होते हैं : क्या स्नायविक चिन्ता को, जिसमें खतरे का बहुत ही थोड़ा स्थान होता है, या बिलकुल ही स्थान नहीं होता, आलम्बननिष्ठ चिन्ता से, जो सारतः खतरे की एक प्रतिक्रिया है, सम्बन्ध जोड़ना असम्भव है, और स्नायविक चिन्ता को किस रूप में समझा जाए? अभी तो हम इसकी आशा पर दृढ़ रहेंगे कि जहां चिन्ता है, वहां कोई ऐसी चीज़ भी अवश्य होनी चाहिए, जिससे व्यक्ति डरता है।

रोगियों को देखने से स्वाभाविक चिन्ता को समझने की दिशा में अनेक सूत्र मिलते हैं, अब मैं उनके बारे में आपसे चर्चा करूंगा।

(क) यह समझना कठिन नहीं है कि साशंक त्रास या सामान्य भय का यौन जीवन के कुछ प्रक्रमों से, यह कहा जाए कि राग-उपयोजन, अर्थात् राग को उपयोग में लाने, की कुछ रीतियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस प्रकार की सबसे सरल और सबसे शिक्षाप्रद अवस्था उन लोगों में पैदा होती है, जो 'कुंठित उत्तेजन' अनुभव होने की स्थिति पैदा करते हैं, अर्थात् ऐसी स्थिति पैदा करते हैं जिसमें प्रबल यौन उत्तेजन नाकाफी विसर्जन अनुभव करता है, और सन्तुष्टि देने वाली परिणति तक नहीं ले जाया जाता। यह अवस्था, उदाहरण के लिए, पुरुषों में सगाई हो जाने के बाद होती है, और उन स्त्रियों में होती है जिनके पतियों में काफी पुंसत्व नहीं होता, या जो लोग सम्भोग बहुत तेज़ी से, या गर्भाधान रोकने के विचार से अधूरा करते हैं। इन अवस्थाओं में रागात्मक उत्तेजन लुप्त हो जाता है, और उसके स्थान पर चिन्ता आ जाती है। यह चिन्ता साशंक त्रास के रूप में होती है। और चिन्ता के दौरों तथा चिन्ता पर्यायों के रूप में भी होती है। अधूरा सम्भोग1, जो गर्भाधान से बचने के लिए किया जाता है, जब नियमित आदत बन जाता है, तब वह पुरुषों में, और स्त्रियों में और भी विशेष रूप से चिन्ता-स्नायु-रोग का इतना नियमित कारण होता है कि ऐसे सब रोगियों में डाक्टरों को सबसे पहले इसी कारण के होने की खोज करनी चाहिए। असंख्य उदाहरणों से पता चलता है कि जब अधूरे सम्भोग-की लत छोड़ दी जाती है, तब चिन्ता-स्नायु-रोग भी जाता रहता है। जहां तक मैं जानता हूं, अब वे डाक्टर भी इस बात से इनकार नहीं करते, जो मनोविश्लेषण से विमुख रहते हैं, कि यौन संयम और चिन्ता-अवस्थाओं में कुछ सम्बन्ध मौजूद है। तो भी मैं आसानी से यह कल्पना कर सकता हूं कि वे इस सम्बन्ध को उलटा रखते हैं, और यह विचार पेश करते हैं कि इन लोगों में भयपूर्णता की पूर्वप्रवृत्ति होती है, और इसलिए वे यौन मामलों में सतर्कता बरतते हैं। यही बात और अधिक निश्चित रूप में उन स्त्रियों में होने वाली प्रतिक्रियाओं में दिखाई देती है, जिनमें मैथुन-कार्य सारतः निष्क्रिय होता है, और इसलिए इसका रास्ता पुरुष द्वारा किए गए आचरण से ही निश्चित होता है। किसी स्त्री में सम्भोग की इच्छा और सन्तुष्टि का सामर्थ्य जितना अधिक होगा, उतने ही अधिक निश्चित रूप में पुरुष की नपुंसकता या अधूरे सम्भोग के लक्षण प्रकट होंगे। पर जिन स्त्रियों में उतनी संवेदनशीलता नहीं होती या जिनमें कामक्षुधा इतनी प्रबल नहीं होती, उनमें इस तरह के दुष्कर्म से बहुत कम गम्भीर परिणाम होते हैं।

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1. Coitus interruptus

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