लोगों की राय

विविध >> मनोविश्लेषण

मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

286 पाठक हैं

‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


यौन विरति में भी, जिसकी डाक्टर लोग आजकल इतने उत्साह से सिफारिश करते हैं, चिन्ता-अवस्थाओं का सिर्फ तब यही अर्थ होता है जबकि राग, जिसके सन्तोषजनक रूप से निकलने का रास्ता रोका जाता है, बहुत प्रबल हो, और उदात्तीकरण में उसका बहुत अधिक मात्रा में उपयोग न हो रहा हो। रोग पैदा होगा या नहीं, इसका उत्तर सदा मात्रा पर निर्भर है। रोग के अलावा भी चरित्र-निर्माण के क्षेत्र में यह आसानी से देखा जा सकता है कि यौन संयम के साथ कुछ चिन्तातुरता और सतर्कता रहती है, जबकि निर्भयता और साहसपूर्ण भावना के साथ यौन आवश्यकताओं को बिना रुकावट सहन करने की प्रवृत्ति रहती है। सभ्यता के बहुरूपी प्रभावों से यह सम्बन्ध कितना ही बदल जाए या उलझ जाए, पर यह बात निर्विवाद है कि औसत आदमी के लिए चिन्ता और यौन रुकावट का नज़दीकी सम्बन्ध है।

मैंने आपको वे सब प्रेक्षण नहीं बताए हैं जो राग और चिन्ता के इस जननात्मक सम्बन्ध-सूत्र का संकेत करते हैं। उदाहरण के लिए, जीवन के कुछ कालों, जैसे तरुणावस्था और रजोरोध की चिन्ता-अवस्थाओं पर होने वाले प्रभाव में राग का उत्पादन बहुत बढ़ जाता है। उत्तेजना की बहुत-सी अवस्थाओं में भी यौनउत्तेजन और चिन्ता का सम्मिश्रण प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, और इसी तरह यौनउत्तेजन के स्थान पर अन्त में चिन्ता का आ जाना भी स्पष्ट दिखाई देता है। इन सब बातों से दो धारणाएं बनती हैं। पहली तो यह कि इसमें प्रकृत उपयोग में आने से वंचित राग का संचय होता है, और दूसरी यह कि इसमें सिर्फ कायिक प्रक्रम होते हैं। यौन इच्छा से चिन्ता कैसे बन जाती है, यह बात इस समय स्पष्ट नहीं है। हम सिर्फ यह बात निश्चित रूप से पता लगा सकते हैं कि इच्छा का अभाव है, और उसके स्थान पर चिन्ता दिखाई पड़ती है।

(ख) दूसरा सूत्र मनोस्नायु-रोगों, खासकर हिस्टीरिया के विश्लेषण से प्राप्त होता है। हम पहले कह चुके हैं कि इस रोग के लक्षणों के साथ चिन्ता भी प्रायः होती है और अन-बंधी चिन्ता जीर्ण रोग के रूप में मौजूद हो सकती है, या दौरों में प्रकट हो सकती है। रोगी यह नहीं कह सकते कि वे किस चीज़ से डरते हैं। वे इसका सम्बन्ध मरना, पागल होना, चोट खाना आदि बहुत अधिक सुविधाजनक भीतियों के असंदिग्ध परवर्ती विशदन से जोड़ लेते हैं। जब हम उस अवस्था का विश्लेषण करते हैं जिससे चिन्ता अथवा चिन्ता के साथ मौजूद लक्षण पैदा हुए, तब हम साधारणतया यह जान सकते हैं कि कौन-सा प्रकृत मानसिक प्रक्रम-मार्ग में रोक दिया गया है, जिसके स्थान पर चिन्ता प्रकट हुई है। दूसरे शब्दों में, इसे इस तरह कहा जा सकता है : अचेतन प्रक्रम का अर्थ हम इस तरह लगाते हैं जैसे इसका दमन नहीं हुआ, और यह बिना रुकावट चेतना में चला गया है। इस प्रक्रम के साथ कोई खास भाव रहा होगा, और अब हम आश्चर्य से देखते हैं कि प्रत्येक रोगी में इस भाव के स्थान पर, जो सामान्यतः मानसिक प्रक्रम के साथ चेतना में पहुंच जाता है, चिन्ता आ जाती है, चाहे यह पहले किसी भी प्रकार का रहा हो। इस प्रकार, जब हमारे सामने हिस्टीरिकल चिन्ता-दशा हो, तब उसका अचेतन सहसम्बन्धी1 उसी तरह का कोई उत्तेजन हो सकता है, जैसे साधारण भय, लज्जा, परेशानी; या इसी तरह सम्भव है कि यह धनात्मक रागगत उत्तेजन हो; या सम्भव है कि यह कोई विरोधी और प्रचण्ड उत्तेजन हो, जैसे गुस्सा। इस प्रकार चिन्ता वह आम चालू सिक्का है जो सब भावों के बदले मिल सकता है या जिसके बदले सब भाव मिल सकते हैं, जबकि तत्सम्बन्धी मनोबिम्बात्मक वस्तु का दमन किया गया हो।

(ग) तीसरा प्रेक्षण उन रोगियों से मिला है जिनके लक्षण मनोग्रस्तता का रूप धारण कर लेते हैं, और जिनमें चिन्ता से प्रभावित न होने की विशेषता दिखाई देती है। जब हम उन्हें उनके मनोग्रस्त कार्य करने से रोकते हैं, या जब वे स्वयं अपने किसी मनोग्रस्त कार्य को छोड़ने की कोशिश करते हैं, तब एक भीषण त्रास उन्हें इस अनिवार्यता के आगे सिर झुकाने, और उस कार्य को करने के लिए मजबूर कर देता है। हम देखते हैं कि चिन्ता मनोग्रस्त कार्य के नीचे छिपी हुई थी और यह त्रास की भावना से बचने के लिए ही की जाती है। इसलिए मनोग्रस्तता-स्नायुरोग में चिन्ता के स्थान पर लक्षण-निर्माण हो जाता है; यदि यह न होती तो चिन्ता पैदा हो जाती; और जब हम हिस्टीरिया पर ध्यान देते हैं, तब हमें ऐसा ही सम्बन्ध मौजूद दिखाई देता है-दमन के परिणामस्वरूप या तो शुद्ध परिवर्धित चिन्ता होती है या लक्षण-निर्माण के साथ चिन्ता होती है, और चिन्ता के बिना लक्षण-निर्माण होता है। इसलिए सूक्ष्म अर्थ में, ऐसा कहना सही मालूम होता है कि लक्षण सबके सब चिन्ता से बचने के लिए ही पैदा होते हैं, अन्यथा उसका परिवर्धन अवश्य होगा। इस प्रकार, स्नायुरोगों की समस्याओं में चिन्ता हमारी दिलचस्पी में सबसे आगे आ जाती है।

हमने चिन्ता-स्नायुरोगों को देखकर यह नतीजा निकाला था कि राग का अपने प्रकृत उपयोजन से हटाव, जिससे चिन्ता मुक्त हो जाती है, कायिक प्रक्रमों के आधार पर हुआ है। हिस्टीरिकल और मनोग्रस्तता-स्नायुरोगों के विश्लेषण से यह नतीजा भी निकला है कि मन में स्थित संस्थाओं की ओर से विरोध के बाद ऐसा ही हटाव और ऐसा ही परिणाम हो सकता है। इसलिए हमें स्नायविक चिन्ता के पैदा होने के बारे में इतना ही पता है। यह ज़रा अनिश्चित बात मालूम होती है, पर इस समय कोई और रास्ता भी नहीं है, जो हमें और आगे ले जा सके। हमने जो दूसरा कार्य उठाया था, अर्थात् स्नायविक चिन्ता (अप्रकृत रूप से प्रयोग में आए राग) और 'आलम्बननिष्ठ चिन्ता' (जो खतरे की प्रतिक्रिया की सम्वादी है) का सम्बन्ध-सूत्र स्थापित करना, उसे पूरा करना और भी कठिन मालूम होता है। आप सोचेंगे कि दोनों चीज़ों में कुछ सादृश्य नहीं हो सकता, पर फिर भी ऐसे कोई साधन नहीं हैं, जिनसे स्नायविक चिन्ता के संवेदनों और यथार्थ चिन्ता के संवेदनों में विवेक किया जा सकता है।

---------------------
1. Corelative

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book