विविध >> मनोविश्लेषण मनोविश्लेषणसिगमंड फ्रायड
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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
इसलिए यह धारणा प्रबल हो जाती है कि चिन्ता पैदा होना कभी भी वांछनीय नहीं।
शायद त्रास वाली स्थिति की अधिक बारीकी से छानबीन करने पर हम इसे अच्छी तरह
समझ सकेंगे। इसके बारे में पहली बात खतरे के लिए तैयारी' है, जो पहले से अधिक
तीव्र ज्ञानेन्द्रिय अवबोधन और कर्मेन्द्रिय तनाव के रूप में प्रकट होती है।
यह सशंक तैयारी स्पष्टतः लाभकारक होती है। सच पूछिए तो इसके अभाव में बड़े
गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। तब इसके वाद, एक ओर तो कर्मेन्द्रिय की क्रिया
होती है, जो प्रथमतः भागने और ऊंचे स्तर पर प्रतिरक्षा या बचाव की कार्यवाही
के रूप में होती है; और दूसरी ओर, इसके बाद वह अवस्था पैदा होती है जिसे हम
चिन्ता या त्रास का संवदेन कहते हैं। यह त्रास का परिवर्धन जितना ही क्षणिक
और संकेतमात्र होता है, उतना ही यह संचित तैयारी की अवस्था से क्रिया करने की
अवस्था में आने में कम बाधा डालता है, और उतने ही अधिक वांछनीय रूप से सारा
घटनाक्रम आगे बढ़ता है। इसलिए सचिंत तैयारी मुझे इष्टकर या वांछनीय अंश
प्रतीत होती है, और चिन्ता का परिवर्धन, या बढ़ना अनिष्टकर या अवांछनीय अंश
मालूम होता है।
मैं यहां इस विवाद में नहीं पड़ेंगा कि चिन्ता (या त्रास)1, भय2 और डर3 का आम
प्रयोग में एक ही अर्थ होता है, या अलग-अलग। मेरी राय में चिन्ता स्थिति या
अवस्था से सम्बन्ध रखती है, और वह वस्तु या आलम्बन की ओर ध्यान नहीं देती,
जबकि भय शब्द में वस्तु या आलम्बन की ओर ध्यान जाता है; डर शब्द का तो एक
विशेष अर्थ मालूम होता है, अर्थात् यह उस दशा से ही सम्बन्ध रखता है जो पहले
सचिंत तैयारी बिना किए अप्रत्याशित रूप से आ पड़ने वाले खतरे से पैदा होती
है। तो यह कहा जा सकता है कि चिन्ता डर से बचने का एक साधन है।
आपके ध्यान में यह बात अवश्य आई होगी कि चिन्ता शब्द के प्रयोग में कुछ
अस्पष्टता रहती है। आमतौर से यह समझा जाता है कि जिसे हमने 'परिवर्धितचिन्ता
कहा है, उसके ज्ञान से उत्पन्न व्यक्तिनिष्ठ या आशयनिष्ठ अवस्था चिन्ता है।
यह अवस्था एक भाव या मनोविकार कहलाती है, पर गतिकीय अर्थ में भाव4 या
मनोविकार क्या होता है? यह निश्चित ही एक संकुल चीज़ है। भाव में सबसे पहले
तो, कुछ कर्मस्नायु-उद्दीपन या विसर्जन होते हैं, और फिर कुछ संवेदन होते
हैं, जो स्वयं दो प्रकार के होते हैं-कर्म-स्नायु द्वारा ही गई क्रियाओं का
अवबोधन या ज्ञान, और वे प्रत्यक्ष रूप से सुखात्मक या दुःखात्मक संवेदन,
जिनसे भाव में उसका 'प्रधान स्वर' पैदा होता है। पर मैं नहीं समझता कि यह
वर्णन भाव के सारतत्त्व को स्पष्ट कर देता है। कुछ भावों में अधिक गहराई तक
जाया जा सकता है, और यह देखा जा सकता है कि उस सारी संकुल संरचना को एक जगह
बांधने वाली गांठ का स्वरूप किसी विशिष्ट, बहुत अर्थपूर्ण पूर्व अनुभव की
पुनरावृत्ति या दोहराने का होता है। यह अनुभव किसी सार्वत्रिक प्ररूप का बहुत
आरम्भिक काल का संस्कार ही हो सकता है, जो व्यष्टि के बजाय स्पीशीज़ के पूर्व
इतिहास में रहा हो। अपनी बात अधिक साफ करने के लिए मैं यों कह सकता हूं कि
भाव की अवस्था की रचना हिस्टीरिया के दौरे जैसी अर्थात् किसी संस्मरण का
अवक्षेप होती है। इसलिए हिस्टीरिया के दौरे की तुलना किसी नवनिर्मित
व्यष्टिगत भाव से की जा सकती है, और प्रकृत भाव की तुलना सार्वजनिक
हिस्टीरिया से, जो मनुष्यमात्र को उत्तराधिकार में मिला है, की जा सकती है।
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1. Anxiety or Dread
2. Fear
3. Fright
4. Affect
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