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मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


व्याख्यान

25

चिन्ता

मैंने सामान्य स्नायविकता के बारे में अपने पिछले व्याख्यान में आपको जो कुछ बताया था, उसे आपने मेरे सब वर्णनों में सबसे अधिक अपर्याप्त और अधूरा समझा होगा। मैं जानता हूं कि यह ऐसा ही था, और मुझे आशा है कि आपको यह देखकर सबसे अधिक आश्चर्य हुआ होगा कि मैंने चिन्ता का कोई उल्लेख नहीं किया, जिसकी सब स्नायविक लोग शिकायत करते हैं और जिसे ये अपना सबसे भयंकर दुश्मन बताते हैं। चिन्ता (या त्रास अर्थात् घोर चिन्ता) सचमुच बड़ा तीव्र रूप धारण कर सकती है, और परिणामतः बड़ी पागलपन-भरी सतर्कताओं का कारण बन सकती है, पर कम-से-कम इस मामले में, मैं आपको थोड़े में नहीं टालना चाहता था। इसके विपरीत, मैंने स्नायविक चिन्ता की समस्या आपके सामने यथासम्भव स्पष्ट रूप से पेश करने का और उस पर बारीकी से विचार करने कर निश्चय किया हुआ था।

चिन्ता (या त्रास) का वर्णन करने की कोई आवश्यकता नहीं: हर व्यक्ति ने किसी-न-किसी समय इस संवेदन को, या अधिक सही रूप में कहा जाए तो इस भाव-दशा को स्वयं अनुभव किया है। पर मेरी राय में इस बात पर काफी गम्भीर विचार नहीं हुआ कि स्नायविक लोग ही चिन्ता से, औरों की अपेक्षा मात्रा में और तीव्रता में अधिक, कष्ट क्यों पाते हैं? शायद यह तो स्वयंसिद्ध मान लिया गया है कि उन्हें यह कष्ट होना ही चाहिए। सच पूछिए तो चिन्ता और स्नायविकता शब्द एक-दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त कर दिए जाते हैं, मानो उनका एक ही अर्थ हो, परन्तु यह उचित नहीं। कछ लोग चिन्तायक्त होते हैं, पर वे स्नायविक (नर्वस) नहीं होते; और इनके अलावा, ऐसे स्नायु-रोगी होते हैं जिनमें बहुत-से लक्षण होते हुए भी चिन्तित या त्रस्त होने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। जो कुछ भी हो, पर एक बात निश्चित है कि चिन्ता या त्रास की समस्या वह केन्द्र-बिन्दु है जो सब तरह के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को एक सिलसिले में बांध देता है। यह एक ऐसी समस्या है जिसके हल होने से हमारे सारे मानसिक जीवन पर अवश्य ही बहुत अधिक प्रकाश पड़ेगा। मेरा यह दावा नहीं है कि मैं इसका कोई त्रुटिहीन समाधान पेश कर सकता हूं, पर आप यह आशा अवश्य करते होंगे कि मनोविश्लेषण ने इस समस्या पर भी चिकित्सा-शास्त्र की प्रचलित रीति से भिन्न प्रकार से विचार किया होगा।

चिकित्सा-शास्त्र में मुख्य बात उन शारीरिक प्रक्रमों को माना जाता है, जिनसे चिन्ता वाली अवस्था पैदा होती है। हमें पढ़ाया जाता है कि मैडुला औब्लौंगैटा, अर्थात् मस्तिष्क-पुच्छ, उद्दीपत हो जाता है, और रोगी को कहा जाता है कि तुम्हें बेगलस्नायु में स्नाय-रोग है। मस्तिष्क-पच्छ एक आश्चर्यजनक और सन्दर वस्त है। मझे अच्छी तरह याद है कि मैंने वर्षों पर्व इसके अध्ययन पर कितना समय और श्रम लगाया था, पर आज मुझे यह कहना पड़ता है कि चिन्ता के मनोवैज्ञानिक रूप को समझने के लिए, जिन स्नायु-मार्गों से उत्तेजन चलते हैं, उनकी जानकारी सबसे अधिक महत्त्वहीन है।

चिन्ता या त्रास और स्नायविकता में अन्तर करना चाहिए। चिन्ता को वस्तुनिष्ठ या आलम्बननिष्ठ चिन्ता1 समझना चाहिए, और स्नायविकता को स्नायविक चिन्ता कहना चाहिए। बात यह है कि यथार्थ या वास्तविक चिन्ता या त्रास हमें बिलकुल स्वाभाविक और बुद्धिसंगत चीज़ प्रतीत होता है। इसे किसी बाहरी खतरे या किसी आघात के, जिसकी सम्भावना है, और जो पहले ही पता चल रहा है, ज्ञान की प्रतिक्रिया कहना चाहिए। यह पलायन के रिफ्लेक्स अर्थात् प्रतिक्षेप के साथ जुड़ा है, और इसे आत्मसंरक्षण की निसर्ग-वृत्ति की अभिव्यक्ति माना जा सकता है। इसके अवसर, अर्थात् वे वस्तुएं और स्थितियां, जिनके बारे में चिन्ता महसूस की जाती है, स्पष्टतः बाहरी दुनिया के बारे में व्यक्ति की जानकारी और शक्ति की अनुभूति की अवस्था पर बहुत दूर तक निर्भर हैं। हमें यह बात बिलकुल स्वाभाविक लगती है कि कोई जंगली आदमी तोप या सूर्य-ग्रहण को देखकर डर जाए, पर पढ़ा-लिखा आदमी, जो तोप को चला सकता है, और सूर्य ग्रहण की भविष्यवाणी कर सकता है, वैसी ही स्थिति में बिलकुल भी नहीं डरता। कभी-कभी ज्ञान ही भय पैदा करता है, क्योंकि यह खतरे को जल्दी ही प्रकट कर देता है। इस प्रकार जंगली आदमी जंगल में कोई पद-चिह्न देखकर आतंकित हो जाएगा, पर उसका अर्थ न जानने वाले बाहरी मनुष्य के लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है; उसके लिए इसका इतना ही अर्थ है कि कोई जंगली पशु आसपास मौजूद है; और अनुभवी नाविक क्षितिज पर छोटा-सा मेघ-खण्ड देखकर चिन्तित हो जाएगा क्योंकि इसका अर्थ यह है कि तूफान आने वाला है पर मुसाफिर के लिए इस मेघ-खण्ड का कोई अर्थ नहीं है।

परन्तु गहराई से विचार करने पर हमें अपने इस खयाल को ऊपर से नीचे तक बदलना होगा कि आलम्बननिष्ठ चिन्ता बुद्धिसंगत और इष्टकर या वांछनीय है। खतरे को निकट देखकर इष्टकर या वांछनीय व्यवहार तो सचमुच यही होगा कि ठण्डे दिमाग से यह सोचा जाए कि आने वाले खतरे के मुकाबले में हमारे पास कितनी ताकत है, और फिर यह फैसला किया जाए कि सफलता की सबसे अधिक आशा पलायन से है, या बचाव से, या हमले से। पर त्रास का इसमें कोई स्थान नहीं है। प्रत्येक कार्य उतनी ही अच्छी तरह, बल्कि उससे भी अधिक अच्छी तरह किया जा सकेगा, यदि त्रास पैदा न हो। आप यह भी देखेंगे कि जब त्रास अधिक होता है, तब वह बहुत ही अनिष्टकर हो जाता है। यह सारी क्रिया, यहां तक कि पलायन या भागने में भी असमर्थ कर देती है। खतरे की प्रतिक्रिया आमतौर से दो चीज़ों के मेल के रूप में होती है-भय-मनोविकार और प्रतिरक्षात्मक कार्यवाही; डरा हुआ पशु भयभीत होता है और भागता है, पर इसमें कष्टकर या वांछनीय बात भागना है, भयभीत होना नहीं।

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1. Objective anxiety

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