विविध >> मनोविश्लेषण मनोविश्लेषणसिगमंड फ्रायड
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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
एक तरह के उदाहरणों में तो इसका बड़ा निरापद और सरल तरीका है। यह वही तरीका
है जिससे हमने बाधित होने वाली या रोकी जाने वाली प्रवृत्ति को सिद्ध किया
था। हम वक्ता से पूछते हैं, और वह तुरन्त हमें बता देता है। गलती करने के बाद
वह स्वयं अपने मूल आशय के शब्द बोल देता है, 'ओ इट मे स्टैड-नो, इट मे टेक
अनदर मंथ', तो इसी तरह वह बाधाकारक प्रवृत्ति का भी पता दे सकता है। हम कहते
हैं, ‘पर तुमने पहले स्टैड क्यों कहा?' वह उत्तर देता है, 'मैं यह कहना चाहता
था कि यह सैड (बुरा) कारबार है।' और उस दूसरे उदाहरण में, जिसमें रिल्फिड कहा
गया था, वक्ता आपको बताता है कि पहले मैं यह कहना चाहता था कि वह फिल्दी
(रद्दी) काम है, पर मैंने अपने-आपको रोका, और उसकी जगह दूसरे शब्द का प्रयोग
किया। यहां बाधक प्रवृत्ति की जानकारी भी उतने ही निश्चित रूप से सिद्ध है,
जितने निश्चित रूप से बाधित प्रवृत्ति की। मैंने जान-बूझकर ही ऐसी घटनाओं के
उदाहरण चुने हैं, जिनके पैदा होने का या जिनकी व्याख्या का मुझसे या मेरे
किसी समर्थक से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु इन दोनों उदाहरणों में व्याख्या
पेश कराने के लिए बीच में कुछ हस्तक्षेप आवश्यक था। वक्ता से यह पूछना था कि
उसने गलती क्यों की, और वह इसकी क्या व्याख्या कर सकता है। यदि उससे न पूछते
तो वह इसकी व्याख्या की कोशिश न करके इसे योंही निकल जाने देता, पर पूछने पर
उसने उत्तर में वह बात कही जो उसके मन में सबसे पहले आई, और देखिए, कि वह
थोड़ा-सा हस्तक्षेप और इसका परिणाम मनोविश्लेषण ही है। आगे हम जो भी
मनोविश्लेषण-सम्बन्धी जांच करेंगे, वह इसी तरह की होगी।
अच्छा, यदि मैं यह अन्दाज़ा लगाऊं कि मनोविश्लेषण का सवाल आते ही आपके मन में
तुरन्त इसका विरोध सिर उठाने लगता है, तो क्या यह मेरी अत्यधिक स्नेहशीलता
है? क्या आपके मन में यह आपत्ति नहीं उठी कि जिस आदमी ने गलती की थी, उसने
पूछने पर जो उत्तर दिया है, वह पूरी तरह भरोसे योग्य गवाही नहीं है? आप समझते
हैं कि वह स्वभावतः आपकी इस प्रार्थना को पूरा करना चाहता है कि वह अपनी गलती
का अर्थ बताए, और इसलिए वह अपने मन में सबसे पहले आने वाली बात कह देता है,
कि शायद इससे काम चल जाए। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि गलती पैदा होने का
सचमुच यही कारण था। सम्भव है, यही कारण हो, पर उतना ही सम्भव यह भी है कि यह
कारण न हो। उसके मन में कोई और बात भी हो सकती थी जो इस प्रश्न का इतना अच्छा
या इससे भी अच्छा समाधान कर देती।
इससे बड़े साफ तौर से पता चलता है कि आपके मन में एक मानसिक तथ्य के प्रति
कितना थोड़ा सम्मान है। कल्पना करो कि किसी व्यक्ति ने किसी पदार्थ का
रासायनिक विश्लेषण किया होता, और यह निश्चय किया होता कि इसके एक तत्त्व का
भार इतने मिलीग्राम है। इस तरह आए हुए इस भार से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते
हैं। क्या आप समझते हैं कि कोई रसायन शास्त्री कभी यह बात सोचेगा कि ये
निष्कर्ष इस आधार पर अविश्वसनीय हैं कि उस तत्त्व का कोई और भार भी हो सकता
था! हर कोई इस तथ्य को स्वीकार करता है कि इसका सचमुच यही भार था, और इस तथ्य
के आधार पर बेफिक्री से आगे निष्कर्ष निकालता है। पर जब किसी मानसिक तथ्य का
प्रश्न आता है; जब यह प्रश्न आता है कि पूछने पर उस मनुष्य के मन में यही
विचार था, अन्य कोई नहीं था, तब आप इसे विश्वसनीय नहीं मानेंगे, और कहेंगे कि
उसके मन में कोई और विचार भी तो हो सकता था। सचाई यह है कि आपके मन में
मानसिक स्वतन्त्रता की भ्रांति है, जिसे आप छोड़ना नहीं चाहते। मुझे खेद से
कहना पड़ता है कि इस मामले में मेरा आपके विचारों से तीव्र विरोध है।
अब आप यहां से हटकर एक और बात पर अपने मन में प्रतिरोध करेंगे। आप कहेंगे,
'हम समझते हैं कि मनोविश्लेषण का विशेष कौशल विश्लेषित व्यक्ति से अपनी
समस्याओं का हल निकलवा सकता है। अब वह उदाहरण लीजिए जिसमें भोजन के बाद वक्ता
अतिथियों से कहता है कि वे अपने अतिथि के स्वास्थ्य के लिए हिकफ-Hiccough
(हिचकी लें)। आप कहते हैं कि इस उदाहरण में बाधक प्रवत्ति है उपहास करना; यह
सम्मान करने के आशय की विरोधी है, पर यह आप उस गलती को स्वतन्त्र रूप से
देखकर अपनी ओर से उसका अर्थ ही तो लगा रहे हैं। यदि इस उदाहरण में आप गलती
करने वाले से प्रश्न करें तो वह आपके इस विचार की पुष्टि नहीं करेगा कि उसका
आशय उपहास या अपमान करना था। इसके विपरीत, वह इसका प्रबल शब्दों में निषेध
करेगा। तो उसके इस स्पष्ट निषेध को देखते हुए, आप अपना ऐसा अर्थ छोड़ क्यों
नहीं देते, जिसे प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं किया जा सकता?'
'हां, इस बार आपने कुछ जोरदार सवाल उठाया है। मैं अपनी आंखों के सामने उस
अज्ञात वक्ता का चित्र रख सकता हूं। सम्भवतः यह असली अतिथि का सहायक, या शायद
स्वयं एक छोटा अध्यापक है, और भविष्य के सुनहले स्वप्न साकार करने की आशा
रखने वाला नौजवान है। मैं उससे आग्रहपूर्वक यह पूलूंगा कि क्या उसे निश्चित
रूप से अपने अन्दर ऐसी भावना नहीं दिखाई दी जो अपने उस अफसर का सम्मान करने
की प्रवृत्ति के विरुद्ध हो। इस पर बड़ा तमाशा हो जाता है। वह धीरज खोकर मुझ
पर एकाएक बौखला पड़ता है, 'देखो भई, इस जिरहबाज़ी को खत्म करो; नहीं तो मुझसे
बुरा कोई नहीं होगा! तुम अपने सन्देहों से मेरा भविष्य बिगाड़ दोगे। मैंने तो
एन्स्टोसेन (Anstossen) के स्थान पर आफ्स्टोसेन (Aufstossen) ही कहा था,
क्योंकि मैं इससे पहले दो बार ऑफ (Auf) कह चुका। यह वही चीज़ है जिसे मेरिंगर
निरर्थकावृत्ति कहता है, और इसमें कोई छिपी हुई बात नहीं है। समझ गए?' हूं!
यह विचित्र प्रतिक्रिया है! सचमुच प्रबल खण्डन है! मैं समझता हूं कि उस
नौजवान के साथ और कुछ बात नहीं की जा सकती। पर अपने मन में मैं सोचता हूं कि
उसने यह जतलाने में बड़ी प्रबल और आवारागर्दी को बढ़ावा दूं।'1 वह पेंसिल उसे
उसके बहनोई ने भंट में दी थी। यदि यह संयोग न होता तो निश्चय ही हम यह नहीं
कह सकते थे कि इस खोने का अर्थ यह है कि उसके मन में इस उपहार से छुटकारा
पाने की बात थी। इसी तरह के और बहुत-से उदाहरण है। मनुष्य तब अपनी वस्तुएं खो
देता है, जब उसका वस्तु देने वाले से झगड़ा हो गया हो, या वह उसका नाम अपने
मन में न आने देना चाहता हो, या फिर जब वह उन वस्तुओं से ऊब गया हो, और कोई
दूसरी, और इससे अच्छी, चीज़ लेने के लिए बहाना चाहता हो। वस्तुओं को गिराने,
तोड़ने और बर्बाद करने से वस्तु के विषय में निश्चित रूप से ऐसा ही प्रयोजन
सिद्ध होता है। क्या इस बात को आकस्मिक माना जा सकता है कि एक बालक अपने
जन्मदिन से ठीक पहले अपनी वस्तुएं, उदाहरण के लिए, अपनी घड़ी और बस्ता, खो
देता है या बर्बाद कर लेता है?
जिस आदमी को कभी यह परेशानी अनुभव हुई है कि उसकी अपने हाथ से रखी हुई वस्तु
उसके हाथ नहीं आई, वह निश्चित रूप से कभी यह मानने को तैयार नहीं होगा कि ऐसा
करने में उसका कोई आशय हो सकता था; परन्तु फिर भी ऐसे उदाहरण दर्लभ नहीं
जिनमें कोई चीज कहीं रख देने के समय की परिस्थितियों से यह संकेत मिलता है कि
वस्तु को कुछ समय, या सदा के लिए हटा देने की प्रवृत्ति मन में मौजूद थी।
शायद इसका सबसे अच्छा उदाहरण यह है :
एक नौजवान ने मुझे यह किस्सा बताया, 'कुछ वर्ष पहले मुझमें और मेरी पत्नी में
मनमुटाव था; मैं उसे बिलकुल प्यारहीन समझता था, और यद्यपि मैं उसके श्रेष्ठ
गुणों को खुशी से स्वीकार करता था, पर तो भी हम बिना प्रेम के साथ रहते थे।
एक दिन घूमकर लौटते हुए वह मेरे लिए एक पुस्तक लाई जो उसने मेरे लिए यह सोचकर
खरीदी थी, कि मुझे वह पसन्द आएगी। उसने मेरा थोड़ा-सा ध्यान रखा, इसके लिए
मैंने उसे धन्यवाद दिया, वह पुस्तक पढ़ने का वचन दिया और उसे अपनी चीज़ों में
रख दिया, और फिर वह कभी मेरे हाथ न आई। महीनों गुज़र गए और कभी-कभी मैंने उस
पुस्तक को पढ़ने की बात सोची, पर उसे ढूंढ़ने की सब कोशिशें बेकार गईं। छह
महीने बाद मेरी प्यारी मां, जो कुछ दूरी पर रहती थी, बीमार पड़ी। उसकी हालत
खराब हो गई, और मेरी पत्नी अपनी सास की सेवा करने के लिए चली गई। बीमारी
गम्भीर होने से मेरी पत्नी को अपने श्रेष्ठ गुण दिखाने का मौका मिला। एक दिन
शाम को मैं अपनी पत्नी के प्रति उत्साह और कृतज्ञता से भरा हुआ घर आया। मैं
अपनी मेज़ के पास पहुंचा, और मैंने बिना किसी निश्चित आशय के, बल्कि इस तरह
की नींद-भरी निश्चितता से उसकी एक दराज खोली और वहां मेरे सामने वही खोई हुई
पुस्तक रखी थी जिसे मैं इतनी बार तलाश कर चुका था।'
प्रवर्तक अथवा प्रेरक कारण2 के लुप्त हो जाने पर, रखकर भूली हुई पुस्तक खोजने
की अयोग्यता भी लुप्त हो गई।
मैं इस तरह के सैकड़ों उदाहरण दे सकता हूं पर अब ये नहीं दूंगा। मेरी
साइको-पैथोलोजी ऑफ एवरीडे लाइफ (Psychopathology of Everyday Life), जो पहले
1901 में प्रकाशित हुई थी, में गलतियों के अध्ययन के लिए बहुत सारे उदाहरण
मिलेंगे। इन सब उदाहरणों से वही वात बार-बार सामने आती है। उससे आपको यह
सम्भाव्य मालूम होने लगता है कि भूलों का कुछ अर्थ होता है, और वे आपको यह
बताती हैं कि साथ की परिस्थितियों में किस तरह अर्थ का अनुमान या पुष्टि की
जा सकती है। आज मैं अधिक विस्तृत वातों में नहीं जा रहा क्योंकि यहां हमारा
आशय सिर्फ इतना था कि हम मनोविश्लेषण का परिचय प्राप्त करने की दृष्टि से इन
घटनाओं पर विचार करें। सिर्फ दो घटना-समूह और हैं जिन पर मुझे अभी कुछ कहना
है-संचित और मिली-जुली गलतियां, और बाद की घटनाओं से हमारी व्याख्याओं की
पुष्टि।
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1. B. Dattner से
2. Motive
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