विविध >> मनोविश्लेषण मनोविश्लेषणसिगमंड फ्रायड
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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
एक और आदमी कुछ आपत्तिजनक घटनाएं सुना रहा था और कह रहा था, 'एंड देन सर्टेन
फैक्ट्स वेयर रिफिल्ड।' उसने बताया कि वह यह कहना चाहता था कि यह तथ्य फिल्दी
(भद्दे) हैं। रिवील्ड तथा फिल्दी के मिल जाने से रिफिल्ड बन गया (मेरिंगर और
मायर)।
तुम्हें उस नौजवान का ध्यान होगा जिसने एक अपरिचित महिला को 'इन्सौर्ट' करने
का प्रस्ताव किया था। हमने इन शब्दों को इन्सल्ट (insult) और एस्कोर्ट
(escort) में खण्डित कर लिया था, और हमें अपनी इस व्युत्पत्ति की सचाई का
इतना निश्चय था कि इसके किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं थी। इन उदाहरणों से आप
समझ सकते हैं कि कुछ धुंधले दिखाई देने वाले इन उदाहरणों की भी यह कहकर
व्याख्या की जा सकती है कि उनमें भाषण के दो भिन्न आशयों की एक साथ उपस्थिति
है, या दो भिन्न आशय एक-दूसरे को रोकते हैं। मतभेद सिर्फ पहले प्रकार की
गलतियों में पैदा होता है, जबकि एक आशय बिलकुल लुप्त हो गया है, जैसा कि
उल्टी बात कहने पर होता है; दूसरे प्रकार की गलती में एक आशय दूसरे को विकृत
करने या उसमें रूपभेद करने में ही सफल होता है, जिसके निरर्थक-से दिखाई देने
वाले मिले-जुले शब्द बन जाते हैं।
मेरा ख्याल है कि अब हमने बोलने की बहुत सारी भूलों का रहस्य खोज लिया है।
यदि हम अपने मन में यह बात स्पष्ट रूप से रखें तो और तरह की गलतियों को भी,
जो अब तक बिलकल रहस्यमय मालम होती हैं. समझ सकेंगे। उदाहरण के लिए जब कोई नाम
विकृत किया जाता है, तब हम कल्पना नहीं कर सकते कि इसमें सदा दो, एक-जैसे
परन्तु भिन्न, नामों का संघर्ष ही हो रहा है; तो भी दूसरा आशय आसानी से पता
चल जाता है। बोलने की गलतियों के अलावा भी नामों को आमतौर से बिगाड़ा जाता
है। यह बिगाड़ नाम को किसी हीन बनाने वाली चीज़ के समान करने की कोशिश होती
है जो गाली देने का एक आम तरीका है। शिक्षित लोग जल्दी ही इस कार्य से बचना
सीख जाते हैं, पर फिर भी वे इच्छा से इसे नहीं छोड़ते। कभी यह किसी बहुत
घटिया किस्म के मज़ाक के रूप में हो सकता है। इस तरह नाम बिगड़ने का एक बहुत
भद्दा और गंवारू उदाहरण लीजिए। फ्रेंच गणराज्य के राष्ट्रपति का नाम पोइंकारे
से बिगड़कर शिवसकारे कर दिया गया है। यदि यह कल्पना की जाए कि बोलने की गलती
से नाम बिगाड़ने के पीछे भी कोई ऐसा ही बुरा आशय होता है तो यह कोई दूर की
कल्पना नहीं होगी। अपने विचार को आगे बढ़ाने पर हम देखते हैं कि जिन गलतियों
का प्रभाव हंसी पैदा करने वाला या बेहदा होता है, उनकी भी ऐसी ही व्याख्या
प्रतीत होती है। पार्लियामेंट के सदस्य ने जब 'सेण्ट्रल हेल' के माननीय सदस्य
का जिक्र किया, तब सदन के गम्भीर वातावरण में एक ऐसे शब्द के आ पड़ने से, जो
उपहासास्पद और भद्दा प्रतिबिम्ब पैदा करता है, अचानक ही गड़बड़ हो जाती है।
कुछ बुरे लगने वाले और भद्दे शब्दों के सादृश्य से हमें यह नतीजा निकालना
पड़ता है कि यहां बीच में कोई इस आशय का मानसिक आवेग मौजूद है, 'आपको धोखे
में आने की ज़रूरत नहीं। जो कुछ मैं कह रहा हूं, उसका एक शब्द भी मैं कहना
नहीं चाहता। यह आदमी नरक (हेल) में पड़े।' यही बात बोलने की उन गलतियों पर
लागू होती है जो बिलकुल सीधेसादे हानिरहित शब्दों को अश्लील और भद्दे शब्दों
में बदल देती हैं।
हम जानते हैं कि कुछ लोगों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे हानिरहित शब्दों
को भद्दे शब्दों में बदल देते हैं और इसमें उन्हें मज़ा आता है। इसे बुद्धि
की चतुराई समझा जाता है, और सच तो यह है कि जब कोई आदमी इस तरह की बात सुनता
है तब वह तुरन्त यह पूछता है कि मज़ाक के लिए ऐसा किया गया है, या यों ही,
बिना चाहे, बोलने की गलती से यह शब्द मुंह से निकल गया है?
इस तरह हमें ऐसा मालूम होता है कि हमने गलतियों की समस्या खास तकलीफ उठाए
बिना हल कर ली है। वे आकस्मिक घटनाएं नहीं हैं, बल्कि गम्भीर मानसिक कार्य
हैं। उनका अपना अर्थ है। वे दो भिन्न आशयों के एक साथ उपस्थित होने से, या
शायद यह कहना अधिक ठीक होगा कि एक-दूसरे को रोकने के कारण पैदा होती हैं। पर
अब मैं खूब समझ सकता हूं कि आप मुझ पर सवालों और सन्देहों की झड़ी लगा देना
चाहते हैं। हमें अपनी कोशिशों के इस पहले परिणाम पर खुश होने से पहले उनका
उत्तर देना होगा, और उन्हें हल करना होगा। निश्चित ही मैं यह नहीं चाहता कि
आपको जल्दबाजी में कोई फैसले मानने को मजबूर करूं। हम हर बात पर बारी-बारी
शान्ति से विचार करेंगे।
आप क्या कहना चाहते हैं? यही तो कि क्या इस व्याख्या से बोलने की सब गलतियों
की समस्या हल हो जाती है या इससे कुछ थोड़ी-सी गलतियां ही स्पष्ट होती हैं?
क्या यही विचार दूसरी बहुत तरह की गलतियों, जैसे गलत पढ़ जाना, गलत लिख जाना,
भूल जाना, गलत ढंग से काम करना, चीज़ रखकर भूल जाना आदि, पर भी लागू किया जा
सकता है? गलतियों के मानसिक स्वरूप में, थकावट, उत्तेजना, ध्यान न होना, और
मनोविक्षेप या ध्यानबंटाई का कितना प्रभाव होता है? इसके अलावा, यह भी स्पष्ट
दिखाई देता है कि गलती में जो दो मुकाबले के अर्थ होते हैं, उनमें से एक तो
सदा स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु दूसरा सदा स्पष्ट नहीं दिखाई देता; तब
दूसरा अर्थ कैसे निकाला जाए? और यदि आप यह समझते हैं कि उसका आपने अंदाज़ा
लगाया है तो इसका क्या प्रमाण है कि यही सच्चा अर्थ है, और यह एक
संभावना-मात्र नहीं है? क्या आप कोई और बात भी पूछना चाहते हैं? यदि नहीं, तो
मैं ही आगे बोलना जारी रखता हूं। मैं आपको यह याद दिलाऊंगा कि असल में हमें
गलतियों से अधिक वास्ता नहीं है; हम तो उनका अध्ययन करके मनोविश्लेषण की
दृष्टि से कोई काम की चीज़ सीखना चाहते थे। इसलिए मैं यह प्रश्न पेश करूंगा :
इस तरह हमारे आशयों को रोकने वाले या बाधा देने वाले प्रयोजन या प्रवृत्तियां
कौन-कौन-सी हैं, और बाधाकारक प्रवृत्ति तथा दूसरी प्रवृत्ति में क्या सम्बन्ध
है? इस प्रकार ज्योंही हमने इस पहेली को हल किया, त्योंही हमारी कोशिशें फिर
प्रारम्भ हो गईं।
अच्छा, तो यह प्रश्न था कि क्या इससे बोलने की सब तरह की गलतियों की व्याख्या
हो जाती है? मेरा बहुत कुछ झुकाव ऐसी ही बात मानने की ओर है, और इसका कारण यह
है कि जब कभी हम इस तरह के किसी उदाहरण पर विचार करते हैं, तब इसी तरह का
समाधान प्राप्त होता है। तव भी यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि इस तन्त्र के
कारण के बिना बोलने की गलती नहीं हो सकती है। बात ठीक हो सकती है।
सिद्धान्ततः अपने प्रयोजन के लिए हमें इस बात से कछ विशेप दिलचस्पी नहीं है,
क्योंकि यदि बोलने की कुल गलतियों में से कुछ थोड़ी-सी गलतियों की भी
व्याख्या इस तरह हो जाती है, तो मनोविश्लेषण के आरम्भिक परिचय की दृष्टि से,
हम जो निष्कर्ष निकालना चाहते हैं, उनकी मान्यता बनी रहती है; परन्तु यहां
थोड़ी-सी गलतियों वाली बात नहीं है। अगला प्रश्न यह है कि क्या इस व्याख्या
से दूसरी तरह की गलतियों का भी समाधान हो सकता है उसका उत्तर हम पहले ही
'हां' में दे सकते हैं। जब आप लिखने के या काम गलत रीति से करने के उदाहरणों
पर विचार करेंगे, तब आपको स्वयं इसका निश्चय हो जाएगा, परन्तु मैं टेकनिकल
कारणों से इस प्रश्न को तब तक के लिए छोड़ देना चाहता हूं, जब तक हम बोलने की
गलती पर और अधिक विस्तार से विचार न कर लें।
इस प्रश्न का, जिसे कुछ लेखकों ने बहुत तूल दिया है, अधिक विस्तार से उत्तर
देने की आवश्यकता है कि रक्त-संचार की गड़बड़ियों, थकावट, उत्तेजना,
ध्यानबंटाई, असावधानता आदि का हमारे लिए क्या अर्थ हो सकता है, जबकि हम
गलतियों के बारे में ऊपर बताया गया मानसिक तन्त्र या कार्यप्रणाली मानते हैं।
आप देखेंगे कि हम इन कारणों के होने का निषेध नहीं करते, बल्कि साधारणतया यह
कहा जा सकता है कि मनोविश्लेषण प्रायः अन्य विज्ञानों में स्वीकृत किसी भी
बात का खण्डन नहीं करता। सामान्यतया जो कुछ उन्होंने कहा है, उसमें
मनोविश्लेषण कुछ नई बात जोड़ता है, और कभी-कभी सचमुच ऐसा होता है कि जिस बात
की ओर अब तक किसी ने ध्यान नहीं दिया था, और जिसे अब मनोविश्लेषण सामने रखता
है, वही उस मामले का सबसे अधिक सारभूत हिस्सा है। मामूली बीमारी में,
रक्त-संचार की गड़बड़ में और थकावट की अवस्था में पैदा होने वाली कार्यिकीय
प्रवृत्तियों का प्रभाव बोलने की गलतियों का एक कारण होता है, यह तो बिना
किसी विरोध के हम स्वीकार करते हैं; अपने रोज़ के अनुभव से हमें इसकी सचाई का
निश्चय हो सकता है. पर इस स्वीकति से व्याख्या कितनी-सी होती है? सबसे बडी
बात तो यह है कि यह कारण गलतियों की आवश्यक शर्त नहीं है; बोलने की गलती
बढ़िया स्वास्थ्य और बिलकुल सामान्य अवस्थाओं में भी इसी तरह हो सकती है;
इसलिए ये शारीरिक कारण तो सहायक-मात्र हैं। उनसे बोलने की गलती पैदा करने
वाले इस खास मानसिक तन्त्र को अनुकूलता और सुविधा-मात्र हो जाती है। इस तरह
की अवस्था के लिए मैंने एक बार एक दृष्टान्त दिया था, जो मैं यहां भी
दोहराऊंगा, क्योंकि मुझे उससे अच्छा दृष्टान्त मालूम नहीं है। ज़रा कल्पना
कीजिये कि किसी अंधेरी रात में मैं सड़क पर अकेला जा रहा हूं और कोई लुटेरा
मुझ पर हमला करके मेरी घड़ी और रुपया-पैसा छीन ले जाता है। मैं लुटेरे का
चेहरा साफ नहीं देख सका, इसलिए मैं इन शब्दों में थाने में रपट लिखाता हूं,
'सुनसान और अंधेरे में मुझसे घड़ी और अन्य कीमती वस्तुएं अभी लूट ली हैं।'
पुलिस अफसर मुझसे कहेगा, 'प्रतीत होता है कि आप तथ्यों को बहुत अधिक
यन्त्रवादी दर्शन (मैकेनिस्टिक) के दृष्टिकोण से पेश कर रहे हैं। मान लीजिए
कि हम आपकी रपट इस रूप में दर्ज करें कि 'अंधेरा और सुनसान देखकर कोई अज्ञात
लुटेरा मेरी चीजें छीनकर भाग गया है। मुझे ऐसा लगता है कि असली काम यह है कि
लुटेरे को तलाश किया जाए, शायद तब हम उससे लूटा हुआ माल वापस ले सकते हैं।'
ज़ाहिर है कि उत्तेजना, असावधानता, मनोविक्षेप या ध्यानबंटाई आदि
मनाकार्यिकीय कारणों से कोई व्याख्या नहीं होती। वे शब्द-मात्र हैं, वे तो
पर्दे हैं, और हमें उनके पीछे झांकने में संकोच नहीं करना चाहिए। असल में
प्रश्न यह है कि यहां उत्तेजना या ध्यानबंटाई क्यों पैदा हुई।
ध्वनि-सादृश्यों का प्रभाव, मिलते-जुलते शब्दों का होना और कुछ शब्दों का
सामान्य साहचर्यों द्वारा जुड़े होना भी महत्त्वपूर्ण बातें हैं। उनमें यह
सुविधा हो जाती है कि गलती अपने अर्थ की ओर संकेत करने लगती है। परन्तु यदि
मेरे सामने एक रास्ता है, तो क्या इसका आवश्यक रूप से यह अर्थ है कि मुझे इस
पर ज़रूर जाना होगा? मुझे इस पर जाने के लिए कोई प्रवर्तक या प्रेरक कारण भी,
मुझे आगे ठेलने वाला कोई बल भी, तय करना होगा। इसलिए ये ध्वनि-सादृश्य और
शब्द-साहचर्य बिलकुल शारीरिक अवस्थाओं की तरह हैं। वे बोलने की गलतियों के
कारणों के लिए सुविधा पैदा कर सकते हैं, परन्तु उनकी असली व्याख्या नहीं कर
सकते। एक क्षण के लिए आप यह सोचिए कि अधिकतर अवस्थाओं में मेरे भाषण में
प्रयुक्त शब्द दूसरे शब्दों के साथ ध्वनि-साम्य, उल्टे अर्थों के साथ निकट
साहचर्य या बहुत प्रचलित पदावलियों के साथ निकट साहचर्य के कारण विकृत नहीं
होते। तो भी दार्शनिक वूण्ट के अनुसार, यह कल्पना करनी पड़ती है कि बोलने की
गलती तब होती है, जब शरीर की थकावट के कारण साहचर्यों की ओर प्रवृत्ति असली
आशय के ऊपर हावी हो जाती है। यह बात बिलकुल तर्कसंगत होती, यदि अनुभव इस तथ्य
द्वारा इसका खण्डन न करता कि कुछ उदाहरणों में शारीरिक पूर्वकारण1 और एक बहुत
बड़े वर्ग में साहचर्यात्मक पूर्वकारण अनुपस्थित होते हैं।
परन्तु आपका अगला प्रश्न मेरे लिए अधिक दिलचस्प है, अर्थात् किन साधनों से
परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियों का निश्चय किया जा सकता है। सम्भवतः आपको यह
गुमान भी नहीं होगा कि यह प्रश्न कितना अशुभ है। इस बात से तो आप सहमत होंगे
कि इन प्रवृत्तियों में से एक प्रवृत्ति, अर्थात् वह प्रवृत्ति, जिसे रोका
जाता है या बाधा पहुंचाई जाती है, निश्चित रूप से सदा मौजूद होती है। जो आदमी
गलती करता है, वह इसे जानता है और स्वीकार करता है। सन्देह और दुविधा सिर्फ
उस दूसरी प्रवृत्ति के विषय में पैदा होती है, जिसे हमने बाधाकारक प्रवृत्ति
कहा है। अब आप सुन चुके हैं, और निश्चित ही भूले नहीं होंगे कि कुछ उदाहरणों
में यह दूसरी प्रवृत्ति भी इतनी ही स्पष्ट होती है। यदि हममें इतना साहस हो
कि हम उस गलती को उसकी अपनी कहानी खुद कहने दें, तो उस गलती के परिणाम से यह
बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है। जिस उदाहरण में अध्यक्ष ने अपने आशय का ठीक
उल्टा कहा था, उसमें यह स्पष्ट है कि वह अधिवेशन का उद्घाटन करना चाहता है,
पर यह भी उतना ही स्पष्ट है कि वह इसे बन्द कर देना ही पसन्द करेगा। यह बात
इतनी स्पष्ट है कि इसका अर्थ समझाने की आवश्यकता नहीं। परन्तु जिन उदाहरणों
में बाधाकारक प्रवृत्ति मूल आशय को सिर्फ विकृत कर देती है, और स्वयं पूरी
तरह सामने नहीं आती, उनमें बाधाकारक प्रवृत्ति को कैसे पहचाना जा सकता है?
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1. Pre-disposition
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