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विविध >> मनोविश्लेषण मनोविश्लेषणसिगमंड फ्रायड
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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
अब यह बात ध्यान देने योग्य है कि वास्तविक जीवन की आवश्यकता से सामना होने
पर यौन वृत्तियों और आत्मसंरक्षण की वृत्तियों का व्यवहार एक-सा नहीं होता।
आत्मसंरक्षण की निसर्ग-वृत्तियां और उनके साथ ही जुड़ी हुई और सब वृत्तियां
अधिक आसानी से टल जाती हैं। वे वास्तविकता के आदेशों पर आवश्यकता के अनुकूल
बनना और अपने परिवर्धन को उसके अनुकूल बना लेना जल्दी ही सीख जाती हैं। यह
बात समझ में आती है, क्योंकि उन्हें अपने अभीष्ट आलम्बन और किसी साधन से नहीं
प्राप्त हो सकते, और इन आलम्बनों के बिना मनुष्य अवश्य नष्ट हो जाएगा। यौन
वृत्तियां उतनी आसानी से नहीं टलतीं, क्योंकि शुरू में उन्हें आलम्बनों का
अभाव नहीं पता चलता; वे दूसरे शारीरिक कार्य के साथ मानो पराश्रयी1 रूप में
जुड़ी हुई हैं, और साथ ही उन्हें अपने ही शरीर से आत्मकामिता द्वारा भी
परितुष्ट किया जा सकता है। इसलिए वे पहले वास्तविक आवश्यकता के शिक्षणकारी
प्रभाव से अलग-अलग हो जाती हैं, और बहुत-से लोगों में किसी-न-किसी दृष्टि से
दृढ़, और दूसरे के प्रभाव से प्रभावित न होने का यह गुण जिसे हम
'अतर्कसंगतता' कहते हैं, सारे जीवन बना रहता है। इसके अलावा, साधारणतया तरुण
व्यक्ति की शिक्षित किए जाने की योग्यता उस समय खत्म हो जाती है जब यौन इच्छा
अपनी अन्तिम शक्ति से उफन पड़ती है। शिक्षक इस बात को जानते हैं, और इसके
अनुसार ही कार्य करते हैं, पर शायद वे अब भी मनोविश्लेषण के परिणामों की ओर
कान देने को तैयार हो जाएं और शिक्षा में अधिक बल बचपन के आरम्भिक वर्षों,
अर्थात् दूध पीने से आगे के दिनों, पर दें। वह छोटा-सा मनुष्य-प्राणी प्रायः
अपने चौथे या पांचवें वर्ष में पूर्णरूप से तैयार हो चुका होता है, और आगे के
वर्षों में तो वह जो कुछ उसके भीतर है, उसे क्रमशः बाहर प्रदर्शित करता है।
निसर्ग-वृत्तियों के दो समूहों के इस अन्तर का पूरा आशय ग्रहण करने के लिए
हमें थोड़ा-सा प्रसंगान्तर करना होगा, और उनमें के एक पहलू को इसके अन्दर
लेना होगा, जिन्हें आर्थिक पहलू कहना उचित है। यहां हम मनोविश्लेषण के सबसे
अधिक महत्त्वपूर्ण, पर बदकिस्मती से सबसे अधिक धुंधले, क्षेत्रों में से एक
क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। हम यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि मनोयन्त्र के
कार्य करने में कोई मुख्य प्रयोजन दिखाई देता है, या नहीं, और इसका पहला
उत्तर इस तरह दिया जा सकता है कि यह प्रयोजन सुख प्राप्ति की दिशा में होता
है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी सारी मनोधात्वीय चेष्टा सुख पाने और दुःख से
बचने में जुटी हुई है, अर्थात् वह सुख-सिद्धान्त2 से स्वतः नियन्त्रित है। अब
हम सबसे पहले यही जानना चाहेंगे कि किन अवस्थाओं में सुख और दुःख पैदा होते
हैं : पर यहीं हम चक जाते हैं। हम इतना ही कह सकते हैं कि सुख मनोयन्त्र में
मौजूद उद्दीपन की मात्रा घटाने, हलका करने या हटाने से किसी रूप में
सम्बन्धित है, और दुःख में यह उद्दीपन बढ़ जाता है। मनुष्य जो तीव्रतम सुख,
अर्थात् सम्भोग सुख पा सकता है, उस पर विचार करने से इस बात में कोई सन्देह
नहीं रहता। इस प्रकार के सुखात्मक प्रक्रम मानसिक उत्तेजन और ऊर्जा की
मात्राओं के वितरण से सम्बन्धित हैं। इसलिए हम इस तरह के विचारों को आर्थिक
विचारणा कहते हैं। मालूम होता है कि मनोयन्त्र के कार्यों का वर्णन,
सुख-प्राप्ति पर बिना बल दिए, हम एक और तरीके से और अधिक व्यापक रूप से कर
सकते हैं। हम कह सकते हैं कि मनोयन्त्र अतिरिक्त उद्दीपनों के ढेरों, अर्थात्
ऊर्जा की मात्राओं को नियन्त्रित और विसर्जित करने का प्रयोजन सिद्ध करता है।
यह बिलकुल स्पष्ट है कि यौन प्रवृत्तियां अपने परिवर्धन के आरम्भ से अन्त तक
परितुष्टि के लक्ष्य की ओर चलती हैं। वे सारे समय, बिना किसी परिवर्तन के, यह
प्राथमिक कार्य भी करती रहती हैं। पहले दूसरा समूह अर्थात् अहम् वृत्तियां भी
यही कार्य करती हैं। पर अपनी मालकिन, आवश्यकता, के आदेश से वे जल्दी ही
सुखसिद्धान्त के स्थान पर उसके किसी रूप-भेद को लाना सीख लेती हैं। उनके लिए
दुःख से बचने का काम लगभग उतने ही महत्त्व का होता है जितना सुख पाने का काम।
अहम् को पता चल जाता है कि अनिवार्यतः उसे तत्काल सन्तुष्टि से वंचित रहना
होगा; परितुष्टि बाद के लिए मुलतवी करनी होगी; कुछ दुःख सहन करना सीखना होगा;
और सुख के कुछ स्रोतों को बिलकुल छोड़ देना होगा। इस प्रकार अभ्यास हो जाने
पर अहम् 'तर्कसंगत' हो जाता है। अब वह सुख-सिद्धान्त से नियन्त्रित नहीं
रहता, बल्कि यथार्थता-सिद्धान्त पर चलता है। पर यह भी मूलतः सुख खोजता है,
यद्यपि यह देर से मिलने वाला और पहले से कम सुख तथा ऐसा सुख खोजता है, जो
इसके तथ्य को समझ लेने के कारण और इसका यथार्थता से सम्बन्ध होने के कारण
मिलना निश्चित है। सुख-सिद्धान्त से यथार्थता-सिद्धान्त में संक्रमण अहम् के
परिवर्धन में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति है। हम पहले ही जानते हैं कि इस अवस्था
में यौन वृत्तियां देर से और अनिच्छा से चलती हैं। अब हम यह जानने का यत्न
करेंगे कि बाह्य यथार्थता को इतने हलके हाथ से पकड़कर मनुष्य की यौन-वृत्ति
के सन्तुष्ट होने से उसके लिए क्या-क्या दुष्परिणाम होते हैं, और अन्त में इस
सिलसिले में एक बात और। यदि मनुष्य जाति में अहम् का विकास भी राग के विकास
की तरह हुआ है तो आपको यह सुनकर आश्चर्य नहीं होगा कि 'अहम् प्रतिगमन' भी
होते हैं और आप यह जानना चाहेंगे कि अहम् के, लौटकर परिवर्धन की पहले वाली
अवस्थाओं में पहुंचने का स्नायु-रोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है।
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1. Parasite
2. Pleasure-principle
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