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मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


दोनों के सामान्य अनुभवों के बावजूद इन दोनों की अन्तिम अवस्था में जो भेद पैदा हुए हैं, वे इस कारण पैदा हुए हैं कि एक लड़की में अहम् ने उस परिवर्धन को बनाए रखा जो दूसरी में नहीं है। चौकीदार की लड़की को बाद की आयु में भी यौन चेष्टा वैसी ही स्वाभाविक और हानिरहित मालूम हुई, जैसी बचपन में। मालिक की लड़की 'अच्छे ढंग से पाली-पोसी गई', और उसने अपने शिक्षण के मानदण्ड अपना लिए। इस प्रकार, उद्दीपित होकर उसके अहम् ने स्त्री की शुद्धता और वासना के अभाव के आदर्श अपना लिए जो यौन कार्यों से असंगत थे। उसके बौद्धिक प्रशिक्षण ने उसके उस नारी-कार्य को उसकी ही दृष्टि में हीन बना दिया जिसके लिए वह बनाई गई है। उसके अहम् में जो यह ऊंचा नैतिक और बौद्धिक परिवर्तन हुआ, उसने उसका और उसकी यौन प्रवृत्ति की आवश्यकताओं का द्वन्द्व करा दिया।

आज मैं राग के परिवर्धन के एक और पहलू की चर्चा करूंगा, क्योंकि एक तो यह हमें कुछ विस्तृत भूमि पर ले आता है और दूसरे, हम अहम् वृत्तियों और यौन वृत्तियों में जो स्पष्ट भेदक रेखा खींचा करते हैं, पर जो फौरन समझ में नहीं आती, उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए यह बहुत उपयुक्त रहेगा। अहम् में और राग में हुए दो परिवर्धनों पर विचार करते हुए हमें एक पहलू पर अवश्य बल देना होगा, जिसकी ओर अब तक कोई ध्यान नहीं दिया गया। वे दोनों मूलतः वंशागत गुण हैं। सारी मनुष्य जाति ने प्रागैतिहासिक युगों से चले आते हुए बड़े दीर्घकाल में जो विकास किया है, वे उसकी संक्षिप्त पुनरावृत्तियां हैं; मैं समझता हूं कि राग के परिवर्धन में यह जातिचरितीय उद्गम1 आसानी से दिखाई पड़ जाता है। यह देखिए कि किस तरह प्राणियों के एक वर्ग में जननेन्द्रिय यन्त्र का मुख से बहुत नज़दीकी सम्बन्ध होता है। और दूसरे में वह मल-त्याग-व्यवस्था से अलग नहीं दिखाई देता। तीसरे में वह चरता2 के अंगों का हिस्सा है। इन तथ्यों का मज़ेदार वर्णन डब्ल्यू० बोलस्खे की मूल्यवान पुस्तक में मिलेगा। प्राणियों में सब तरह की काम-विकृतियां मिलती हैं, और यह कहा जा सकता है कि वे उस रूप में स्थिर हो गई हैं, जो उनके यौन संगठन ने ग्रहण कर लिया है, पर मनुष्य में वह जाति-चरितीय इस कारण कुछ अस्पष्ट हो गया है कि जो बात मूलतः वंशागत है, वह फिर भी नये सिरे से अलग-अलग सीखनी पड़ती है। सम्भवतः इसका कारण यह है कि जिन परिस्थितियों में इसे शुरू में सीखना पड़ा था, वही आज भी हैं, और प्रत्येक व्यक्ति पर वे अपना प्रभाव डालती हैं, मेरा यह कहना है कि जहां उन्होंने शुरू में एक नई अनुक्रिया की सृष्टि की थी, वहां अब वे एक पूर्व प्रवृत्ति को उद्दीपित करते हैं। इसके अलावा, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक मनुष्य में नियत परिवर्धन के मार्ग को बाहर से आने वाले वर्तमान संस्कारों से परिवर्तित किया जा सकता है, पर जिस शक्ति ने मनुष्य जाति पर यह परिवर्धन थोपा है, और जो आज भी इसे उसी मार्ग पर रखने के लिए अपना दबाव डाल रही है, वह हमें ज्ञात है। यह वही कुण्ठा या विफलता है जो वास्तविकता के अभाव में होती है, या यदि हम इसका दूसरा असली नाम दें तो यह आवश्यकता या जीवन-संघर्ष है। आवश्यकता बड़ी सख्त मालकिन रही है, और उसने हमें बहुत कुछ सिखाया है। स्नायु-रोग उसके वे बालक हैं जिन पर इस सख्ती का बुरा प्रभाव पड़ा है, पर यह खतरा तो हर दिशा में अवश्य रहता है। प्रसंगतः जीवन कायम रखने के लिए होने वाले संघर्ष को विकास का एक प्रवर्तक वल मानने के लिए यह आवश्यक नहीं कि यदि ‘भीतरी विकासात्मक वृत्तियां' मौजूद दिखाई दें तो उनके महत्त्व को कम समझा जाए।

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1. Phylogenetic origin
2. Organs of motility

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