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विविध >> मनोविश्लेषण मनोविश्लेषणसिगमंड फ्रायड
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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
व्याख्यान
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लक्षण-निर्माण के मार्ग
जनसाधारण की दृष्टि में लक्षण ही रोग का सारभाग हैं, और उनके लिए इलाज का
अर्थ है-लक्षणों का हट जाना; पर चिकित्सा-विज्ञान में लक्षणों और रोग में भेद
करना बहुत महत्त्वपूर्ण है, और यह बताना भी महत्त्वपूर्ण है कि लक्षणों का हट
जाना और रोग का हट जाना एक ही बात नहीं। परन्तु लक्षणों के हट जाने के बाद
रोग का जो एकमात्र मूर्त अंश रह जाता है, वह है नये लक्षणों का निर्माण करने
की क्षमता। इसलिए थोड़ी देर के लिए हम जनसाधारण का ही दष्टिकोण मान लें और
लक्षणों की बुनियाद के ज्ञान को रोग-विषयक जानकारी का समानार्थक समझ लें।
लक्षण ऐसे व्यापार या चेष्टाएं हैं जो, सारे जीवन की दृष्टि से, हानिकारक या
हीनतम रूप में बेकार हैं। यहां यह ध्यान रखिए कि हम मानसिक (या मनोधातुजनक)
लक्षणों और मानसिक रोगों पर विचार कर रहे हैं; लक्षणों से ग्रस्त व्यक्ति
बार-बार यह शिकायत करता है कि वे मुझे बुरे लगते हैं या मुझे उनसे परेशानी और
तकलीफ होती है। उनसे मुख्य हानि यह होती है कि उनमें बहुत सी मानसिक ऊर्जा
खर्च होती है, और इसके अलावा, उनसे संघर्ष करने में भी ऊर्जा खर्च होती है।
जब लक्षण अधिक फैल जाते हैं तब दोनों प्रयासों में इतनी अधिक ऊर्जा खर्च हो
जाती है कि व्यक्ति के पास अपनी कुल मानसिक ऊर्जा की गम्भीर कमी हो जाती है,
जो उसे जीवन के सब महत्त्वपूर्ण कार्यों में असमर्थ कर देती है। यह परिणाम
मुख्यतः इस बात पर निर्भर है कि इस तरह ऊर्जा की कितनी मात्रा खर्च हुई है।
इसलिए आप देखेंगे कि 'बीमारी' सारतः एक क्रियात्मक या प्रायोगिक अवधारण है,
पर यदि आप इस मामले पर सिद्धान्त की दृष्टि से विचार करें और मात्रा के
प्रश्न को छोड़ दें तो आप आसानी से कह सकते हैं कि हम सब लोग रोगी अर्थात्
स्नायु-रोगी हैं, क्योंकि लक्षण-निर्माण के लिए जो अवस्थाएं अपेक्षित हैं वे
प्रकृत व्यक्तियों में भी दिखाई जा सकती हैं।
स्नायविक लक्षणों के बारे में हम यह जानते हैं कि वे उस द्वन्द्व का परिणाम
हैं जो रोग की सन्तुष्टि का नया रूप तलाश करने पर पैदा होता है। दो शक्तियां,
जो एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हैं, लक्षण में फिर आकर मिल जाती हैं, और
लक्षणनिर्माण में निहित समझौते या मध्यमवर्ग द्वारा सामंजस्य कर लेती हैं।
इसी कारण लक्षण के इतने प्रतिरोध का सामर्थ्य है। इसे दोनों ओर से सहारा
मिलता है। हम यह भी जानते हैं कि द्वन्द्व करने वाले दो पहलवानों में एक वह
असन्तुष्ट राग है जो यथार्थता से कुण्ठित हो गया है और जिसे अब सन्तुष्टि के
लिए दूसरा मार्ग खोजना पड़ा है। यदि यथार्थता तब भी अड़ी रहे जबकि राग
निषिद्ध आलम्बन के स्थान पर दूसरा आलम्बन पकड़ने को तैयार है, तो तब अन्त में
राग को प्रतिगमन का मार्ग पकड़ने तथा जिन संगठनों को यह पहले पार कर आया है,
उनमें से किसी एक से, या जो आलम्बन इसने पहले छोड़ दिए थे, उनमें से किसी एक
से सन्तुष्टि प्राप्त करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। राग को वे बद्धताएं
प्रतिआगमन के मार्ग पर खींचती हैं जो यह अपने परिवर्धन में इन स्थानों पर
अपने पीछे छोड़ आया है।
अब काम-विकृति रास्ता स्नायु-रोग के रास्ते से बिलकुल अलग हो जाता है। यदि इन
प्रतिगमनों पर अहम् कोई प्रतिषेध नहीं लागू करता तो स्नायु-रोग नहीं पैदा
होता। राग यथार्थ सन्तुष्टि प्राप्त कर लेता है, यद्यपि वह प्रकृत सन्तुष्टि
नहीं होती; पर यदि अहम्, जो न केवल चेतना को, बल्कि कर्म-स्नायु के उद्दीपन1
द्वारों को भी नियन्त्रित करता है, और इस प्रकार मानसिक आवेगों की वस्तुतः
सन्तुष्टि को नियन्त्रित करता है, इन प्रतिगमनों से सहमत नहीं है, जो
द्वन्द्व शुरू हो जाता है। राग जैसे चारों ओर से घिर जाता है और उसे ऐसा
रास्ता ढूंढ़ना है जिससे वह सुखसिद्धान्त की मांग के अनुसार कैथेक्सिस,
अर्थात् ऊर्जा के आवेग (या चाज) को बाहर कर सके : यह अहम् से बचने और दूर
रहने की कोशिश करेगा। परिवर्धन के मार्ग पर, जिस पर अब प्रतिगमन हो रहा है,
मौजूद बद्धताएं-जिनसे अहम् ने पहले दमन द्वारा अपने को बचा लिया था, ऐसे
पलायन-मार्ग के रूप में दिखाई देती हैं। पीछे की ओर जाते हुए इन दमित स्थानों
को पुनः ऊर्जाविष्ट करते हुए राग अहम् और उसके नियमों से अपने-आपको दूर हटा
लेता है, पर वह अहम आप्त सारे प्रशिक्षण को भी त्याग देता है। यह तब तक विनीत
था जब तक सन्तुष्टि नज़र आ रही थी; बाहरी और भीतरी कुण्ठा के दोहरे दबाव से
यह अ-नियम्य बन जाता है और पुराने सुखमय दिनों की ओर मुड़कर देखने लगता है।
यह इसका परमावश्यक अपरिवर्तनीय गुण है। अब राग अपना ऊर्जावेश या कैथेक्सिस
जिन मनोबिम्बों पर ले जाता है वे अचेतन संस्थान के होते हैं, और उस संस्थान
के सूचक विशेष प्रक्रमों के अधीन कार्य करते हैं, अर्थात् उनका संघनन और
विस्थापन हो सकता है। इस प्रकार ऐसी अवस्थाएं बन जाती हैं जो स्वप्न-निर्माण
की अवस्थाओं से बिलकुल मेल खाती हैं; जैसे गुप्त स्वप्न, जो पहले विचारों से
अचेतन में बनता है और किसी अचेतन इच्छा-कल्पना की पूर्ति होता है, किसी
(पूर्व) चेतन चेष्टा से मिलता है जो इसकी काट-छांट करती है, और अपनी राय के
अनुसार व्यक्त स्वप्न में एक मध्यमार्गी या समझौते वाले रूप का निर्माण होने
देती है। उसी प्रकार उस मनोबिम्ब को, जिससे राग चेतन में जुड़ा रहता है,
(राग-निरूपक)2 पूर्व चेतन अहम् की शक्ति से फिर संघर्ष करना पड़ता है। अहम्
में इसका विरोध प्रति आवेश (एण्टी कैथेक्सिस) बनकर इसके पीछे आता है, और इसे
अभिव्यक्ति का ऐसा रूप अपनाने को मजबूर करता है जिससे साथ-ही-साथ विरोध करने
वाले बल भी अपने-आपको अभिव्यक्ति कर सकें। इस प्रकार तब लक्षण अचेतन रागात्मक
इच्छा-पूर्ति के अनेक प्रकार से विपर्यस्त व्युत्पन्न के रूप में एक ऐसे
चतुराई से चुने गए संदिग्ध अर्थ के रूप में, जिसके दो बिलकुल परस्पर विरोधी
अर्थ होते हैं, जन्म लेता है। स्वप्न-निर्माण और लक्षण-निर्माण में सिर्फ इस
अन्तिम बात में अन्तर है, क्योंकि स्वप्न-निर्माण में पूर्व चेतन का प्रयोजन
सिर्फ इतना है कि नींद की रक्षा की जाए, और ऐसी कोई बात चेतना में न घुसने दी
जाए जो इसे बिगाड़े। यह अचेतन इच्छा-आवेग के सामने 'नहीं, इसके विपरीत' का
प्रतिषेधक नोटिस लगाने का आग्रह नहीं करता। यह अधिक सहिष्णु हो सकता है,
क्योंकि सोता हुआ मनुष्य कम खतरनाक स्थिति में रहता है। इच्छा को वास्तव में
पूरी होने से रोकने के लिए नींद की अवस्था ही काफी है।
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1. Motor innervation
2. Libido-representatives
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