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उपन्यास >> सुमन

सुमन

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8684
आईएसबीएन :0

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सुमन...

 

प्रेम...एक ऐसी अनुभति जो वक्त के साथ आगे बढ़ती ही जाती है। वक्त जितना बीतता है प्रेम के बंधन उतने ही सख्त होते चले जाते हैं।

प्रेम के ये दो हमजोली वक्त के साथ आगे बढ़ते रहे। सुमन गिरीश की पूजा करती...उसने उसकी सूरत अपने मन-मंदिर में संजो दी। सुमन उसके गले में बांहे डाल देती तो वह उसके गुलाबी अधरों पर चुम्बन अंकित कर देता।

समय बीतता रहा।
वे मिलते रहे, हंसी-खुशी...वक्त कटने लगा। दोनों मिलते, प्रेम की मधुर-मधुर बातें करते–एक-दूसरे की आंखों में खोकर...समस्त संसार को भूल जाते। सुमन को याद रहता गिरीश। गिरीश को याद रहती सिर्फ सुमन...।
 
वे प्रेम करते थे...अनन्त प्रेम...और गंगाजल से भी कहीं अधिक सच्चा। प्रेम के बांध को तोड़कर वे उस ओर कभी नहीं बढ़े जहां इस रिश्ते को पाप की संज्ञा में रख दिया जाता है। वे तो मिलते...और बस न मिलते तो दोनों तड़पते रहते।

किंतु उस दिन की गुत्थी एक कांटा-सा बनकर गिरीश के हृदय में चुभ रही थी। उसने कई बार सुमन से भी पूछा किंतु प्रत्येक बार वह सिर्फ उदास होकर रह जाती। अतः अब गिरीश ने सुमन से संजय के विषय में बातें करनी ही समाप्त कर दीं। किंतु दिल-ही-दिल में वह कांटा नासूर बनता जा रहा था।...जहरीला कांटा। गिरीश न जान सका कि रहस्य क्या है।

लेकिन अब कभी वह सुमन के सामने कुछ नहीं कहता। सब बातों को भुलाकर वे हंसते, मिलते, प्रेम करते और एक-दूसरे की बांहों में समा जाते। जब सुमन गिरीश से बातें करती तो गिरीश उसके साहस पर आश्चर्यचकित रह जाता। वह हमेशा यही कहती कि वह उसके लिए समस्त संसार से टकरा जाएगी।

शाम को तब जबकि सूर्य अपनी किरणों को समेटकर धरती के आंचल में समाने हेतु जाता उस समय वे किन्हीं कारणों से मिल नहीं पाते थे। ऐसे ही एक समय जब गिरीश अपनी छत पर था और सुमन के उस मकान की छत को देख रहा था जिसकी दीवार पुताई न होने के कारण काली पड़ गई थी। वह उसी छत को निहार रहा था कि चौंक पड़ा...प्रसन्नता से वह झूम उठा...क्योंकि छत पर उसे सुमन नजर आईं और बस फिर वे एक-दूसरे को देखते रहे। सूर्य अस्त हो गया...रजनी का स्याह दामन फैल गया...वे एक-दूसरे को सिर्फ धुंधले साए के रूप में देख सकते थे किंतु देख रहे थे। हटने का नाम कोई लेता ही नहीं था। अंत में गिरीश ने संकेत किया कि पार्क में मिलो तो वे पार्क में मिले। उस दिन के बाद ऊपर आना मानो उनकी कोई विशेष ड्यूटी हो। सूर्य अस्त होने जाता तो बरबस ही दोनों के कदम स्वयमेव ही ऊपर चल देते। फिर रात तक वहीं संकेत करते और फिर बाग में मिलते।

सुख...प्रसन्नताएं...खुशियां, इन्हीं के बीच से वक्त गुजरता रहा, लेकिन क्या प्रेम करना इतना ही सरल होता है? क्या प्रेम में सिर्फ फूल हैं? नहीं...अब अगर वो फूलों से गुजर रहे थे तो राह में कांटे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।...दुख उन्हें खोज रहे थे।
 
एक दिन...।
तब जबकि प्रतिदिन की भांति वे दोनों पार्क में मिले...मिलते ही सुमन ने कहा–‘‘गिरीश...बताओं तो कल क्या है?’’

‘‘अरे ये भी कोई पूछने वाली बात है...कल शुक्रवार है।’’
‘‘शुक्रवार के साथ और भी बहुत कुछ है?’’
‘‘क्या?’’
‘‘मेरी वर्षगांठ।’’
‘‘अरे...सच...!’’ गिरीश प्रसन्नता से उछल पड़ा।

‘‘जी हां जनाब, कल तुम्हें आना है, घर तो घर वाले स्वयं ही कार्ड पहुँचा देंगे किंतु तुमसे मैं विशेष रूप से कह रही हूं। आना अवश्य।’’

‘‘ये कैसे हो सकता है कि देवी का बर्थ डे हो और भक्त न आएं?’’

‘‘धत्।’’ देवी शब्द पर सदा की भांति लजाकर सुमन बोली–‘‘तुमने फिर देवी कहा।’’
‘‘देवी को देवी ही कहा जाएगा।’’

सुमन फिर लाज से दोहरी हो गई। गिरीश ने उसे बांहों में समेट लिया।

सुमन की वर्षगांठ–
घर मानो आज सज-संवरकर दुल्हन बन गया था। चारों ओर खुशियां–प्रसन्नताएं बच्चों की किलकारियां और मेहमानो के कहकहे। समस्त मेहमान घर में सजे-संवरे हॉल में एकत्रित हुए थे। उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सुमन को मुबारकबाद देता, सुमन मधुर मुस्कान के साथ उसे स्वीकार करती किंतु इस मुस्कान में हल्कापन होता–हंसी में चमक होती भी कैसे?...इस चमक का वारिस तो अभी आया ही नहीं था। जिसका इस मुस्कान पर अधिकार है।...हां...सुमन को प्रत्येक क्षण गिरीश की प्रतीक्षा थी जो अभी तक नहीं आया था। रह-रहकर सुमन की निगाहें दरवाज़े की ओर उठ जातीं किंतु अपने मन-मंदिर के भगवान को अनुपस्थित पाकर वह निराश हो जाती। सब लोग तो प्रसन्न थे...यूं प्रत्यक्ष में वह भी प्रसन्न थी किंतु अप्रत्यक्ष रूप में वह बहुत परेशान थी। उसके हृदय में भांति-भांति की शंकाओं का उत्थान-पतन हो रहा था।

‘‘अरे सुमन...!’’ एकाएक उसकी मीना दीदी बोली।
‘‘यस दीदी।’’

‘‘चलो  केक काटो...समय हो गया है।’’
सुमन का हृदय धक् से रह गया।

केक काटे...किंतु कैसे...?...गिरीश तो अभी

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