उपन्यास >> सुमन सुमनवेद प्रकाश शर्मा
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सुमन...
३
‘‘नहीं गिरीश नहीं...मैं किसी और की नहीं हो सकती, मेरी शादी तुम्हीं से होगी, सिर्फ तुमसे।’’ सुमन ने गिरीश के गले में अपनी बांहे डालते हुए कहा।
‘‘ये समाज बहुत धोखों से भरा है सुमन। विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता, न जाने कब क्या हो जाए?’’ गिरीश गंभीर स्वर में बोला। इस समय वे अपने घर के निकट वाले पार्क के अंधेरे कोने में बैठे बातें कर रहे थे। वे अक्सर यहीं मिला करते थे।
‘‘तुम तो पागल हो गिरीश...।’’ सुमन बोली–‘‘मैं तो कहती हूं कि तुम्हें लड़की होना चाहिए था और मुझे लड़का...जब मैं तुमसे कह रही हूं कि तुम्हीं से शादी होगी तो तुम क्यों नहीं मेरा साहस बढ़ाते।’’
‘‘सुमन...अगर तुम्हारे घर वाले तैयार नहीं हुए तो?’’
‘‘पहली बात तो ऐसा होगा नहीं और अगर हो भी गया तो देख लेना तुम अपनी सुमन को, वह घर वालों का साथ छोड़कर तुम्हारे साथ होगी।’’
‘‘क्या तुम होने वाली बदनामी को सहन कर सकोगी?’’
‘‘गिरीश...मेरा ख्याल है कि तुम प्यार ही नहीं करते। प्यार करने वाले कभी बदनामी की चिंता नहीं किया करते।’’
‘‘सुमन–यह सब उपन्यास अथवा फिल्मों की बातें हैं–यथार्थ उनसे बहुत अलग होता है।’’
‘‘गिरीश!’’ सुमन के लबों से एक आह टपकी–‘‘यही तो तुम्हारी गलतफहमी है। अन्य साधारण व्यक्तियों की भांति तुमने भी कह दिया कि ये उपन्यास की बातें हैं। क्या तुम नहीं जानते कि लेखक भी समाज का ही एक अंग होता है। उसकी चलती हुई लेखनी वही लिखती है जो वह समाज में देखता है। क्या कभी तुम्हारे साथ ऐसा नहीं हुआ कि कोई उपन्यास पढ़ते-पढ़ते तुम उसके किसी पात्र के रूप में स्वयं को देखने लगे हो। हुआ है गिरीश हुआ है–कभी-कभी कोई पात्र हम जैसा भी होता है–मालूम है वह पात्र कहां से आता है–लेखक की लेखनी उसे हम ही लोगों के बीच से प्रस्तुत करती है। जब लेखक किसी पात्र के माध्यम से इतना साहस प्रस्तुत करता है, जितना तुम में नहीं है तो उसे यथार्थ से हटकर कहने लगते हो–लेखक तुम्हें प्रेरणा देता है कि अगर प्यार करते हो तो सीना तानकर समाज के सामने खड़े हो जाओ। लाख परेशानियों के बाद भी अपने प्रिय को अपनाकर समाज के मुँह पर तमाचा मारो। जिन बातों को तुम सिर्फ उपन्यासों की बात कहकर टाल जाते हो उसकी गंभीरता को देखो–उसकी सच्चाई में झांको।’’ सुमन कहती ही चली गई मानो पागल हो गई हो।
‘‘वाह–वाह देवी जी।’’ गिरीश हंसता हुआ बोला–‘‘लेडीज नेताओं में इंदिरा के बाद तुम्हारा ही नम्बर है–काफी अच्छा भाषण झाड़ लेती हो।’’
‘‘ओफ्फो–बड़े वो हो तुम!’’ सुमन कातर निगाहों से उसे देखकर बोली–‘‘मुझे जोश दिलाकर न जाने क्या-क्या बकवा गए। अब मैं तुमसे बात नहीं करूंगी।’’ कृत्रिम रूठने के साथ उसने मुंह फेर लिया।
‘‘अबे ओ मोटे।’’ जब सुमन रूठ जाती तो गिरीश का संबोधन यही होता था–‘‘रूठता क्यों है हमसे, चल इधर देख–नहीं तो अभी एक पप्पी की सजा दे देंगे।’’
सुमन लजा गई–तभी गिरीश ने उसके कोमल बदन को बाहों में ले लिया और उसके अधरों पर एक चुम्बन अंकित करके बोला–‘‘इससे आगे का बांध...सुहाग रात को तोड़ूँगा देवी जी।’’
उसके इस वाक्य पर तो सुमन पानी-पानी हो गई...लाज से मुंह फेरकर उसने भाग जाना चाहा किंतु गिरीश के घेरे सख्त थे। अतः उसने गिरीश के सीने में ही मुखड़ा छुपा लिया।
इस प्रकार–कुछ प्रेम वार्तालाप के पश्चात अचानक सुमन बोली–‘‘अच्छा...गिरीश, अब मैं चलूं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘सब इंतजार कर रहे होंगे।’’
‘‘कौन सब?’’
‘‘मम्मी, पापा, जीजी, जीजाजी–सभी।’’
‘‘एक बात कहूं...सुमन, बुरा-तो नहीं मानोगी?’’
कुछ साहस करके बोला गिरीश।
‘‘तुम्हारी बात का मैं और बुरा मानूंगी...मुझे तो दुख है कि तुमने ऐसा सोचा भी कैसे?’’ कितना आत्म-विश्वास था सुमन के शब्दों में।
‘‘न जाने क्यों मुझे तुम्हारे संजय जीजाजी अच्छे नहीं लगते।’’
न जाने क्यों गिरीश के मुख से उपरोक्त वाक्य सुनकर सुमन को एक धक्का लगा उसके मुखड़े पर एक विचित्र-सी घबराहट उत्पन्न हो गई। वह घबराहट को छुपाने का प्रयास करती हुई बोली–‘‘क्यों भला? तुमसे तो अच्छे ही हैं...लेकिन बस अच्छे नहीं लगते।’’
‘‘सच...बताऊं तो गिरीश...मुझे भी नफरत है।’’
सुमन कुछ गंभीर होकर बोली।
‘‘क्यों, तुम्हें क्यों...?’’ गिरीश थोड़ा चौंका।
‘‘ये मैं भी नहीं जानती।’’ सुमन बात हमेशा ही इस प्रकार गोल करती थी।
‘‘विचित्र हो तुम भी।’’ गिरीश हंसकर बोला।
‘‘अच्छा अब मैं चलूं गिरीश!’’ सुमन गंभीर स्वर में बोली।
गिरीश महसूस कर रहा था कि जब से उसने सुमन से संजय के विषय में कुछ कहा है तभी से सुमन कुछ गंभीर हो गई है। उसने कई बार प्रयास किया कि सुमन की इस गंभीरता का कारण जाने, किंतु वह सफल न हो सका। उसके लाख प्रयास करने पर भी सुमन एक बार भी नहीं हंसी। न जाने क्या हो गया था उसे?...गिरीश न जान सका।
इसी तरह उदास-उदास-सी वह विदाई लेकर चली गई। किंतु गिरीश स्वयं को ही गाली देने लगा कि क्यों उसने बेकार में संजय की बात छेड़ी? किंतु यह गुत्थी भी एक रहस्य थी कि सुमन संजय के लिए उसके मुख से एक शब्द सुनकर इतनी गभीर क्यों हो गई? क्या गिरीश ने ऐसा कहकर सुमन की निगाहों में भूल की। गिरीश विचित्र-सी गुत्थी में उलझ गया। लेकिन एक लम्बे समय तक यह गुत्थी गुत्थी ही रही।
‘‘ये समाज बहुत धोखों से भरा है सुमन। विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता, न जाने कब क्या हो जाए?’’ गिरीश गंभीर स्वर में बोला। इस समय वे अपने घर के निकट वाले पार्क के अंधेरे कोने में बैठे बातें कर रहे थे। वे अक्सर यहीं मिला करते थे।
‘‘तुम तो पागल हो गिरीश...।’’ सुमन बोली–‘‘मैं तो कहती हूं कि तुम्हें लड़की होना चाहिए था और मुझे लड़का...जब मैं तुमसे कह रही हूं कि तुम्हीं से शादी होगी तो तुम क्यों नहीं मेरा साहस बढ़ाते।’’
‘‘सुमन...अगर तुम्हारे घर वाले तैयार नहीं हुए तो?’’
‘‘पहली बात तो ऐसा होगा नहीं और अगर हो भी गया तो देख लेना तुम अपनी सुमन को, वह घर वालों का साथ छोड़कर तुम्हारे साथ होगी।’’
‘‘क्या तुम होने वाली बदनामी को सहन कर सकोगी?’’
‘‘गिरीश...मेरा ख्याल है कि तुम प्यार ही नहीं करते। प्यार करने वाले कभी बदनामी की चिंता नहीं किया करते।’’
‘‘सुमन–यह सब उपन्यास अथवा फिल्मों की बातें हैं–यथार्थ उनसे बहुत अलग होता है।’’
‘‘गिरीश!’’ सुमन के लबों से एक आह टपकी–‘‘यही तो तुम्हारी गलतफहमी है। अन्य साधारण व्यक्तियों की भांति तुमने भी कह दिया कि ये उपन्यास की बातें हैं। क्या तुम नहीं जानते कि लेखक भी समाज का ही एक अंग होता है। उसकी चलती हुई लेखनी वही लिखती है जो वह समाज में देखता है। क्या कभी तुम्हारे साथ ऐसा नहीं हुआ कि कोई उपन्यास पढ़ते-पढ़ते तुम उसके किसी पात्र के रूप में स्वयं को देखने लगे हो। हुआ है गिरीश हुआ है–कभी-कभी कोई पात्र हम जैसा भी होता है–मालूम है वह पात्र कहां से आता है–लेखक की लेखनी उसे हम ही लोगों के बीच से प्रस्तुत करती है। जब लेखक किसी पात्र के माध्यम से इतना साहस प्रस्तुत करता है, जितना तुम में नहीं है तो उसे यथार्थ से हटकर कहने लगते हो–लेखक तुम्हें प्रेरणा देता है कि अगर प्यार करते हो तो सीना तानकर समाज के सामने खड़े हो जाओ। लाख परेशानियों के बाद भी अपने प्रिय को अपनाकर समाज के मुँह पर तमाचा मारो। जिन बातों को तुम सिर्फ उपन्यासों की बात कहकर टाल जाते हो उसकी गंभीरता को देखो–उसकी सच्चाई में झांको।’’ सुमन कहती ही चली गई मानो पागल हो गई हो।
‘‘वाह–वाह देवी जी।’’ गिरीश हंसता हुआ बोला–‘‘लेडीज नेताओं में इंदिरा के बाद तुम्हारा ही नम्बर है–काफी अच्छा भाषण झाड़ लेती हो।’’
‘‘ओफ्फो–बड़े वो हो तुम!’’ सुमन कातर निगाहों से उसे देखकर बोली–‘‘मुझे जोश दिलाकर न जाने क्या-क्या बकवा गए। अब मैं तुमसे बात नहीं करूंगी।’’ कृत्रिम रूठने के साथ उसने मुंह फेर लिया।
‘‘अबे ओ मोटे।’’ जब सुमन रूठ जाती तो गिरीश का संबोधन यही होता था–‘‘रूठता क्यों है हमसे, चल इधर देख–नहीं तो अभी एक पप्पी की सजा दे देंगे।’’
सुमन लजा गई–तभी गिरीश ने उसके कोमल बदन को बाहों में ले लिया और उसके अधरों पर एक चुम्बन अंकित करके बोला–‘‘इससे आगे का बांध...सुहाग रात को तोड़ूँगा देवी जी।’’
उसके इस वाक्य पर तो सुमन पानी-पानी हो गई...लाज से मुंह फेरकर उसने भाग जाना चाहा किंतु गिरीश के घेरे सख्त थे। अतः उसने गिरीश के सीने में ही मुखड़ा छुपा लिया।
इस प्रकार–कुछ प्रेम वार्तालाप के पश्चात अचानक सुमन बोली–‘‘अच्छा...गिरीश, अब मैं चलूं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘सब इंतजार कर रहे होंगे।’’
‘‘कौन सब?’’
‘‘मम्मी, पापा, जीजी, जीजाजी–सभी।’’
‘‘एक बात कहूं...सुमन, बुरा-तो नहीं मानोगी?’’
कुछ साहस करके बोला गिरीश।
‘‘तुम्हारी बात का मैं और बुरा मानूंगी...मुझे तो दुख है कि तुमने ऐसा सोचा भी कैसे?’’ कितना आत्म-विश्वास था सुमन के शब्दों में।
‘‘न जाने क्यों मुझे तुम्हारे संजय जीजाजी अच्छे नहीं लगते।’’
न जाने क्यों गिरीश के मुख से उपरोक्त वाक्य सुनकर सुमन को एक धक्का लगा उसके मुखड़े पर एक विचित्र-सी घबराहट उत्पन्न हो गई। वह घबराहट को छुपाने का प्रयास करती हुई बोली–‘‘क्यों भला? तुमसे तो अच्छे ही हैं...लेकिन बस अच्छे नहीं लगते।’’
‘‘सच...बताऊं तो गिरीश...मुझे भी नफरत है।’’
सुमन कुछ गंभीर होकर बोली।
‘‘क्यों, तुम्हें क्यों...?’’ गिरीश थोड़ा चौंका।
‘‘ये मैं भी नहीं जानती।’’ सुमन बात हमेशा ही इस प्रकार गोल करती थी।
‘‘विचित्र हो तुम भी।’’ गिरीश हंसकर बोला।
‘‘अच्छा अब मैं चलूं गिरीश!’’ सुमन गंभीर स्वर में बोली।
गिरीश महसूस कर रहा था कि जब से उसने सुमन से संजय के विषय में कुछ कहा है तभी से सुमन कुछ गंभीर हो गई है। उसने कई बार प्रयास किया कि सुमन की इस गंभीरता का कारण जाने, किंतु वह सफल न हो सका। उसके लाख प्रयास करने पर भी सुमन एक बार भी नहीं हंसी। न जाने क्या हो गया था उसे?...गिरीश न जान सका।
इसी तरह उदास-उदास-सी वह विदाई लेकर चली गई। किंतु गिरीश स्वयं को ही गाली देने लगा कि क्यों उसने बेकार में संजय की बात छेड़ी? किंतु यह गुत्थी भी एक रहस्य थी कि सुमन संजय के लिए उसके मुख से एक शब्द सुनकर इतनी गभीर क्यों हो गई? क्या गिरीश ने ऐसा कहकर सुमन की निगाहों में भूल की। गिरीश विचित्र-सी गुत्थी में उलझ गया। लेकिन एक लम्बे समय तक यह गुत्थी गुत्थी ही रही।
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