श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
एक दिन काफ़ी आँधी-तूफ़ान-बरसात की रात!
मुझे ख़याल आया, इस भरी बरसात में अगर मंसूर और मैं भीग रहे होते, तो कितना मज़ा आता। भीगी देह लिये, हम एक-दूसरे से लिपट कर बैठे होते। ऐसी ही भीगी-भीगी बरसात की एक रात का दृश्य मेरे मन में अपने गहरे निशान छोड़ गया था... सत्यजित राय की फ़िल्म-'पथेर पांचाली'। उस फ़िल्म की दुर्गा, हड्डियाँ गला देने वाली सर्दी में, वह बरसाती बारिश में भीग रही है।...सोचती हूँ, तो आज भी मेरे तन-बदन में कँपकँपी भर जाती है। मेरा बचपन और कैशोर्य, तो निरे सूखे में गुज़र गया। बारिश में भीग सकूँ, इतनी आज़ादी मुझे नहीं थी।
जैसे ही मैं भीगने जाती, माँ एकदम से हुक्म जारी करती थी, 'जल्दी आ! भाग कर आ, वर्ना बुखार चढ़ जायेगा।'
अगर मुझे मंसूर मिल जाये, तो मैं दुनिया-जहान की सैर पर निकल जाऊँ। समुन्दर में उतर जाऊँ! पानी में तैरती रहूँ...तैरती रहूँ! पद्मा, मेघना, यमुना में नौका-विहार करूँ! अगर वह मुझे मिल जाये, तो मैं कैसे ग़ज़ब-ग़ज़ब के काण्ड करूँ। हर बारिश में भीगूंगी। कोई भी बारिश खाली नहीं जाने दूंगी।
यूनिवर्सिटी, रिक्शे में मैं अकेली ही जाती हूँ! और मन-ही-मन उसे खोजती फिरती हूँ। ऐसा हो भी तो सकता है, इतनी सारी चिट्ठियाँ पा कर, वह सोच रहा हो कि मेरे सामने अचानक प्रकट हो कर, वह मुझे चौंका दे। यूनिवर्सिटी के कॉरीडोर में मैं अकेली खड़ी रहती हूँ, मगर कोई नहीं आता।
मैं चिट्ठियाँ पोस्ट करती रही! निरलस!
इस बार मैंने लिखा-
प्रिय मंसूर,
अगले इतवार, दिन के दस बजे, मैं कलाभवन की दूसरी मंज़िल पर, 'अपराजेय बांग्ला' के ठीक पीछे की तरफ़, खड़ी रहूँगी, तुम आ जाना। अच्छा, चलो, ख़त न दो, कम-से-कम मिल तो सकते हो। सिर्फ़ नज़र भर देख लेने देना! अगर चाहो, तो हम दोनों कैंटीन में चाय पीने भी चल सकते हैं। यूँ गले पड़ कर, यह जो मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ, तुम इस ग़लतफ़हमी में न पड़ जाना कि मैं बड़ी आसानी से सुलभ हूँ। मुझमें व्यक्तित्व नाम की कोई चीज़ नहीं है। ऐसा बिल्कुल नहीं है।
वैसे, जब जान-पहचान हो जायेगी, तो तुम यह बात समझ जाओगे। प्यार करने में, मैं कोई शर्म महसूस नहीं करती। दुनिया में प्यार से ज़्यादा खूबसूरत और भला क्या है, बताओ?
इति,
शीला
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