श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
|
10 पाठकों को प्रिय 235 पाठक हैं |
तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
उस दिन मैं पूरे चार घण्टे खड़ी रही। मंसूर नहीं आया। असल में, मंसूर मुझे प्यार नहीं करने वाला! वह ज़रूर किसी और से प्यार करता है। मुझ जैसी अन्कल्चर्ड लड़की को वह ख़ामख्वाह प्यार क्यों करने लगा? ठीक है, अब मैं भी, निर्लज्ज की तरह उसे नहीं लिखूगी। यही सब सोचते-सोचते मैं घर चली आयी। दो-एक लड़के, खुद सिर पड़ कर, मुझसे बात करना चाहते हैं, मैं टाल गयी। कहाँ वह मंसूर, कहाँ ये सीधे-सादे छोकरे! मंसूर की कान्ति, मेरे
समूचे मन को आलोकित किये रहती है।
लेकिन, यह कैसा प्यार है? एकतरफ़ा! उस तरफ़ से न कोई आवाज़, न प्रतिउत्तर! अच्छा, वह बन्दा क्या ढाका शहर में नहीं है? अगर मैं सचमुच ही उसे इतनी असहनीय लगती हूँ, तो एक बार, इतना-सा तो बता सकता है कि मुझे तंग मत करो। मैं और कहीं बँधा हुआ हूँ।
आजकल मैं खड़ी-खड़ी, दूर-दूर तक दिगन्त देखा करती हूँ। दिगन्त देखती रहती हूँ और सोचती रहती हूँ, लो, देखो, मेरा 'टीन-एज' का समय निकला जा रहा है, मैं दो के क्षणस्थाी दायरे में पहुँचती जा रही हूँ। इस लम्बी ज़िन्दगी में मुझे क्या मिला? घर में इतने सारे लोग हैं, लेकिन मुझे बेहद अकेलापन लगता है।
माँ के पास दो पल भी बैठो, तो धर्म-कर्म का प्रसंग छिड़ जाता है।
मैं अकसर संशय ज़ाहिर करती हूँ, 'यह सब आख़िरत, पुलसरात, दोज़ख, बहिश्त...इन सबमें मेरी कोई आस्था नहीं। यह अल्लाह वगैरह क्या है?'
माँ ने चीख कर, मेरी जुबान बन्द कर दी, 'देख, अभी भी वक़्त है, तौबा कर और नमाज़ शुरू कर दे।
आजकल माँ एक ही बात की जुगाली करती रहती हैं-तौबा कर, नमाज़ शुरू कर! मुझसे यह धर्म-कर्म नहीं किया जाता। असल में अलौकिक में मेरा विश्वास नहीं है।
माँ ने मुझे अपने क़रीब बुला कर, मुझे समझाते हुए कहा, 'यह जो तू कहती है, दोज़ख़-बहिश्त कुछ नहीं होता। चल, ठीक है, नहीं है, लेकिन, फ़र्ज़ कर, हश्र के मैदान में अचानक तू देखे, दोज़ख़-बहिश्त मौजूद है, तब तेरी क्या हालत होगी, ज़रा बता?
'हालत क्या होनी है? दोज़ख़ में ही चली जाऊँगी।' मैं बिल्कुल ही निर्विकार बनी रही।
माँ दहशत से गौंगियाती रहीं।
|