लोगों की राय

श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

235 पाठक हैं

तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


नाटक का नाम-'चक्का' ! सलीम-अल-दीन का नाटक! मंच की तरफ़ मेरी नज़र ही नहीं गयी। मंसूर मेरे ठीक सामने की क़तार में बैठा था।

उसने मेरी तरफ़ दो बार देखा भी! उसने जब भी नज़रें उठा कर देखा, मुझे अपनी तरफ़ देखते हुए पाया। मेरी निगाह उसी पर गड़ी थी। उसने क्या मुझे पहचाना नहीं? लेकिन उसे इतने-इतने ख़त मिल रहे हैं, हफ्ते में दो-दो ख़त, मुझे पहचाना क्यों नहीं होगा? मैंने तो उसे अपनी तस्वीर भी भेजी थी। किताब के सामने मुझे देख कर, वह हँसा भी था और आज ऐसा बर्ताव कर रहा है, मानो मुझे पहचाना ही नहीं। मेरा दिल टूट गया। उसके बदन पर पीले रंग की शर्ट, काली पैंट! कैसा राजकुमार-सा लग रहा था! पीछे से उसके घने काले बाल और उसके गोरे जबड़ों का थोड़ा-सा हिस्सा नज़र आ रहा था। उसे चूम लेने का मन हो आया।

ख़ाला मुग्ध हो कर नाटक देखती रहीं। मैं उनसे नज़रें बचा कर, बार-बार उसे ही देख रही थी! मैं अपने राजकुमार को देख रही थी। मैंने नाटक ज़रा-सा भी नहीं देखा। पूरे समय में बस, उसे ही देखती रही। नाटक ख़त्म होने के बाद, काफ़ी देर तक मैं गेट के क़रीब खड़ी रही! ख़ाला घर चलने की हड़बड़ी मचा रही थीं। लेकिन, मैं आसानी से हिलने वाली नहीं थी। मैं बस, उसे ही निहारे जा रही थी!

वह सौम्य नौजवान सीढ़ी पर खड़ा-खड़ा, दो अन्य नौजवानों से बातें कर रहा था। गेट पर खड़ी मैं, उसे निहार रही हूँ, उसने पलट कर एक बार भी नहीं देखा। यह कैसा अजीब मर्द है! एक अदद उन्नीस वर्षीया लड़की दिनोंदिन उसके लिए पागल हुई जा रही है, वह उसकी ख़बर भी नहीं रखता।

ख़ाला ने स्कूटर बुला लिया। एक साथ ही, मैं उसको देख पाने की खुशी और उसकी उपेक्षा का विषाद समेटे बेबी स्कूटर पर सवार हो गयी।

घर की तरफ़ जाते हुए मैंने ख़ाला से पूछा, 'अच्छा, ख़ाला, फ़र्ज़ करो तुम किसी से प्यार करती हो! बे-हद प्यार करती हो। लेकिन, वह व्यक्ति तुम्हें रत्ती भर भी प्यार नहीं करता। वह तुम्हारी तरफ़ पलट कर भी नहीं देखता। तब तुम क्या करोगी?'

'मैं भी पलट कर उसकी तरफ़ नहीं देलूँगी। अपना दिल कड़ा कर लूंगी।'

लेकिन मैं तो अपने को सख्त नहीं कर पा रही हूँ। मेरी कविताओं की कॉपी भर गयी है। सारी कविताओं में विषाद, दर्द, प्यार न पाने की पीड़ा! कभी-कभी मन होता है, ये कविताएँ, पत्र-पत्रिकाओं में छपा हूँ। शायद तब उसकी नज़र पड़े। शायद तब वह समझ पाये कि प्यार कितना गहरा है, जो मैं अपनी कविताओं में भी उसी के बारे में लिखने लगी हूँ। मेरे घर में बांग्ला की दो पत्रिकाएँ आती थीं। उन पत्रिकाओं के ठिकाने पर एक के बाद एक, मैंने अपनी कई कविताएँ भेज दीं। काफी दिनों बाद, उनमें से एक कविता छप भी गयी। कविता का शीर्षक था-नया पलटन!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book