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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...



क्लास शुरू होने में अभी काफ़ी दिन बाकी थे। यूनिवर्सिटी में यूँ अलस भाव से घूमती-फिरती हूँ। परिचितों के साथ झुण्ड बाँधकर इधर-उधर टहलती रहती हूँ। अभी तक यहाँ का माहौल मेरी समझ में नहीं आया था। झुण्ड भर छोकरे, इर्द-गिर्द खड़े हो कर, फिकरे उछालते रहते हैं। मुझे यह सब बिल्कुल नापसन्द है। मैं दाखिले, फीस, रुटीन वगैरह के कामकाज निपटा कर यथाशीघ्र घर लौट आती हूँ।

ख़ाला ने हिदायत दी, 'घूमा-फिरा कर! लाइब्रेरी के सामने मैदान में, लड़के-लड़की मिलकर अड्डा मारा कर! दल बाँध कर खाया-पीया कर। टी. ए. सी. की तरफ़ चली जाया कर। खूब यार-दोस्त बना ले। देखना, अच्छा लगेगा। अब तू छुटकी-सी नहीं रही। अब अक्लमंद हो चुकी है। दीदी की डाँट-डपट सुनकर, उदास मत हुआ कर। दीदी ज़रा कम पढ़ी-लिखी है। वह तो चाहेगी, तू ज़रा और सयानी हो जा, तो तेरा ब्याह कर दे। ख़बरदार, कभी राज़ी मत होना। मुझे देख, मैं भी बाकी लड़कियों की तरह गृहस्थी की घानी में पिसती रहती। लेकिन, ज़फ़र ने ही मुझे सीख दी-शरीफ़ा, तुम अपने पैरों पर खड़ी हो। किसी के आसरे-भरोसे रहने से बदतर शर्मिन्दगी और कुछ नहीं होती, शरीफ़ा!' यह कहते-कहते शरीफ़ा ख़ाला की आँखों में आँसू आ गये।

मुझे एहसास हुआ कि उस इन्सान के प्रति ख़ाला के मन में कितनी अपार श्रद्धा है।

छह महीने गुज़र गये।

मंसूर का कोई ख़त नहीं आया। उसे मुझे भूल ही जाना चाहिए। लेकिन भूलूँ कैसे?

उससे मेरी फिर टक्कर हो गयी। मैं महिला समिति द्वारा आयोजित नाटक देखने गयी थी।

ख़ाला दो टिकट ख़रीद कर घर आयीं और उन्होंने माँ के सामने ही मुझसे कहा, 'घर में बैठी-बैठी, तु कएँ की मेंढकी बनती जा रही है।' उन्होंने अपनी दीदी से मुखातिब हो कर कहा, 'सुनो, दीदी, उसे घर में बाँध कर मत रखो। ज़िन्दगी के बारे में, अन्त तक, उसे कोई जानकारी ही नहीं होगी। घर में बैठ कर, सिर्फ़ पोथी
पढ़-पढ़ कर ही ज्ञान नहीं बढ़ता।'

माँ ने जवाब दिया, 'असल में उसमें इतनी बुद्धि-शुद्धि नहीं हुई है कि अकेले-अकेले चले फिरे।'

‘उसे छोड़ दो। बुद्धि-शुद्धि अपने आप आ आयेगी।'

ख़ाला बहुत भली महिला हैं! आज़ाद महिला! घर-गृहस्थर सँभालती हैं, बच्चे पाल रही हैं, जब मन होता है, घूतीम-फिरती हैं, इश्क़ भी करती हैं, खुद कमाती हैं, किसी के सिर पर बैठ कर नहीं खातीं। ख़ाला को देख-देख कर मुझे ताज्जुब होता है। इस समाज में रहते हुए भी, ख़ाला कैसे तो ऐसी आज़ाद ज़िन्दगी बसर कर पाती हैं।

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