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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


मेरे अन्दर फिर वही तूफान शुरू हो गया। प्यार का तूफ़ान! अच्छा, इस मंसूर को पाया नहीं जा सकता? अपने बेहद करीब? यही सब सोचते-सोचते, मेरे हाथ-पैर, कैसे तो अवश हो आये!

मैंने मंसूर को एक ख़त लिखा। ख़त यूँ था-

"प्रिय नौज़वान, आप अतिशय खूबसूरत हैं। आपका मन भी क्या इतना ही खूबसूरत है? आपको शिद्दत से प्यार करने को मन करता है।

इति,

पुनश्च : अगर चाहें, तो मुझे ख़त लिखें।

ख़त के अन्त में पता भी लिख दिया! ख़ाला का पता। फ़ोन पर मैंने ख़ाला से भी बात कर ली है। उन्हें बता दिया है कि उनके यहाँ, मेरे नाम, कोई ख़त आ सकता है। इस ख़बर के बारे में, मेरे किसी घरवाले को पता न चले।

ख़ाला ने मुझे अभय दिया है।

'सुन, तू इस बारे में बिल्कुल फ़िक्र ना कर। कोई ख़त आते ही, मैं तुझे पहुँचा दूंगी।'

'ग्रेट! तुम ग्रेट हो, ख़ाला!' यह कहते हुए मैंने फ़ोन पर ही चकास-चकास दो चुम्बन जड़ दिये।

'पता है, कल तेरे ख़ालू ने क्या काण्ड किया? पन्द्रह सिडक्शिन निगलकर, मरने गया था। मैं फटाफट हस्पताल ले गयी, 'वाश' कराया और उसे ज़िन्दा घर लौटा लाई।'

'यानी ज़ाहिर है कि ख़ालू को तुम प्यार करती हो।'

'अरे, बुद्धराम, इसे 'प्यार' नहीं कहते। इसका नाम है, अपने को बचाना। वह साला मर जायेगा और मुसीबत मुझे झेलनी पड़ेगी क्यों मरा? क्या कहानी है? उसे क्या दुख था? वह मरता, अपने दुख से और इलज़ाम लगता मुझ पर!'

मंसूर को खत भेज कर, मैं जवाब का इन्तज़ार करती रही। ख़त नहीं आया। सात दिन गुज़रे, दस दिन गुज़र गये, ख़त नहीं आया। असल में शीला, मेरा ही नाम है; मैं उसी गाने के जलसे वाली लड़की हूँ; किताब की दुकान के सामने खड़ी, मैं वही लड़की हूँ-यह वात, मंसूर नहीं जानता है।

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