श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
इस बार मैंने अपनी फोटो समेत, दूसरा ख़त लिखा।
मैंने लिखा-
'एक दिन मैं 'पोथीवितान' के सामने खड़ी थी। आपने मेरी तरफ़ देखा था। मेरे अन्दर तूफ़ान जाग उठा था। कोई मुझे उस नज़र से निहारे और मैं तबाह न हो जाऊँ-ऐसा भला होता है? ऐसी खूबसूरती का तो पूजा करने का मन होता है। मैं नहीं जानती कि मुझे सुन्दर की पूजा करने का सौभाग्य मिलेगा या नहीं। मैं नहीं जानती कि सुन्दर को छू कर, अपना जीवन धन्य करने का सौभाग्य, मुझे इस ज़िन्दगी में नसीब होगा या नहीं। मंसूर, खत दो। झूठमूठ ही सही, तुम मुझे प्यार करते हो।
इति,
शीला!'
इस बार भी कोई जवाब नहीं आया।
मैंने ख़ाला से पूछा, 'तुम्हारा ठिकाना तो सही है न? एक बार देखो!'
ठिकाना बिल्कुल सही था, लेकिन ख़त नहीं आया। मंसूर किसी और को तो प्यार नहीं करता? मेरे ख़तों का उस पर बिल्कुल असर नहीं हुआ। ऐसा भी हो सकता है कि मेरे ख़त से उसके चेहरे पर कौतुकी हँसी खेल गयी हो और उसने मेरा ख़त कूड़े की पेटी में डाल दिया हो।
ख़ाला ने पूछा, 'क्या, री, तेरी चिट्ठी तो नहीं आयी। तूने कैसे हृदयहीन, पत्थरदिल को लिखा था?'
मैंने मन-ही-मन कहा-वाक़ई, पत्थरदिल ही निकला! पत्थरदिल न होता, तो मुझे यह दुर्भोग क्यों झेलना पड़ता? नहीं, ख़त तो मैं लिखती ही रहूँगी। जिसे प्यार करती हूँ, उसे क्यों न बताऊँ कि मैं प्यार करती हूँ। ज़रूर बताऊँगी। वैसे लड़कियों को जुबान नहीं खोलना चाहिए। उन लोगों को कुछ नहीं बताना चाहिए। अपने प्यार के बारे में खुद आगे बढ़ कर क़बूल नहीं करना चाहिए। लेकिन बताने या कहने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मर्दो की है, यह मानने को मैं राजी नहीं हूँ। यह क़बूल करने को मैं हरग़िज राज़ी नहीं हूँ कि मेरे भाव, मेरे आवेग, मेरे अन्दर ही उमड़-घुमड़ कर दम तोड़ दें और मैं राह में पलकें बिछाए, इन्तज़ार करती रहूँ कि मंसूर कब आयेगा, कब कहेगा-मैं भी प्यार करता हूँ। देरी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। मेरा मन नहीं मानता।
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