श्रंगार-विलास >> वयस्क किस्से वयस्क किस्सेमस्तराम मस्त
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मस्तराम के मस्त कर देने वाले किस्से
कामिनी नहाने के समय गहरे शारीरिक सुख का अनुभव करके आई थी, इसलिए उसका शरीर और मन इस समय गहरी नदी की तरह शांत थे। कुछ ही देर में उसका हाथ खेल में जम गया। खेलते-खेलते उसका ध्यान राजू के चेहरे पर गया तो वह समझ गई कि इस खेल में राजू को हारना अच्छा नहीं लग रहा था। राजू को यह नहीं मालूम था जब से यह खेल कामिनी के पास आया था, इस पर वह लम्बे समय से हाथ आजमा रही थी। इस समय तो शारीरिक और मानसिक रूप से तृप्त कामिनी का दिमाग और उसके हाथ बिलकुल सधे हुए खिलाड़ी की तरह एकदम सही-समय पर सही अटैक कर रहे थे।
पहले तो कामिनी का मन हुआ कि राजू को खेल में अच्छी तरह हरा दे, फिर उसने सोचा एक उभरते नवयुवक के साथ ऐसा करना ठीक नहीं होगा। इसलिए वह सावधानी से खेलते हुए, लेकिन फिर भी जानबूझ कर गलतियाँ करने लगी। वह आसानी से राजू को हरा सकती थी, लेकिन वह बार-बार आखिरी समय गड़बड़ कर देती, ताकि राजू जीत जाये। उसने अनुभव किया कि राजू में धीरे-धीरे आत्मविश्वास लौटने लगा। उसकी भाव-भंगिमा बताने लगी कि खेल कठिन होने के बाद भी अब वह इसमें वाकई मजा लेने लगा था। इसके पहले तो वह अकेले खेलता था। उसमे जीतना-हारना सब एक बराबर था। राजू को आंटी अपनी प्रतिद्वन्द्वी लगने लगी।
कामिनी हार कर जीतने का आनन्द लेने लगी। खेल लगभग दो घंटे चला। राजू ने अनजाने में कामिनी को एक नया उपाय सुझा दिया था। लंच का टाइम हो रहा था, इसलिए कामिनी ने राजू से पूछ लिया कि वह भोजन करके आया है कि अभी करने वाला है। राजू ने उसे बताया कि उसकी माँ कुछ बनाकर रख गई है।
कामिनी ने रसोई में जाकर अपने लिए तवे पर देसी घी के पराठे बनाए तो उनकी खुशबू बाहर राजू तक भी पहुँच गई। शायद उसे यह खुशबू अच्छी लगी थी, इसलिए उसने आकर कामिनी से पूछ लिया कि वह क्या बना रही है। कामिनी समझ गई राजू का भी कुछ खाने का मन हो आया है। उसने दो अच्छी तरह सिके हुए खरे-खरे परांठे और दही राजू को परोस दिये। राजू को घी के पराठे इतने पसंद आये की वह उंगलियाँ चाटने लगा। उंगलियाँ तो उंगलियाँ राजू अपनी और भी बातें कामिनी को बताने लगा। उसकी बातें सुनकर कामिनी का दिमाग कुछ और चलने लगा। अचानक एक 13-14 साल के लड़के ने कामिनी को जीवन के दो अत्यंत महत्वपूर्ण गुर याद दिला दिये। कामिनी समझ गई कि उसे क्या करना चाहिए था।
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