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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


वह खड़े-खड़े सुराही को मुंह में लगा कर पानी गटक डालती, आवाज करके डकार लेती, सोती भी तो थी तो, उसका नासिकागर्जन इस घर के सदस्यों के लिए परिहास की वस्तु बन गई।
प्रभा के विषय में व्यंग्योक्ति साक्ष्यप विपरीत और निर्मला की स्तुति। उसके प्रति श्रद्धा, सम्मान, स्नेह की बौछार होती रहती।

इस परिस्थिति में प्रभा को और भी लड़ाकू अशालीन और प्रबल बना दिया।
उसने सास-ननदों से झगड़ा, बात-बात पर मुंह पर जवान लड़ाना शुरू कर दिया।
प्रभा घर की महरियों के प्रति ऐसे कटु वाक्यों की झड़ी लगती जो इस परिवार के लिए अजीब बात थी। ऐसा कभी ना हुआ था।
मैं उसके प्रति घृणा प्रकाश करता और प्रभा भी उस घृणा को प्रेम में परिणत करने की जी-तोड़ कोशिश में लगी रहती।

उसके पास हथियार रूप में तो सिर्फ यौवनमय शरीर था जिसे वह प्रयोग करने में जुटी रहती। काजल से मुझे चिढ़ थी। प्रभा अंखियों में काजल लगाती और अपने शरीर को और भी अधिक प्रलोभित करके पेश करती जो हमारे जैसे सनातन परिवार की वधू के लिए घृणित था। मुझे भी अच्छा नहीं लगता था। एक दिन उससे यह कहा था, ''तुम इतनी सजधज कर जाती हो कोई तुम्हें देखे तो शर्म नहीं आयेगी। मैं तो लाज से पानी-पानी हो जाता हूं।''
मैंने यही सोचा था वह भी शर्मायेगी पर उल्टे ही-ही कर हँस के बोली, ''आहा-सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली। कहते हैं पंक्षी नहीं, मारता, धर्म में मन रमाया, तुलसी का माला गले में डाल कर वृन्दावन चला जा रहा हूं। तुम्हारी कैसी लाज तुम्हारे बारे में मुझे सब पता है। उन मोहल्लों में जाने की कहानी भी मैं जान गई हूं।''
मैं भी गुस्से से आगबबूला ओ गया। उसी आग से बोल पड़ा, ''इतना कुछ जान ही चुकी थी तो ब्याह के लिए राजी क्यों हुई?''

प्रभा ने व्यंग्य बाण छोड़ा, ''फिर सुनने में आया कि बाबू संन्यासी बन गये हैं। और बाबू को वैराग्य पथ से एक यौवनमती नारी ही वापिस ला सकती है। मैंने भी सोचा मैं ही ऐसी नारी साबित हो सकती हूं या नहीं।''
मुंह में यह वाक्य आ गये। शक्ति की परीक्षा कर क्या पाया। मुट्टी में कर सकी? लेकिन यह भी सोचा इस बात में दम नहीं है क्योंकि शुरू में तो शरीर की सुधा शान्त करने को सब लाज-शर्म के बंधनों से छिन्न-भिन्न कर छाला था।
तब इसी प्रभा ने ही चिढ़ाया था, बाबू तो संन्यासी बनने चले थे। ऐसे ही होते हैं संन्यासी?
मैं भी हँस कर बोला उठा-वैरागी भी तो किसी कारण से होना पड़ता है। 

प्रभा ने कहा था-वही तो लगता है। नहीं तो वैराग्य के लक्षण तो कहीं भी नजर नहीं आते।

मैंने कहा समझ गई। फिर उसे कुछ कहने ना देकर उसके मुंह को अपने मुंह से बन्द कर डाला।

प्रभा के कोष में यह सब उपकरण मौजूद थे तभी तो वह सब कुरेदने से तो मेरे ही दुर्बल क्षणों का हिसाब देना पड़ जायेगा।
अगर मैं उसे ज्यादा कुछ पूछूं तो वह मेरे ही कारनामों का पर्दाफाश करके मुझे लज्जा से जमीन में गाड़ कर रख देंगी क्योंकि मैं ही तो उसके वासनामय पलों का सहभागी रह चुका था।
परन्तु मेरी सहनशक्ति की सीमा जबाव दे चुकी थी। प्रभा जितना मुझे वैरागी से अनुरागी बनाने की जी जान से कोशिश में लगी थी उतना ही मैं उनसे दूर भागता था। प्रभा को मेरी जीवन-संगिनी के रूप में सोचना ही मेरे लिए एक घृणित विषयवस्तु बनती जा रही थी।

मेरे मन में परिवार के बारे में जो कल्पना थी वह ऐसी थी-जिसे शायद आप ना मानें या जो आपके विश्वास से परे हो फिर भी मैं बताऊंगा। परिवार होना चाहिए, सुन्दर, सुरुचि सम्पन्न, घर साफ-सुथरा तथा रुचि के अनुसार साज-सज्जा भी हों। जिसमें नाना प्रकार की सुख-सुविधायें मौजूद हों और जिसमें एक आधुनिक गृहणी का निवास होगा जो अपने पति के दोस्तों का आवाभगत करे, पति के साथ बाहर आ-जा सके, और शिशु पालन में आधुनिक पद्धतियों का अनुसरण करे ना कि अपने दादी, नानी के बताये रास्तों पर चले। उसमें शास्त्रीय लक्षण एक आदर्श गृहणी के हों जो पति की सहकर्मी, सखी तथा प्रिय शिष्य होती है जिसमें सोलह कलायें पूर्ण रूप से विद्यमान हों।
जो भी हो मात्रानुसार हो।

मैं भी मात्राहीनता कर बैठता। वह भी उसी संगिनी की प्ररोचना से। वह मेरी सच्चे अर्थों में सहधर्मणी ना थी, उसे मैं वह दर्जा कभी ना दे पाया। जो भी हो मेरे मन में जीवन-संगिनी की कल्पना थी जिसके हिसाब से मैं सूक्ष्म, सुकुमार, आदर्श, उज्ज्वल जीवन-संगिनी मेरी आदर्श थी।
प्रभा क्या उस पलड़े पर खरी उतर पाई?
प्रभा कामवालियों से ऊंचे स्वर में झगड़ा करती, वह अपनी जिठानियों से भी वाद-विवाद करती, और अपनी बूआ की लड़की को बुरा-भला करती रहती।

एक दिन मैंने सुना प्रभा चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, ''अपनी ममेरी बहन का ऐसा सर्वनाश तुम कैसे कर सकीं? तुम्हें इस पाप की सजा मिलेगी।
हाथों, पैरों में कोढ़ और भयंकर बीमारी से तुम जमीन पर पड़ी रहोगी, कोई भी तुम्हें तीनों कुलों में से एक बूंद पानी मुंह में डालने तक नहीं आयेगा।"
सुनकर मैं तो सकते में आ गया। बड़ी भाभी जो निर्मला की ही तरह शान्त और गऊ जैसी सीधी थी (जिन्होंने निर्मला को शिक्षा दी थी)। उन्हें इस प्रकार से गाली-गलौज और श्राप दे रही थी। सिर्फ उन्हीं को ही नहीं। उनके छः-सात लड़के लड़कियां भी थे उन्हें भी वह मारे डाल रही थी।
बड़ी भाभी एक व्यंग्य की हँसी हँसके बोल रही है, "तीनों कुल में ही कोई ना रहे तू, तो रहेंगी।"
प्रभा-"अच्छा। मैं तो तुम्हारे गुणवान देवर के साथ निर्वाह कर जिन्दा रहूं तभी?"

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