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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


मैं मन-ही-मन बोला-तुम टिको या ना मैं तो यहां नहीं रहूंगा। मेरे यहां की गृहवास की समाप्ति घटने जा रही है।
मैं करीब डेढ़ बरसों से यहीं था। हां, पारिवारिक कारोबार के सिलसिले में बीच-बीच में दो-चार दिनों के लिए कलकत्ता जाता था। अब यहां से पत्ता काटना है।
ताया जी को बताया-मैं कलकत्ता जा रहा हूं। वह बोले-उस दिन गये-अब फिर। '
मैंने कहा, "और जबरदस्ती करके ही कहा यहाँ तय किया है वहां पर ही रहूंगा।"

ताया जी ने भौंहें सिकोड़ी। फिर गम्भीर स्वर में बोले-"अच्छी बात है घर से एक पुरानी दासी को ले जाना, मैं मानदा की मां के जाने का बन्दोवस्त किये देता हूं।"
दासी, पुरानी दासी इस बात का अर्थ मैं ना पकड़ पाया। मेरा वैराग्य, कृच्छसाधना, स्वपाक सब परिहास के विषय बन गये हैं, फिर पुरानी बुराई की बात ही वे ज्यादा करके याद रख रहे हैं?
कलकत्ते में जाकर ही मेरा चरित्र खराब हो जायेगा तभी मुझ पर पहरा देने के वास्ते एक बूढ़ी दासी को भेज रहे हैं।
अचानक यह भी ख्याल आया था कि मेरी मां को भी तो भेजने की बात कह सकते थे। इसका मतलब था उनकी नजरों में परिवार की कीमत बेटे से ज्यादा थी। चाहे वो गलत रास्ते पर जाता है तो जाये।
मतलब 'पति पुत्र' कहकर जितनी भी बड़ाई करे, औरतों का मूल्यबोध दोनों के प्रति समान नहीं रह सकता।

मैं खिजिया गया-वह मानदा की मां क्या करेगी? उसे ले जाकर मैं क्या करूंगा? ताया जी झुंझला गये-तुम्हारे लिये नहीं नई बहू को तो जरूरत पड़ेगी।"
नई बहू है, प्रभा को उद्देश्य कर।
निर्मला मझली बहू थी, प्रभा को भी उसी पदवी पर आसीन होना चाहिए था पर किसी ने भी उसे उस आसन पर नहीं बिठाया।
हालांकि मेरे नौमें चाचा की दूसरी पतनी को सबने उनके अनुरूप सम्मान दिया है, हम उन्हें नौमी चाची कहकर बुलाते हैं।
जो भी हो नई-बहू सुनकर समझ गया ताया जी मेरे कलकत्ता वास का अर्थ पत्नी को साथ ले जाने का लगा रहे हैं।
ताया जी की आधुनिकता पर मैं हँस सकता हूं इतना तो अधिकार है-"आपकी नई बहू कहीं नहीं जा रही वह स्वस्थान में ही वास करेंगी।''
क्यों? ताया जी ने पलटकर पूछा, "यहां तुम हमेशा नहीं रह पाओगे इसका तो पक्का पता था पर वहां तुम्हारा परिवार क्यों नहीं जायेगा?"

''मेरी इच्छा नहीं है।''
ताया जी कुद्ध हो गये-पृथ्वी को सब तुम्हारी इच्छानुसार नहीं चल सकता।
अगर जाओ तो बहू को ले जाना ही होगा।
समझा यह था कलकत्ते में वास के विरोध, क्रोध का प्रदर्शन। फिर यह प्रश्न हर ओर से छिड़ा।

कलकत्ते में रहने का अर्थ ही था घर, पत्नी-जिसके पक्ष में कोई अपना मंतव्य जाहिर करता तो कोई उसके विपक्ष में कहता।
किसी ने कहा, "ओह इसका मतलब बीवी को लेकर शहरी बनने जा रहे हो?"
कोई कहता, "जाते हो तो जाओ पत्नी को लेकर ही जाना चाहिए।''
मां ने भी ऐसा ही कुछ कहा।
मैं बोला, "जिसके भय से देश त्यागी बनने चला था उसी कंधे पर लाद कर ले जाऊं?"
मां बोली, "जब भार लिया है तो तब ले जाना ही पड़ेगा।''
विभूति जो मेरा चचिया भाई था उसका प्रसंग छेड़ा। विभूति तो छोटी बहू को कानपुर ले कर नहीं गया।?
मां ने सार में कह डाला, "उसकी बात और है।"
क्यों, अलग क्यों?

मां थोड़ा चुप रह कर धीरे से बोलीं, "उसके प्रति किसी को कोई शक नहीं है।"
''उफ इसका मतलब मेरे प्रति शक करते हैं।"
मां चुप रहकर बोली, "अगर हो भी तो बेवजह नहीं है।"

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