नारी विमर्श >> अधूरे सपने अधूरे सपनेआशापूर्णा देवी
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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...
तभी तो निर्मला की उस तस्वीर को देख सकते में आ गया जिसे सोने के पानी वाले
फ्रेम में मढ़वाया गया था। इस प्रकार का घूंघट बिना और चमकता चेहरा जो मेरी ओर
ही देखे जा रहा था शायद मुझे वह उच्चलोक से अपनी महिला से कोई श्राप दे रही
हो।
निर्मला का ऐसा चेहरा जिसमें जरा भी नुक्स ना था मैं अब देख पाता था। उसका
प्रवेश तो मध्यरात्रि की लालटेन की रोशनी में होता था। जिसकी सिखा इतनी कम
होती थी जिससे वह एक मटमैली छाया नजर आती थी।
और दिन में तब तो मुंह देखना निषेध था। अचानक बड़ों पर बहुत गुस्सा आया। मुझे
जो प्राप्त होना चाहिए था उससे मुझे वंचित किया गया था-सिर्फ अर्थहीन कुछ
नियमों की वजह से।
मुंह दिखाना पाप है, मुंह दिखाना दोष है और अब ससुर, जेठ, पति, आत्मीय,
आनात्मीय सभी को तुम्हारे घर की बधु अपना चेहरा नहीं दिखा रही? माथे पर चेहरे
पर अवगन्ठन नहीं, आँखों में जाल नहीं, पिता जी ने इस तस्वीर को अपने कमरे में
लगा दिया। पिताजी के साथ संवादहीन सम्बन्ध था तब भी वह इतनी सम्मानित और
प्रिय हो गई कि उसकी मृत्यु के बाद पिता ने पुत्र से सम्बन्ध-विच्छेद ही कर
डाला।
उस पुत्रवधू की असमय अस्वाभाविक मृत्यु का दोषी वह अपने पुत्र को ही मानते
थे।
परन्तु निर्मला की अवगुन्ठनहीन तस्वीर पिता के कक्ष में क्यों?
माता का कहना-फिर क्या तुम्हारे कमरे में रहेगी? उसकी जरूरत नहीं
है नयी बहू डरेगी, दुःखी होगी। देखते नहीं अचानक देखने से यही लगता है कोई
जीवित इंसान देख रहा हो।
लेकिन कब तस्वीर खिंचाई? इस प्राचीन-पन्थी माहौल में नवीन माहौल? इसका इतिहास
बाद में सुना। पता नहीं कब मेरे मझले चाचा के दामाद ने किसी कायदे के समय
खींचा था। वह कैमरा चुपके से लाया था और बड़ों की अनुपस्थिति में छत के
तिमंजिले पर निर्जन में हँसी-मजाक में रत कुछ युवतियों का चेहरा उस कैमरे में
बन्द कर डाला। उन्हें पता ना था तभी तो उनकी आंखों में, चेहरे पर हँसी की आभा
बिखरी थी। शायद उस छोकरे का लक्ष्य स्थल था स्वयं की नवपरिणीता पर उसे तो
पाना मुश्किल था तभी उस समूह से ही, उस मंडली से ही निर्मला की तस्वीर को अलग
से बड़ा करवाया गया।
इस परिवार की सबसे स्नेह और प्रिय पात्री वधु को दीवार पर सबकी नजरों के
सामने सुगन्धित पुष्पहार पहना कर रख दिया गया।
मेरा मन डोल गया, हिंसा भी हो रही थी, गुस्सा भी आ रहा था जैसे किसी ने मेरी
सम्पत्ति को दखल कर लिया हो।
प्रभा के अन्दर भी आलोड़न की सृष्टि हुई। तभी तो सुहागरात की सेज पर उसने
वाचाल की तरह प्रश्न किया, ''जिसकी इतनी सुन्दर पत्नी थी उसने मेरी जैसी काली
कलूटी से क्यों शादी की?''
इस बात में दम न था। निर्मला की तरह ना सही पर वह भी सुन्दर थी। अपनी प्रशंसा
शायद सुनना चाहती है? मैंने हँस कर प्रश्न किया, ''क्यों तुम्हारे घर में
आईना नहीं है?''
क्यों नहीं होगा। प्रभा का गला भर आया था। ''तुम्हारे घर में आने के बाद से
ही दूसरे प्रकार का आईना देखती जा रही हूं पहले वाला भूल गई।''
प्रभा का बात करने का तरीका बड़ा सुन्दर लगा। वह वाकपटु थी। हँसकर कहा, इस
कमरे का आईना पर दूसरी जवान बोलेगा जिसके साथ तुम्हारे पहले वाले में समानता
है इसे तुम खुद ही जान जाओगी।
''क्या पता जिसकी इतनी रूपसी स्त्री को गले में फांसी डालनी पड़ी उसे कैसे
विश्वास करे?'' प्रभा रूखेपन से बोली।
मैं जैसे किसी धक्के से तड़प उठा। गले में फांसी वाली कहानी अभी से नई बहू के
कान में डाल दी गई है सोच कर गुस्से से शरीर कांपने लगा। फिर ख्याल आया प्रभा
तो हमारी बड़ी भाभी की ममेरी बहन है।
मैंने अपने आपको संभाल कर कहा, ''सभी अपने कर्मफल से मरते हैं या जीवित रहते
हैं।''
प्रभा ने खुले गले अट्टहास किया-''यह तो साधु-सन्तों जैसी बातें हैं।''
मैं इस हँसी का भागी ना बन पाया। सिर्फ यही लगा कि यह लड़की बड़ी ही तेज है।
शायद हँसी की आवाज बड़ों के कानों में भी जा रही है।
मैंने उससे जब यह कहा कि बड़े अगर इतने जोर से हँसी की आवाज को सुन लें तो,
उसका जबाव कुछ इस प्रकार था, ''बड़े-बूढों की वजह से हँसना बन्द करना करना
होगा यह इस युग में नहीं चल सकता।''
हां, सुहागरात वाले पल में ही प्रभा ने मुझे युग के दर्शन करा दिये, मुझे
आश्चर्य में डाल दिया।
फिर कुछ दिनों तक तो मैं एक नशे में मगन रहा, इस औरत को जो तांबे की धातु की
तरह सख्त थी उसे जितना भी निष्पीड़ित करो वह और भी अधिक निष्पीड़ित होने का
आग्रह करती। वह किसी प्रकार के यौनसंगम के लिए प्रस्तुत थी।
तब मुझे यह समझ में आने लगा मां ने किसलिए भावी वधू के बारे में बताते समय
इतने कठोर लफ्जों का इस्तेमाल किया था। क्यों ताया जी ने अधिक्कार एवं
भर्तस्ना के लहजे में कहा था, ''वधू सर्व प्रकार से तुम्हारे योग्य चुनी है
हमने।''
इसका मतलब था सबने मुझे अच्छी प्रकार से जान लिया था और प्रभा को भी परख लिया
था।
सोचा था-''विषय बिषमोषधम्, सम समं समयति।'' या उन लोगों ने वैरागी होने वाले
बेटे के लिए एक मजबूत-सी लोहे की बेड़ी ला दी थी।
जब स्वयं से पूछा तो मेरे मन ने उत्तर दिया मैंने प्रभा जैसी लड़की की कामना
नहीं की थी। ऐसी लड़की मेरी रुचि के विरुद्ध थी। प्यार का एक ही रूप एक ही
अर्थ जिसे पता है। यह कुरुचिहीनता थी।
इसके अतिरिक्त उसमें एक स्वाभाविक कोमलता या शालीनता का भी अभाव था। वह इस
कमरे में आने के बाद अपनी समस्त सभ्यता एवं शालीनता उतार कर फेंक देती थी।
उसे जैसे इन सबका अधिकार था।
यह मेरे लिए असहनीय था। प्रभा का आचार-व्यवहार अत्यन्त स्थूल था।
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