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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


मां ने अचानक मुंह को सामने घुमाया तो मां की अश्रुभरी अंखियों में अग्नि की दहन ज्वाला दिखी। मां ने तिरस्कार भरे लहजे में मुझे लताड़ा। साधुपना तो तेरा छल है।
छल!
मैं भी जैसे जड़वत हो गया या बुद्धू बन गया। जिस मां की तरफ कभी सीधे देखा नहीं, कभी भी उन्हें मनुष्य की श्रेणी में नहीं रखा उन्हें अचानक जोरदार स्वर में बात करते देख मुझे बिजली का सा झटका लगा।
मां भी दृढ़ स्वर में बोली, मैं तेरी मां हूं मैं नहीं जानती अब मैं हँस सकता था। कठोर व्यंग्य की छलनी से मातृगरिमा का छेदन कर सकता था या अवहेलित दृष्टि से देखकर वहां से जा भी सकता था।
पर नहीं क्यों उसी वक्त सुबह की वह घटना मेरी नजरों में आकर ठहर गई।
किचन के पीछे उस कंडे की छोटी कोठरी के दरवाजे के सामने जिस दृश्य को देखा था पता नहीं फिर भी मुझे यही लगा शायद ऐसी किसी दृश्यावली से मेरे को सामना होना पड़ेगा।

अगर मैं तीखे व्यंग्यवाणों की बौछार करूं या अपना रौब दिखाऊं तो वह कठोर, क्रुर, भयंकर और भद्दा दृश्य किसी भी छत से झूल कर मुझे चिढ़ा देगा। तभी तो मैं बुद्धू बन गया, मां के इस नये रूप को निहारकर। मां को कहना था साधु का भेष त्यागो। शादी तो तुम्हें करनी ही है। वंश का नाम मिट्टी में मिलाकर तुम मनमानी नहीं कर सकते।
मां ने फिर से अपना चेहरा दूसरी ओर करके कहना शुरू किया, ''काफी खोज के बाद तुम्हारे लिए 'पद्यिनि' कन्या को बधुरूप में वरण किया था, तुमने उसकी महान्ता को ना समझ उसे ठुकराया, ठीक है, अब तुम्हारी पसन्द के अनुसार ही 'हस्तिनी' कन्या आ रही है उसे किसी ऐसी परिणति के लिए बाधित ना करना।''
मैं चुप कर के रह गया। कई आलतू-फालतू किताबें मैंने भी पढ़ डाली हैं, 'हस्तिनी', 'पद्यिनि' भी मैं जानता हूं पर मां भी इतना सब कुछ जानती है यह मेरी धारणा के बाहर की बात थी।
इसके अलावा-जिस मां ने कभी भी 'अपना बेटा' जैसा वाक्य कभी उच्चारण भी नहीं किया था और अपने जेठ या देवरों के बेटों से जरा भी मुझे प्राधान्य ना दे पाईं थीं, उन्होंने मुझे इतना पढ़ा रखा है यह तो जैसे मेरे लिए अद्भुत ही था।
मैं क्या हूं या मेरी चाहत क्या है इस सम्बन्ध में घर के मालिक भी अवगत थे। तभी तो उस जानकारी की वजह से मेरी परवाह ना कर कहां से 'हस्तिनी' कन्या ढूंढ लाये हैं।
मेरे अन्दर लज्जा का लेश ना था। घर सचमुच उस दिन मैं भी शर्म से जमीन में गाड़ा जा रहा था।

लगा मेरे सब आवरण खोल कर किसी ने उजाले में खड़ा कर दिया हो। कितने शर्म की बात थी। हाय लज्जा-कितना कलंकमय दृश्य था। उतनी लज्जा तो मुझे निर्मला के मृत्यु-दृश्य पर भी नहीं आई।
तय किया। मेरी बातें टेप कर रहे हैं? कुछ भी नहीं छोड़ियेगा। तय किया उनके घमण्ड का उचित जबाव, वह था-उनकी हस्तिनी योगवस्तु कन्या का अपमान कर वहां से निकलना, भाग जाना। उस कलकत्ते में नहीं बहुत दूर। पहाड़-पर्वत जहां भी दिखा देना पड़े अतीस बोस सर्वस्व त्याग कर साधु बन। सकता है।

यह दृढ़ संकल्प भी कर डाला। घर के सब लोगों के साथ मुलाकात करके ही रातोंरात भाग जाऊंगा। पिता जी मिले। उन्होंने तो शारीरिक कुशल पूछ-पाछ कर काम खत्म किया। चाचा लोगों ने सिर्फ कारोबार के बारे में बातचीत की। बड़े भाई अपने नये व्यवसाय के बारे में बताकर उल्लास का अनुभव कर रहे थे।
सिर्फ ताया जी सुत्रगम्भीर गले से बोले, ''अगले महीने की चार तारीख को तुम्हारा ब्याह का दिन है-जब आ ही गये हो तो इस बीच कलकत्ते से जाने की आवश्यकता नहीं। फिर थोड़ी देर हुक्का गडगड़ा कर बोले, ''पात्री तुम्हारी बड़ी भाभी की ममेरी बहन है। स्वास्थ्यवती, कुछ पढ़ना-लिखना जानती है। सब प्रकार तुम्हारे अनुरूप है।''
कह कर फिर से हुक्का पीने लगे। ''सर्व प्रकार मेरे अनुरूप वाक्य में क्या मेरी भर्त्सना थी, या मेरे प्रति धिक्कार, तभी मेरा दिल दहल गया, मुंह से वाक्य ना सरके। नहीं तो मैं अनायास ही कह सकता था। आप लोग तो स्वयं भी बना रहे हैं, स्वयं ही तोड़ रहे हैं। दिन तय करने से पहले मुझे एक बार भी बताना उचित ना था?'' कह ना पाया।

यद्यपि मेरी प्रकृति तो ऐसी ही थी जिसमें ऐसा कहना स्वाभाविक था।
लेकिन जो मेरी प्रकृति में था कुछ अप्रासंगिक बात कह डालना, मैंने कुछ और ही अप्रासंगिक प्रश्न किया,  ''उन्हें दूसरे विवाह में कोई ऐतराज तो नहीं है?'' कह कर ही जैसे घड़ों पानी गिर गया। पर ताया जी ने तो मखौल की हँसी नहीं छेड़ी बल्कि बड़े शान्त भाव से बोले, ''नहीं है, होता तो बात ही क्यों बढ़ाते।''
मैं कुछ पल बुद्धू की तरह खड़े होकर देखकर खिसक गया। बाद में ख्याल भी आया था सबसे बड़ी युक्ति मेरे अस्त्र रूप में थी। मैं उसी का ही प्रयोग ना कर सका। मैं ही तो इस बात पर बल दे सकता था कि अब मेरी इच्छा फिर से गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की नहीं रही, मैं दूसरे ही जीवन का वासी हो गया हूं।''

असल में यह वाला कौशल तो मैंने खो दिया था क्योंकि मेरा मन, देह सब प्रतीक्षा कर रहे थे। एक उद्दाम यौवन की जो आकर सर्वस्व अर्पित करे।
मैंने जब मां से प्रतिवाद का प्रहसन किया तब क्या मेरी पूरी अनुभूति में एक उन्मादपूर्ण सुर की लहर नहीं छिड़ी थी। और जब ताया जी ने गम्भीर स्वर में ऐलान किया, ''व्यस्का, स्वास्थ्यवती और पढ़ी-लिखी'', तब क्षण भर के लिए छाती पर हिम का पहाड़ जमने लगा पर उसी हिमानुभूति के अन्तराल में एक वासनामय उत्ताप की अनुभूति में खत्त में हिलौरें मारने लगी थी।

तभी तो अगले महीने की चार तारीख तक मैं रहा, और मुझे हीरा बनाकर कुछ समय पहले जिस नाटक का मंचन हुआ था उसी का पुन: अभिनय किया गया। मैंने भी नाटक के हीरो का पार्ट दक्षता से पालन करके दिखाया था।
वही मुकुट, सेहरा, जयमाला, शुभूदृष्टि, सात फेरे, सम्रदान सभार में पिछली कार्यवाहियों जैसा ही अनुष्ठान। उसी प्रकार सखियों की बोलचाल उत्तर, प्रत्युत्तर सभी पुनः-पुन: होते चले गये। केवल नायिका ही बदल गई थी।

उस परिवर्तन से क्या मैं आहत थी। आप लोग कहेंगे मुझे होना चाहिए था, इन्सान का दिल हो तो मर्मस्पर्शी होगा। पर मैं तो पहले ही बता चुका था, यह मेरी जवानबन्दी है। जिसमें कुछ भी छिपाना या उसे सुन्दर-सी चादर में लपेट कर पेश करना मेरी मानसिक अवस्था में नहीं हैं तभी तो स्पष्ट रूप से कहता हूं जैसा दुखी मुझे होना चाहिए था या सब चाहते, मैं ना हो पाया। या हो ना सका। मेरी अवरुद्ध कामना, मेरी प्रतीक्षा मुझे क्षिप्त किये दे रही थी। नये चेहरे को कल्पना के आईने में देख कर मैं उसी में डूबा था। उन रीति-नीति, समारोह में जितना उसका देख रहा था उससे और उद्दाम हुआ जा रहा था, क्योंकि प्रभा निर्मला की तरह भीरु, क्षीण किशोरी नहीं थी। बल्कि परिपूर्ण नवयौवना, सभी कलाओं में पारंगत।
इसका मतलब यह तो नहीं था कि मैंने निर्मला को जरा भी याद नहीं किया, इन नियम विधि विधानों के मध्य भी एक प्रकार का विषद, दिल पर बोझ और अपने दर्द भरे निश्वास द्वारा उसे हर पल श्रद्धांजलि अर्पित करता जा रहा था। जब हम दोनों को निर्मला की बड़ी-सी तस्वीर के सामने ले जाया गया, (तस्वीर को बड़ी-सी माला से सजाया गया था।) 'और उसे प्रणाम करने को कह, यह भी आदेश मिला कि प्रार्थना करो मैं तुम्हारे पैरों की धूल बन सकूं-उस वक्त पता नहीं नववधू के मन में किस रस का संचार हुआ होगा पर मेरा मन तो एक खालीपन के भाव से बोझिल हो गया था।
पता नहीं कब निर्मला की यह तस्वीर खींची गई थी? मुझे यह भी पता ना था की कभी उसकी कोई छवि भी थी सिवाय ब्याह के वक्त खींची गई धूमिल-सी दूल्हा-दुल्हिन की छवि के अलावा।

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