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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


''पर गृहस्थी सब उजाड़ कर तुम ऐसा कौन-सा काम करती हो?''
वह हँसी से लोट-पोट हो गई-वह क्या है? रसोइया खाना बनाता है, नौकर-महरी हैं वे सब अपना-अपना काम करते हैं, बेबी की देखभाल आया करती है-''मैं अपना काम बन्द करके गृहस्थी के किस पुर्जे पर तेल लगाऊंगी?''
हँसा-सबका तो सब है-मेरा कौन कहां है? पौली के साथ बात करने की इच्छा जगी थी तभी तो ऐसी रसभरी बात कही।''
पीली अचानक कड़वे गले से जहर उगलने लगी-''क्यों है क्यों नहीं? सुन्दर तरुणी, है-बच्चे को लेने के बहाने उसे भी खींच कर अपने आलिंगन में बांध सकते हो।''
मेरा ना जाने कहां से पागलपन का दौरा पड़ा, मैंने सब कुछ भुलकर पीली के गाल पर कस कर एक तमाचा जड़ दिया।

सिर्फ एक सैकिंड उससे ज्यादा समय नहीं हुआ, एक प्रलय घट गया। चांटा जड़ते ही पौली का जरी का सुन्दर नागरा का एक जोड़ा मेरे गाल पर आ पड़ा। नागरे का जोड़ा मैं कुछ दिन पहले दिल्ली से खरीद कर लाया था, पौली उसे पहन कर कालीन पर चलेगी यही सोचा था। पौली ने ऐसे गरजना शुरू कर दिया जैसे किसी सर्पिनी के पूंछ पर पैर पड़ने से वह हिसहिसा कर अपना आक्रोश जताती है-''चांटा मेरे गालों पर-जे.एन.पाइन की बेटी के गाल पर चांटा, तुमने सोच क्या रखा है। मेरे पिता के कारण इतना ऊपर चढ़के अपने आपको क्या समझने लगे हो? तुम्हारी दुष्टता पर मुझे घृणा होती है। नौकरानी से प्रेम करोगे, और मुझे नीति उपदेश देने आते हो-उसे मैं विदा करके ही छोड़ूंगी''-यह कहकर वह चली गई। हां, आग की तरह जलती-जलती ही।

तब मैं यह ना सोच पाया था पौली ऐसा काण्ड कर सकती है। पौली हमेशा एक संयमित व्यवहार का प्रदर्शन करती आई थी। थोड़ा बहुत ड्रिंक करती थी, उसके पिता ने ही बचपन से प्यार से अपने साथ पिला कर उसमें यह मद्यपान की आदत डाल दी थी।
आजकल यह आदत जोर पकड़ने लगी थी। मना करने से फल नहीं निकलता था। इसीलिए मैंने छोड़ दिया था। लगता था मद्यपान की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी।
उसने जो खतरनाक काम किया उसे पागल या मद्यम के अलावा कोई और नहीं कर सकता। अन्दर से पौली अपने पिता से मिले उपहार को जो एक चाबुक था जिससे कुत्तों को काबू में लाया जाता है; लाकर उस आया की पीठ पर बरसाने लगी।
भयानक चीख, भयानक गर्जन, कई लोगों की एकसाथ बातचीत, बेबी का रुदन सब मिलाकर वह घर नरक का डेरा लगने लगा। मैं अन्दर जाकर उस दृश्य को देख कर स्तम्भित हो गया।

उस दृश्य के आमने-सामने मुझे होना पड़ा था जो मेरी धारणा से परे थी। पर चले भी आना पड़ा बिना किसी शब्द का प्रयोग करे। पौली का स्वरग्राम उच्च-उच्चतर चला गया-साहब के साथ इश्क-मैं घर में नहीं रहती तो जो मर्जी आये वही करेगी। कुत्तों से कटवाऊंगी-उसका स्वर जो पानीय पान के कारण मदमत्त हो रहा था।
मैं उस रोती हुई बच्ची को उठाकर उस महल के समान घर से निकल आया और उस बड़ी-सी राजाओं जैसी गाड़ी पर चढ़ कर काफी देर घूमता रहा।
उसका रोना थामने के लिए चॉकलेट, गुड़िया-लेकिन बेबी ने भी अपना अविराम क्रन्दन सुर नहीं भुलाया। वह लगातार रटती रही-आया को मार रहे हैं-आया को मार पड़ रही है।
उसके जीवन की एकमात्र प्यार, आश्रय सभी आया ही थी। उसके भीतर का आवेग उथल रहा था-आया मर जायेगी।
अजीब बात है, दो बरस के शिशु को भी मरने की बात का पता है। उसे पता है ज्यादा मारने से इंसान मर सकता है।

मेरी बेबी को लेकर कलकत्ता छोड़ कर कहीं बाहर चले जाने की इच्छा हो रही थी। लेकिन बेबी के रुदन ने ही मुझे घर वापिस लौटने पर मजबूर कर दिया।
अगर वह ना रोती तो क्या में सच में कहीं चला जाता? जा सकता था? शौखीन बड़ा बाजार में वाणिज्य, बैंक का खाता। तीन-तीन महलों जैसे घर छोड़कर चला जाता? बेबी ने मेरा मुंह रख लिया। मान बचा लिया।
मैंने सोचा या सोचने का बहाना किया कि बेबी रो रही थी तभी लौटना पड़ा नहीं तो मैं कहीं भी चला जाता। उसी घर में दुबारा प्रवेश किया जहां से अपनी बीवी का जूता खाकर चला आया था। जिस घर में नौकर-चाकरों के सामने मेरी बीवी शराब पीकर चिल्ला रही थी-साहब के साथ इश्क लड़ायेगी-बामन होकर चांद पर चढ़ने का शौक। तेरी चाबुक से चमड़ी उधेड़ दूंगी। और उस साहब को गले पर धक्का मारकर बाहर निकाल दूंगी।''
था तो मद्यपान से गले का स्वर अटका-अटका, पर उच्चारण तो साफ थे। और मद्यप स्त्री भी क्या ऐसी गौरवमयी है?

उस घर की चौखट को पार कर अन्दर आना पड़ा। सभी अतनू बोस, घोष, शर्मा सभी को आना पड़ता है। नहीं तो जायेगा कहां? इस पृथ्वी पर सात फेरों के बंधन से बंधा इंसान कर भी क्या सकता है?
अन्दर आकर लगा यह घर तो अद्भुत शान्त था जैसे किसी मृत पुरी में आन पहुंचा था। धीरे-धीरे बच्ची को लेकर घुसा, दो तल्ले पर चढ़ा, इस बीच में गेट पर दरबान और दो तल्ले की सीढ़ी के सामने वाले दरबान ने मुझे सलाम भी ठोंका। मैं चढ़ गया।
ना पौली थी, ना आया थी, पुराना नौकर वासु भी नहीं था। इधर-उधर दो-एक दासियां दिखाई दे रहीं थीं। उनमें से एक को बुलाकर कहा-''शायद इसका खाने का टाइम हो रहा है। देखो तो क्या खायेगी?''
वह ना जाने क्या कह कर भागकर गई और एक गिलास गरम दूध लेकर चली आई। दूध पीकर पीकर बेबी मेरे पास ही सो गई।

पौली के गले की आवाज काफी रात गये सुनाई दी। हँसी तो, आनन्द से, कौतुक से भरपूर-''केस करेगी मेरे नाम पर-केस। भाग कर थाने में गई मार का दाग दिखाने। ही-ही-ही। कैसे अपना चक्कर चलाया। रुपया। जिससे ईश्वर को शैतान बनाया जा सकता है। यह तो एक सूद्र आया का आदमी था। पांच सौ रुपये के नोट उसकी ओर फेंक दिये, कहा-साहब के साथ लटपट करती थी तभी मैंने मारा है-थाने में रपट लिखाने गई है। अब बोलो वह बीवी की तरफदारी कर उसके साथ लड़ाई में भाग लेगा या अपनी ही बीवी को ठीक करने में लड़ जायेगा? वह आदमी मेरे पैरों पर गिर पड़ा। हां, नोट अपनी जेब में डाल लिये थे। यह बात तो अच्छी थी कि वासू उसका घर पहचानता था नहीं तो मुश्किल हो जाती। पौली किसी को इतनी बहादुरी का वृत्तान्त सुना रही थी-हंस-हँस कर।

झांक कर देखने की इच्छा ना थी। पर धीरे-धीरे पता लग गया कि पौली के अनुरागी चेला का सरदार स्मरजित-जो पौली के कहने पर जीता था, मरता था। उसी को अपनी वीरता दिखा रही थी-जो अपने आदमी से भी मार खायेगी। आजकल उसकी हिम्मत भी बढ़ गई। बेवी मेरे से ज्यादा उसको प्यार करती थी। तभी घमण्ड से उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। मैंने एक दिन बेबी को खिलाना चाहा तो उसने मेरा हाथ पकड़ कहा-''आप से नहीं होगा। आप उसके खाने के बारे में क्या जानते हैं-''
हुआ तो अधिक बढ़ने का नतीजा! समझ आ रहा था तब भी पीली के ऊपर से नशे की खुमारी नहीं हटी थी। तभी इतना बोल रही थी।
अजीब बात थी। पीली किस कदर बदल रही थी? कुछ मतलबी छोकरों के साथ मिलकर अपना मतिभ्रष्ट कर रही थी।

उधर इस समिति के बीच-बीच में समारोह करने के अलावा और कुछ भी शायद किया होगा?

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