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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


यह सब कौन है? कौन। पिताजी, ताया जी, चाचा? तब किसकी मौत हुई है? दादा जी की? मैं फिर कहां हूं? मैं क्या वहां नहीं हूं?

यही तो मुश्किल है मैं अपने असल वक्तव्य से फिर हट गया। मैं भावप्रवणता जाहिर कर रहा हूं। मुझे अपनी कथा भी तो एक के बाद एक सजाकर बतानी पड़ेगी? पहले क्या हो रहा था पौली के बारे में बता रहा था।
उस दिन पौली विजय के चले जाने के बाद कमरे में आई और नाक सिकोड़ कर बोली, ''वह कौन था यहां से जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। और कितना प्यार उमड़ा पड़ रहा था, दादा, दादा रट रहा था।''
''-पीछे से छोटे-छोटे अंश ना सुनकर कमरे में आकर पूरी कथा सुन सकतीं थीं।
पौली ने नाक और भी सिकोड़ कर कहा-पीछे से सुन रही थी। उंह। कान में बातें आ रही थीं। उनका गला काफी जोर था। तुम्हारे कोई रिश्तेदार थे। क्या सोच नहीं सकती तुम्हारा ऐसा फालतू रिश्तेदार भी हो सकता है?

मैं भी गम्भीर हो गया-"वह मेरा नातेदार था ऐसी धारणा तुम्हें कैसे हुई?'' 
''बातों के लहजे से। कान में आया गांव में कोई मर गया है?''
मैं तेजी से बोला-''ना।''
पौली की आंखों में आंसू आ गये, वह बोली-''गुस्सा क्यों कर रहे हो? लगा कि मर गये हैं-अब नहीं पूछूंगी।''

पौली के इस करुणामय रूप ने मुझे विगलित कर डाला, मैं अपने दृढ़ स्वरूप में ना रह पाया। तब मैं हार मान लेता हूं। एक बार यह भी सोचा, कह ही डालूं। पर अपने आप को संभाल लिया। मेरे पिता की मृत्यु हो गई है-इस दैन्य को पौली के समक्ष उजागर नहीं कर सकता।
पौली के पिता मिस्टर पाइन की तरह ऐसे व्यक्तित्व के धनी पिता रहेंगे जो स्वयं गाड़ी चलाकर रांची, हजारीबाग जाते हैं, एक बोतल शराब एक साथ गटक कर भी नहीं भटकते, बड़ा बाजार में लोग उनका नाम सुनकर ही अपने हाथों को जोड़कर प्रणाम करते हैं-और इधर मेरे पिता हैं ही नहीं।
मैं यह खबर नहीं सुना सकता। फिर और चिन्ता जिसने मेरे मन को नरम होने से बचाया-वह था मेरे पिता नहीं है, मेरा सूतक चल रहा है, मै जूता पहनता हूं, सूट पहन रहा हूं, मुर्गी खा रहा हूं-पौली यह सब देखे-मैं यह कभी नहीं होने दूंगा।
पौली ने जो भी सुना है (शायद पूरा सुना है। फिर भी मैं नहीं मानता) सुने, मैं नहीं बताऊंगा मेरा कोई नहीं मरा।

सिर्फ मैं ही मर गया हूं।

बाबा, बाबा-आजकल बेबी मुझे पुकारने लगी है। मुझे देखकर ही बुलाती, और आया की गोद से मेरी गोद में आना चाहती थी। मैं उसे बाबा बुलाना चाहता था, यह सुनकर पौली ने स्थायी रूप से अपनी नाक सिकोड़ डाली। छिः! तुम्हारी रुचि कितनी विकृत है।
हँसकर कहा-सच। यह बात मुझे हर पल अपने अस्थि मज्जे से समझ में आ रही है। पौली चौंक गई।
पौली इस प्रकार के आक्रमण के लिए प्रस्तुत नहीं थी। तभी उसे जबाव देने में देर लगी।

फिर ही-ही कर हँस पड़ी। अब तो मालूम पड़ा है। कैसा मजा दिखाया। अब तो समझ रहे हो कैसा बुद्धू बनाया-ढका-हां, मामला दोनों ओर का है-अदला-बदली तो हो आई है। हां, एक बात कहे देती हूं-बच्ची को ऐरे-गैरे के बच्चों की तरह बाबा बुलाना मत सिखना। डैडी सुन कर तुम मूर्च्छित हो जाओगे तभी बापी कहना सिखा रही हूं।
शायद पीली के निर्देशानुसार आया ने बापी सिखाया। बेबी मुझे देख कर आनन्द-उल्लास से बापी-बापी कह कर चिल्ला उठती। पर मैं उसे नहीं ले पाता। जब भी आगे बढ़कर हाथ बढ़ाता कहां से पौली आकर तेजी से अपना गुस्सा दिखा देती, गोद में लेने की क्या जरूरत है? गोद में लेने की आदत बुरी होती है, बच्चे बिगड़ जाते हैं। आया उसे लेकर कमरे में जाओ।'
आया भी तुरन्त चली जाती।
मैं,''मुझे तब नहीं सूझता क्या करूं?''
मैं उस वक्त कैसा दिखता था। पर कभी यह जरूर कहता-''तुम्हारी बेटी के बिगड़ने का चान्स नहीं है, तुम उसे ठीक संभाल लोगी।''
पौली ने बालों को लहरा कर गले के सुर में झंकार पैदा किया-''अगर तुम दुश्मनी करो तो मुश्किल है बेटी को सभ्यता सिखाना चाहिए कि नहीं।''
शुरू-शुरू में मैं पहले यही विश्वास करता था। अपनी बेटी को वह शायद एक अवास्तव कल्पना के ढांचे में रख कर पालना चाहती है?
इससे ज्यादा मैं नहीं सोच सकता था। मैं इसी चिन्ता में मशगूल रहा करता था।
लेकिन बाद में पौली के वर्तमान आक्रोश की वजह का गढ़ सत्य पता चला-वह था पौली को आया को मेरे पास आना बरदाश्त नहीं पौली को जलन थी। हालांकि बूढ़ी आया रखने से फैशन का हनन होता था।

तरुणी आया जो आधुनिक साज पोशाक और स्मार्ट होगी यही आधुनिकता थी। उसके लिए अगर क्लर्क की जितनी तनख्वाह देनी पड़ी तो भी देकर रखना पडता है।
आया को अच्छा खाना, पकड़ा, साबून सब देना पड़ेगा। यही नियम था। पौली यह सारी जरूरतें पूरी करती थी, सिर्फ मुझी को आंखों की कड़ी निगरानी में रखती थी।
हालांकि उसके पास पहरा देन का वक्त भी नहीं था। हमेशा ही व्यस्त थी।
कहां वह जाती थी, कहां उसका कितना काम रहता था यह बात पीली और उसके चेलो को ही पता रहता था। उसे घर में पाना दुष्कर था। वह शायद रात गहराने तक बाहर रहती थी। एक दिन उसे पकड़ा-

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