ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
सेक्स की शक्ति ही, काम की शक्ति ही प्रेम बनती है।
लेकिन उसके विरोध में-सारे दुश्मन हैं उसके। अच्छे आदमी उसके दुश्मन हैं। और
उसके विरोध में प्रेम के अंकुर भी नहीं फूटने दिए हैं। और जमीन से, प्रथम से,
पहली सीढ़ी से नष्ट कर दिया भवन को। फिर वह हीरा नहीं बन पाता कोयला, क्योंकि
उसके बनने के लिए जो स्वीकृति चाहिए जो उसका विकास चाहिए, जो उसको रूपांतरित
करने की प्रक्रिया चाहिए, उसका सवाल ही नहीं उठता। जिसके हम दुश्मन हो गए,
जिसके हम शत्रु हो गए, जिससे हमारी द्वंद्व की स्थिति बन गई हो और जिससे हम
निरंतर लड़ने लगे-अपनी ही शक्ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। सेक्स की शक्ति
से आदमी को लड़ा दिया गया है। और शिक्षाएं दी जाती है कि द्वंद्व छोड़ना चाहिए,
कानफ्लिक्ट्स छोड़नी चाहिए, लड़ना नहीं चाहिए। और सारी शिक्षाएं बुनियाद में
सिखा रही हैं कि लड़ो।
मन जहर है तो मन से लड़ो। जहर से तो लड़ना पड़ेगा। सेक्स पाप है तो उससे लड़ो। और
ऊपर से कहा जा रहा है कि द्वंद्व छोड़ो। जिन शिक्षाओं के आधार पर मनुष्य
द्वंद्व से भर रहा है, वे ही शिक्षाएं दूसरी तरफ कह रही है कि द्वंद्व छोड़ो।
एक तरफ आदमी को पागल बनाओ और दूसरी तरफ पागलखाने खोलो कि उनका इलाज करना है!
एक तरफ कीटाणु फैलाओ बीमारियों के और फिर अस्पताल खोलो कि बीमारियों का इलाज
यहां किया जाता है। एक बात समझ लेनी जरूरी है इस संबंध में।
मनुष्य कभी भी काम से मुक्त नहीं हो सकेगा। काम उसके जीवन का प्राथमिक बिंदु
है। उसी से जन्म होता है। परमात्मा ने काम की शक्ति को ही, सेक्स को ही
सृष्टि का मूल बिंदु स्वीकार किया है। और परमात्मा जिसे पाप नहीं समझ रहा है,
महात्मा उसे पाप बता रहे हैं। अगर परमात्मा उसे पाप समझता है, तो परमात्मा से
बड़ा पापी इस पृथ्वी पर, इस जगत में, इस विश्व में कोई भी नहीं है।
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