ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
फूल खिला हुआ दिखाई पड़ रहा है। कभी सोचा है कि फूल का खिल जाना भी सेक्सुअल
ऐक्ट है, फूल का खिल जाना भी काम की एक घटना है, वासना की एक घटना है? फूल
में क्या है-उसके खिल जाने में? उसके खिल जाने में कुछ भी नहीं है। वे बिंदु
हैं पराग के, वीर्य के कण हैं जिन्हें, तितलियां उड़ाका दूसर फूलों पर ले
जाएंगी और नया जन्म देंगी।
एक मोर नाच रहा है-और कवि गीत गा रहे हैं और संत भी देखकर प्रसन्न
होंगे-लेकिन उन्हें ख्याल नहीं कि नृत्य एक सेक्सुअल ऐक्ट है। मोर पुकार रहा
है अपनी प्रेयसी को या अपने प्रेमी को। वह नृत्य किसी को रिझाने के लिए है?
पपीहा गीत गा रहा है, कोयल बोल रही है। एक आदमी जवान हो गया है, एक युवती
सुंदर होकर विकसित हो गई है। ये सब की सब सेक्सुअल एनर्जी की अभिव्यक्तियां
हैं। यह सब-का-सब काम का ही रूपांतरण है। यह सब का सब काम की ही अभिव्यक्ति
काम की ही अभिव्यंजना है।
सारा जीवन, सारी अभिव्यक्ति, सारी फ्लावरिंग काम की है।
और उस काम के खिलाफ संस्कृति और धर्म आदमी के मन में जहर डाल रहे हैं। उससे
लड़ाने की कोशिश कर रहे हैं। मौलिक शक्ति से मनुष्य को उलझा दिया है लड़ने के
लिए, इसलिए मनुष्य दीन-हीन, प्रेम से रिक्त और खोटा और ना कुछ हो गया है।
काम से लडना नहीं है, काम के साथ मैत्री स्थापित करनी है और काम की धारा को
और ऊंचाइयों तक ले जाना है।
किसी ऋषि ने किसी वधू को नव वर और वधू को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि 'तेरे
दस पुत्र पैदा हों और अंततः तेरा पति तेरा ग्यारहवां पुत्र हो जाए।'
वासना रूपांतरित हो, तो पत्नी मां बन सकती है।
वासना रूपांतरित हो, तो काम प्रेम बन सकता है।
लेकिन काम ही प्रेम बनता है, काम की ऊर्जा ही प्रेम की ऊर्जा में विकसित होती
है, फलित होती है।
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