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संभोग से समाधि की ओर...
और पहली अकड़ से अकड़ ज्यादा खतरनाक है। पहले अहंकार से दूसरा अहंकरि ज्यादा
सूक्ष्म।
...दबाया हुआ अहंकार वापस लौट आया। अब वह और बारीक होकर आया है, कि जिसकी
पहचान भी न हो सके।
जो भी आदमी चित्त के साथ दमन करता है, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म उलझनों में
उलझता चला जाता है; यह मैंने तीसरे सूत्र में कहा।
दमन से सावधान करने वाला आदमी रुग्ण हो जाता है, अस्वस्थ हो जाता है, बीमार
हो जाता है। और दमन का अंतिम परिणाम विक्षिप्तता है, मैडनेस है।
तीन सूत्रों पर मैंने आपसे कुछ कते कहीं। अब चौथे और अंतिम के संबंध में आपसे
थोड़ी-सी बात कहना चाहता हूं। चौथा सूत्र छोटा-सा सूत्र। सूत्र छोटा है, लेकिन
बड़ी विस्फोटक शक्ति है उसमें। जैसे राक छोटे-से अणु में इतनी ताकत रहती है कि
सारी पृथ्वी को वह नष्ट कर सकता है, वैसा ही, इस छोटे-से सूत्र में शक्ति है।
इन तीनों जंजीरों से मुक्त होने के लिए एक ही सूत्र है, वह सूत्र है-जागरण
जागना, अवेयरनेस, ध्यान अमूर्छा, होश माइंड फुलनेस या कोई भी नाम दें। एक ही
सूत्र है, छोटा-सा-'जागो।'
जागो उन सिद्धांतों के प्रति, जिनको पकड़े हुए हो। और जागते ही उन सिद्धांतों
से छुटकारा शुरू हो जाएगा; क्योंकि सिद्धांत आपको नहीं पकड़े हैं, आप ही
उन्हें पकड़े हुए हैं। और जैसे ही आप जागेंगे, आपको लगेगा कितनी अजीब बात है
कि मैं अपने ही हाथों से गुलाम बना हुआ हूं और मेरी गुलामी की जंजीर मेरे
अपने ही हाथ में है! और एक बार यह दिखाई पड़ जाए, तो फिर छूटने में देर नहीं
लगती।
पहला जागराग सिद्धांतों, वादों, संप्रदायों, धर्मों, गुरूओं, महात्माओं के
प्रति, जिनको हम जोर से पकड़े हुए हैं। कुछ भी नहीं है हाथ में, कोरी राख है
शब्दों की, लेकिन जोर से पकड़े हुए हैं। कभी हाथ खोलकर भी नहीं देखते हैं। डर
लगता है कहीं देखा तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। लेकिन गौर से देखना जरूरी है कि
मै किन-किन चीजों से जकड़ा हुआ हूं, मेरी जंजीरें कहां-कहां हैं? मेरी
स्लेवरी, मेरी गुलामी कहा है; मेरी आध्यात्मिक दासता कहां टिकी है?
एक-एक चीज के प्रति जागना जरूरी है। जागने के अतिरिक्त, गुलामी को तोड़ने के
लिए और कुछ भी नहीं करना पड़ता है। और जागते ही गुलामी छूटनी शुरू हो जाती है।
क्योंकि, यह गुलामी कोई लोहे की जंजीरों की नहीं है, जिसे तोड़ने के लिए
हथौड़े की चोट करनी पड़े। ये गुलामी हमारे सोए होने के कारण है। हमने कभी होश
से देखा ही नहीं है कि हमारे भीतर की मनोदशा क्या है। बस हम चलते रहे अंधेरे
में। जाग जाएंगे तो पता चलेगा कि यह तो हमने अपने ही हाथों में पागलपन का
इंतजाम कर रखा है।
और, इसके लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं है, हम खुद ही जिम्मेवार हैं। इसे हम
तोड़ दे सकते हैं जागरण से। जागरण-सिद्धांतों, शास्त्रों, संप्रदायों के
प्रति। जागरण-हिंदू होने के प्रति, मुसलमान होने के प्रति, हिंदुस्तान होने
के प्रति, चीनी होने के प्रति।
जागरण-सारी सीमाओं के प्रति, सारे बंधनों के प्रति समस्त मोह के प्रति। यह जो
कंडीशनिंग है भीतर मांइड की, उसके प्रति जागे, देखें कि यह क्या है? यह मैं
क्यों बंधा हूं? किसने मुझे हिंदू बना दिया है? किसने मुझे सिद्धांत से अटका
दिया है?
मन में भीड़ घुस जाती है। चीजें बाहर से आती हैं और हम उन्हें पकड़ लेते हैं।
उन्हें छोड़ देना है। उन्हें छोड़ते ही चित्त को एक फ्रीडम एक मुक्ति की अवस्था
उपलब्ध हो जाती है।
भीड़ के प्रति जागना है कि मैं जो भी कर रहा हूं, वह भीड़ को देखकर तो नहीं कर
रहा हूं?
आप मंदिर चले जा रहे है-सुबह ही उठकर, भागते हुए राम-राम जपते हुए-सुबह की
सर्दी में! स्नान कर लिया है और भागते चले जा रहे हैं। सोचते हैं कि मंदिर जा
रहा हूं। जरा जागकर देखना कहीं इसलिए तो आप मंदिर नहीं जा रहे हैं कि लोग आप
को देख लें: कि मैं आदमी धार्मिक हूं!
कौन मंदिर जाता है...? भीड़ देख ले कि यह आदमी मंदिर जाता है, इसलिए आप मंदिर
जाते हैं। किसको प्रयोजन है दान देने से...? लोग देख लें,
कि ये आदमी दानी है, इसलिए आप देते हैं।
अगर एक आदमी भीख मांगता है सड़क पर, तो आपको पता होगा कि भिखारी अकेले में
किसी से भीख मांगने में झिझकता है। चार-छह आदमी हों, तो जल्दी से हाथ फैलाकर
खड़ा हो जाता है, क्योंकि उसे पता है कि पांच आदमियों के सामने यह छठवां आदमी
भीख देने से इंकार नहीं कर सकेगा। यह खयाल रखेगा कि पाच आदमी क्या सोचेंगे?
कि इतना बड़ा आदमी है, दस पैसे नहीं छोड़ सकता!
तो भिखमंगा भीड़ में जल्दी से पीछा करता है। और दस आदमी को देखकर आपको दस पैसे
देने पड़ते हैं। वह दस पैसे आप भिखारी को नहीं दे रहे हैं वह दस पैसे से आप
इश्योरंस कर रहे हैं अपनी इज्जत का दस आदमियों में। उन दस पैसों का आप
क्रैडिट बना रहे हैं इज्जत बना रहे हैं बाजार में।
और आपको खयाल भी नहीं होगा आप घर लौटकर कहेंगे-बड़ा दान किया; आज एक आदमी को
दस पैसे दिए! लेकिन भीतर पूरे जागकर देखना कि किसको दिए? क्या भिखमंगे को
दिए? उसके लिए तो भीतर से गाली निकल रही थी कि यह दुष्ट कहां से आ गया! दिए
उनको, जो साथ थे।
भीड़ सब तरफ से पकड़े हुए है।
एक गांव में मैंने देखा, एक नया मंदिर बन रहा था; भगवान का मंदिर बन रहा
था...। कितने भगवान के मंदिर बनते चले जाते हैं।
...नया मंदिर बन रहा था। उस गांव में वैसे ही बहुत मंदिर थे...!
आदमियों के रहने के लिए जगह नहीं है और भगवान के लिए मंदिर बनते चले जाते
हैं! और भगवान का कोई पता नहीं है कि मंदिर मे रहने कब आएंगे; आएंगे कि नहीं
आएंगे, इसका कुछ पता नहीं है।
...नया मंदिर बन रहा था तो मैंने उस मंदिर को बनाने वाले एक कारीगर से पूछा,
''बात क्या है? बहुत मंदिर हैं गांव में, भगवान का कहीं पता नहीं चलता! ये एक
और मंदिर किसलिए बना रहे हो?''
बूढ़ा था कारीगर। अस्सी साल की उम्र रही होगी। बामुश्किल मिट्टी खोद रहा था।
उसने कहा, ''आपको शायद पता नहीं मंदिर भगवान के लिए नहीं बनाए जाते हैं।''
मैने कहा, ''बड़े नास्तिक मालूम होते हो। मंदिर भगवान के लिए नहीं बनाए जाते
तो किसके लिए बनाए जाते हैं?''
उस बूढ़े ने कहा, ''पहले मैं भी यही सोचता था लेकिन जिंदगी भर मंदिर बनाने के
बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि भगवान के लिए इस जमीन पर मंदिर कभी नही बनाया
गया।''
मैंने पूछा, ''मतलब क्या है तुम्हारा?'' उस बूढ़े ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि
भीतर आओ...।
...और बहुत कारीगर वहां काम कर रहे थे। लाखों रुपए का काम था। वह कोई साधारण
आदमी मंदिर नहीं बनवा रहा था। सबसे पीछे, जहां कारीगर पत्थरों को खोदते थे,
उस बूढ़े ने ले आकर मुझे वहां खड़ा कर दिया, एक पत्थर के सामने, कहा, "इसलिए
मंदिर बन रहा है।''
उस पत्थर बनाने पर मंदिर के बनाने वाले का नाम स्वर्ण-अक्षरों में खोदा जा
रहा था...।
उस बूढ़े ने कहा, सब मंदिर इस पत्थर के लिए बनते हैं। असली चीज यह पत्थर है,
जिस पर नाम लिखा रहता है कि किसने बनवाया।
मंदिर तो बहाने हैं. पत्थर को लगाने के। वह पत्थर असली चीज है। उसकी वजह से
मंदिर भी बनाना पड़ता है। मंदिर बहुत महंगा पड़ता है; लेकिन उस पत्थर को लगाना
हो तो कोई क्या करेगा, इसलिए बनाना पड़ता है। मंदिर पत्थर लगाने के लिए बनते
हैं, जिस पर खुदा रहता है कि किसने यह मंदिर बनाया!
लेकिन, मंदिर बनाने वाले को शायद यह होश नहीं होगा कि यह मंदिर भीड़ के चरणों
में बनाया जा रहा है, भगवान के चरणों में नहीं। इसलिए तो मंदिर हिंदू का होता
है, मुसलमान का होता है, जैन का होता है; मंदिर भगवान का कहां होता है?
भीड़ से सावधान होने का मतलब यह है कि भीतर जागकर देखना अपने चित्त की
वृत्तियों को : कि कहीं भीड़ तो मेरा निर्माण नहीं करती है; चौबीस घंटे भीड़ तो
मुझे मोल्ड नहीं करती है; कहीं भीड़ के सांचे में तो मुझे नहीं ढाला जा रहा
है?
और ध्यान रहे, भीड़ के सांचे में कभी किसी आत्मा का निर्माण नही होता, भीड़ के
सांचे में मुर्दे आदमी ढाले जाते हैं और पत्थर हो जाते हैं।
जिन्हें आत्मा को पाना होता है, वे भीड़ के सांचे को छोड़कर ऊपर उठने की कोशिश
करते हैं। लेकिन, कुछ और करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ जागने की जरूरत है।
चित्त की वृत्तियों को जागकर देखते रहें कि मुझे पकड़ तो नहीं रही हैं?
और बड़े मजे की बात है, अगर कोई जागकर देखता है तो भीड़ की पकड़ उस पर बंद हो
जाती है। बहुत हल्कापन, बहुत वेटलेसनेस मालूम होती है, क्योंकि वजन भीड़ का है
हमारे सिरों पर।
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