ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
भीतर क्रोध है, भीतर आग है; किसा को तोडने, मरोड़ने, बदलने की इच्छा है।
...यह बच्चा आते ही थक जाएगा। कल भी वह ऐसे ही आया था नाचता हुआ, लेकिन आज
उसका नाच, नाचना उपद्रव मालूम पड़ेगा...।
हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हमारे भीतर है। हमारा सब देखना प्रोजेक्शन है।
...आज उसके कपड़े गंदे मालूम पड़ेंगे। वह रोज ऐसे ही आता है। बच्चे कपड़े गंदे
नहीं करेंगे तो क्या बूढ़े कपड़े गंदे करेंगे? बच्चे तो कपड़े गंदे करेंगे ही।
क्योंकि, बच्चों को कपड़ों का पता भी नहीं है। कपड़ों का पता रखने के लिए भी
आदमी को बहुत चालाक होने की जरूरत है। बच्चों को कहां होश?
...कपड़े फट गए हैं?...किताब फट गयी है?....स्लेट फूट गयी है? इसलिए आज बच्चे
का सुधार किया जाएगा। लेकिन मां को पता भी नहीं चलेगा कि वह बच्चे की शक्ल
में पति को चांटे मार रही है; कि ये चांटे पति को पड़ रहे हैं।
और बच्चे भली-भांति जानते हैं कि उनकी पिटायी कब होती है! जब मां-बाप का आपस
में झगड़ा चलता है, तब। जब मां-बाप लड़ते हैं, तब बच्चे पिटते हैं। इसलिए जिनके
बच्चे नहीं होते हैं उनके घर में बड़ी मुश्किल हो जाती है; क्योंकि पिटने के
लिए कोई कामन मैन नहीं होता; किसको पीटो! अगर ऐसा न हो तो प्लेटें टूट जाती
हैं रेडियो गिर जाता है; दूसरे उपाय खोजने पड़ते हैं। आपको मालूम होगा, प्लेट
कब टूटती है? और पत्नियों को भी मालूम रहता है कि अब एकदम हाथ से प्लेटें
छूटने लगती हैं।
...लेकिन, बच्चा पिटेगा। बच्चा क्या कर सकता है? वह मां के प्रति क्रोध कैसे
करे? अगर मां के प्रति क्रोध करना है तो जरा प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
पंद्रह-बीस साल बहुत लंबी प्रतीक्षा है। जब एक औरत और आ जाए पीछे ताकत देने
को; क्योंकि किसी भी औरत से लड़ना हो तो एक औरत का साथ जरूरी है। नहीं तो हार
निश्चित है।
औरत से औरत ही लड़ सकती है, आदमी नहीं लड़ सकता।
राह देखनी पड़ेगी। बहुत लंबा वक्त है। वक्त देखना पड़ेगा कि कब मां बूढ़ी हो जाए
क्योंकि तब पांसा बदल जाएगा। अभी मां ताकतवर है, बच्चा कमजोर है। जब बच्चा
ताकतवर होगा, मां कमजोर हो जाएगी, तब...।
वह जो बूढ़े मां-बाप को बच्चे सताते हैं; और जब तक मां-बाप बच्चों को मताते
रहेंगे, तब तक मूढ़े मां-बापों को सावधान रहना चाहिए कि उनके बच्चे उनको
सताएंगे।
...यह तो बहुत लंबी बात है। इतनी देर तक प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। क्रोध
इतनी देर तक रुकने के लिए राजी नहीं हो सकता। तो बच्चा क्या करेगा?...जाएगा,
अपनी गुड़िया की टांग तोड़ देगा!...किताब फाड़ देगा!...कुछ करेगा। जो भी वह कर
सकता है, वह करेगा।
दबाया हुआ क्रोध किसी भी रास्ते ले जाएगा; तकलीफों में डालेगा; मुश्किलों में
डालेगा। दबाया हुआ अहंकार नए-नए रास्ते पर ले जाएगा। दबाया हुआ लोभ नए-नए
रास्ते खोजेगा।
मैं एक संन्यासी के पास था। उनसे मेरी बात होती थी। वे संन्यासी मुझसे
बार-बार कहते...।
और संन्यासी बेचारे के पास और कुछ कहने को तो होता नहीं...। धनपति के पास
जाइए, वह अपने धन का हिसाब बताता है : कि इतने करोड़ थे, इतने करोड़ हो गए,
मकान छः मंजिला था सात मंजिल हो गया। पंडितों के पास जाइए तो वे अपना बताते
हैं : कि अभी एम० ए० भी हो गए, पी-एच० डी० भी हो गए, अब डी० लिट्० भी हो गए,
अब यह हो गए, वह हो गए! पांच किताबें छपी थी, अब पंद्रह छप गयीं! वह अपना
बताएंगे। साधु संन्यासी क्या बताएं? वह भी हिसाब रखता है, त्याग का!
...वे मुझसे बार-बार कहते, ''मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी।'' सत्य ही
कहते होंगे।
चलते वक्त मैंने पूछा-''महाराज यह लात मारी कब?'' कहने लगे, ''कोई बीस-पच्चीस
साल हो गए।'' मैंने कहा ''लात ठीक से लग नहीं पायी, नहीं तो पच्चीस साल तक
याद रखने की क्या जरूरत है? पच्चीस साल बहुत लंबा वक्त है। अब लात मार ही दी
तो खत्म करो बात। पच्चीस साल याद रखने की क्या जरूरत है...?''
लेकिन वे अखबार की कटिंग रखे हुए थे अपनी फाइल में, जिसमें छपी थी पच्चीस साल
पहले यह खबर। कागज पुराने पड़ गए थे, पीले पड़ गए थे, लेकिन मन को बड़ी राहत
देते होंगे। दिखाते-दिखाते गंदे हो गए थे। अक्षर भी समझ में
नहीं आते थे। लेकिन उनको बड़ी तृप्ति मिलती होगी।
...दस-बीस साल पहले उन्होंने लाखों रुपए पर लात मारी। मैंने उनसे कहा, ''लात
ठीक से लग जाती तो रुपए भूल जाते। लात ठीक से लगी नहीं। लात लौटकर वापस आ
गयी...।''
पहले अकड़ रही होगी कि मेरे पास लाखों रुपए हैं। अहंकार रहा होगा। सड़क पर चलते
होंगे तो भोजन की कोई जरूरत न रही होगी। बिना भोजन के भी चले जाते होंगे।
ताकत गयी नहीं रही होगी। भीतर खयाल रहा होगा कि लाखों रुपए मेरे पास हैं। फिर
रुपयों को छोड़ दिया त्याग दिया। जबसे त्याग किया तबसे अकड़ दूसरी आ गयी : कि
मैंने रुपयों को लात मार दी! मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं?
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