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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


उस फकीर ने कहा, ''मैंने तुम्हारी कभी चिंता नहीं की, कि तुम क्या सोचते हो। तुम आदर देते हो कि अनादर। तुम श्रद्धा देते हो कि निंदा। मैने तुम्हारी आंखों की तरफ देखना बंद कर दिया है। मैं अपनी तरफ देखूं कि तुम्हारी आंखों की तरफ देखूं। जब तक मैं तुम्हारी आंखों में देखता रहा, तब तक अपने को मैं नहीं देख पाया। और तुम्हारी आख तो प्रतिपल बदल रही है। और हर आदमी की आख अलग है। हजार-हजार दर्पण हैं, मैं किस-किस में देखूं। अब मैंने अपने में ही झांकना शुरू कर दिया है। अब मुझे फिक्र नहीं है कि तुम क्या चाहते हो? अगर तुम कहते हो कि बच्चा मेरा है, तो ठीक ही कहते हो मेरा ही होगा। आखिर किसी का तो होगा ही? मेरा ही सही। तुम कहते हो कि मेरा नहीं है, तो त्उम्हारी मर्जी नहीं होगा। लेकिन मैंने तुस्तारी आंखों में देखना बद कर दिया है।''

...और वह फकीर कहने लगा कि मैं तुमसे भी कहता हूं कि कब वह दिन आएगा कि तुम दूसरों की आंखों में देखना बंद करोगे, और अपनी-तरफ देखना शुरू करोगे...?

यह दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं जीवन क्रांति का कि मत देखो दूसरों की आंखों में कि आप क्या हैं।
वहां जो भी तस्वीर बन गयी है, वह आपके वस्रों की तस्वीर है, वह आपकी दिखावट है, वह आपका नाटक है, वह आपकी एक्टिंग है-वह आप नही हैं क्योंकि आप कभी प्रगट ही न हो सके, जो आप हैं तो उसकी तस्वीर कैसे बनेगी! वहां तो आपने जो दिखाना चाहा है, वह दिख रहा है।

भीड़ से बचना धार्मिक आदमी का पहला कर्तव्य है, लेकिन भीड़ से बचने का मतलब यह नहीं है कि आप जंगल में भाग जाएं। भीड़ से बचने का मतलब क्या है? समाज से मुक्त होना धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है, लेकिन समाज से
मुक्त होने का क्या मतलब है?
समाज से मुक्त होने का मतलब यह नहीं है कि आदमी भाग जाए जंगल में। वह समाज से मुक्त होना नहीं है। वह समाज की ही धारणा है संन्यासी के लिए कि जो आदमी समाज छोड़कर भाग जाता है, वह उसको ही आदर देता है। यह समाज से भागना नहीं है। यह तो समाज की ही धारणा को मानना है। यह तो समाज के ही दर्पण में अपना चेहरा देखना है।

गेरुए वस्त्र पहन कर खड़े हो जाना सन्यासी हो जाना नहीं है। वह तो समाज की आंखों में, समाज के दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखना है। क्योंकि अगर समाज गेरुए वस्त्र को आदर देना बंद कर दे, तो मैं गेरुआ वस्त्र नहीं पहनूंगा।
अगर समाज आदर देता है एक आदमी को-पली और बच्चों को छोड़कर भाग जाने को-तो आदमी भाग जाता है। यहां भी वह समाज की आखो में देख रहा है।...नहीं यह समाज को छोड़ना नहीं है।
समाज को छोड़ने का अर्थ है-समाज की आंखों में अपने प्रतिबिब को देखना बंद कर दें।
अगर जीवन में कोई भी क्रांति चाहिए तो लोगो की आखों में देखना बंद कर दें। भीड़ के दर्पण में देखना बंद कर दें।
धोखे के क्षण में वहां वस्त्र दिखायी पड़ते हैं। लेकिन दुनिया में वस्त्रों की ही कीमत है। और अगर बाहर की यात्रा करनी है, तो फिर मेरी बात कभी मत मानना। नहीं तो बाहर की यात्रा बहुत मुश्किल हो जाएगी। इस दुनिया में वस्त्रों की ही कीमत है, आत्माओं की कीमत नहीं है।
मैंने सुना है, कवि गालिब को एक दफा बहादुरशाह ने भोजन का निमत्रण दिया था। गालिब था गरीब आदमी।
और अब तक ऐसी दुनिया नहीं बन सकी है कि कवि के पास भी खाने-पीने को पैसा हो सके। अब तक ऐसा नहीं हो सका है। अच्छे आदमी को रोजी जुटानी अभी भी बहुत मुश्किल है।

गालिब तो गरीब आदमी था। कविताएं लिखी थी ऊंची कविताएं लिखने से क्या होता है? कपड़े उसके फटे-पुराने थे। मित्रों ने कहा, बादशाह के यहां जा रहे हो तो इन कपड़ों से नहीं चलेगा। क्योंकि बादशाहों के महल में तो कपड़े पहचाने जाते हैं। गरीब के घर में तो बिना कपड़ों के भी चल जाए लेकिन बादशाहों के महल में तो कपड़े ही पहचाने जाते हैं। मित्रों ने कहा, हम उधार कपड़े ला देते हैं, तुम उन्हें पहनकर चले जाओ। जरा आदमी तो मालूम पड़ोगे।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga