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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


गालिब ने कहा, ''उधार कपड़े! यह तो बड़ी बुरी बात होगी कि मैं किसी और के कपड़े पहनकर जाऊं। मैं जैसा हूं, हूं। किसी और के कपड़े पहनने से क्या फर्क पड़ जाएगा? मैं तो वही रहूंगा।''
मित्रों ने कहा, ''छोड़ो भी यह फिलासफी की बातें। इन सब बातों से वहां नही चलेगा। हो सकता है, पहरेदार वापस लौटा दें! इन कपड़ों में तो भिखमंगों जैसा मालूम पड़ते हो।''
गालिब ने कहा, मैं तो जैसा हूं, हूं। गालिब को बुलाया है कपड़ों को तो नहीं बुलाया? तो गालिब जाएगा।
-नासमझ था-कहना चाहिए नादान, नहीं माना गालिब, और चला गया। दरवाजे पर द्वारपाल ने बंदूक आड़ी कर दी। पूछा कि, कहां भीतर जा रहे हो?''

गालिब ने कहा, ''मैं महाकवि गालिब हूं। है नाम कभी? सम्राट् ने बुलाया है-सम्राट् का मित्र हूं भोजन पर बुलाया।''
द्वारपाल ने कहा-''हटो रास्ते से। दिन भर में जो भी आता है, अपने को सम्राट् का मित्र बताता है! हटो रास्ते से, नहीं तो उठाकर बद कर दूंगा।''
गालिब ने कहा, ''क्या कहते हो, मुझे पहचानते नहीं?'' द्वारपाल ने कहा, ''तुम्हारे कपड़े बता रहे हैं कि तुम कौन हो! फटे जूते बता रहे हैं कि तुम कौन हो! शक्ल देखी है कभी आइने में कि तुम कौन हो?''

गालिब दुःखी होकर वापस लौट आया। मित्रों से उसने कहा, ''तुम ठीक ही कहते थे, वहां कपड़े पहचाने जाते हैं। ले आओ उधार कपड़े।'' मित्रो ने कपड़े लाकर दिए। उधार कपड़े पहनकर गालिब फिर पहुंच गया। वही द्वारपाल झुक-झुक कर नमस्कार करने लगा। गालिब बहुत हैरान हुआ कि 'कैसी दुनिया है?'

भीतर गया तो बादशाह ने कहा, बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रहा हूं।

गालिब हंसने लगा कुछ बोला नहीं। जब भोजन लगा दिया गया तो सम्राट् खुद भोजन के लिए सामने बैठा- भोजन कराने के लिए। गालिब ने भोजन का कौर बनाया और अपने कोट को खिलाने लगा कि, 'ऐ कोट खा!' पगड़ी को खिलाने लगा कि 'ले पगड़ी खा!'
सम्राट् ने कहा, ''आपके भोजन करने की बड़ी अजीब तरकीबे मालूम पड़ती हैं। यह कौन-सी आदत है? यह आप क्या कर रहे हैं?''
गालिब ने कहा, ''जब मैं आया था तो द्वार से ही लौटा दिया गया था। अब कपड़े आए हैं उधार। तो जो आए हैं उन्हीं को भोजन भी करना चाहिए!''
बाहर की दुनिया में कपड़े चलते हैं।...बाहर की दुनिया में कपड़े ही चलते
हैं। वहां आत्माओं का चलना बहुत मुश्किल है; क्योंकि बाहर जो भीड़ इकट्ठी है, वह कपड़े वालों की भीड़ है। वहां आत्मा को चलाने की बात तपश्चर्या हो जाती है।

लेकिन बाहर की दुनिया मे जीवन नहीं मिलता। वहां हाथ में कपड़ों की लाश रह जाती है, अकेली। वहां जिंदगी नहीं मिलती है। वहाँ आखिर में जिंदगी की कुल संपदा राख होती है-जली हुई। मरते वक्त अखबार की कटिंग रख लेनी है साथ में, तो बात अलग है। अखबार में क्या-क्या छपा था, उसका साथ रख ले कोई, तो बात अलग है।
जीवन की ओर वही मुड़ सकते हैं, जो दूसरों की आंखों में देखने की कमजोरी छोड़ देते हैं और अपनी आंखों के भीतर झांकने का साहस जुटाते हैं।
इसलिए दूसरा सूत्र है, 'भीड़ से सावधान।' बीवेअर ऑफ द क्राउड।
चारों ओर से आदमी की भीड़ घेरे हुए है। और जिंदा लोगों की भीड़ ही नहीं घेरे हुए है, मुर्दा लोगों की भीड़ भी घेरे हुए है। करोड़ों-करोड़ों वर्षों से जो भीड़ इकट्ठी होती चली गयी है दुनिया में, उसका दबाव है चारों तरफ और एक-एक आदमी की छाती पर वह सवार है, और एक-एक आदमी उसकी आंखों में देखकर अपने को बना रहा है, सजा रहा है। वह भीड़ जैसा कहती है, वैसा होता चला जाता है। इसलिए आदमी को अपनी आंख का कभी खयाल ही पैदा नही हो पाता। उसके जीवन के बीज में कभी अंकुर ही नहा आ पाता। क्योंकि वह कभी अपने बीज की तरफ ध्यान ही नहीं देता। बीज की तरफ उसकी आंख ही नहीं उठ गाती। उसके प्राणों की धारा कभी प्रवाहित ही नहीं होती बीज की तरफ।

जिन्हें भी भीतर की तरफ जाना है, उन्हें पहले बाहर की चिंता छोड़ देनी पड़ती है। कौन क्या कहता है, कौन क्या सोचता है-इसकी चंता छोड़ देनी पड़ती है।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga