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संभोग से समाधि की ओर...
हमारे मुल्क ने भी परमहंस पैदा किए हैं। उनका भी सहज जीवन यही था कि पाखाना
पड़ा है, वहीं बैठकर खाना खा लेते। लेकिन एक के लिए यह सहज हो सकता है। और
दूसरे के लिए यह बहुत असहज हो सकता है कि पाखाना पड़ा हो वहां और वह खाना खाए।
सहज जीवन का कोई नियम नहीं हो सकता।
लेकिन हिप्पियों ने भी नियम बना लिए है-कितना लंबा बाल होना चाहिए, किस कट का
कोट होना चाहिए! किस छींट की कमीज होनी चाहिए पैंट की मोरी कितनी संकरी होनी
चाहिए! जूते कैसे होने चाहिए, चाल कैसी होनी चाहिए! गले में हिंदुस्तान की एक
रुद्राक्ष की एक माला भी होनी चाहिए! उसके भी नियम उसकी भी सारी व्यवस्था हो
गयी है! असल में आदमी कुछ ऐसा है कि वह व्यवस्था के बाहर हो ही नहीं पाता।
इधर से व्यवस्था तोड़ता है, उधर से व्यवस्था बना लेता है। यहां मैं हिप्पियों
से राजी नहीं हूं।
मैं मानता हूं कि एक सहज दुनिया सब तरह के लोगों को स्वीकार करेगी। यानी वह
इस आदमी को भी स्वीकार करेगी, जिसको हम समझते हों कि सहज नहीं है। लेकिन उसके
लिए वह सहज होना हो सकता है। सबका स्वीकार ही सहजता का आधार बन सकता है।
लेकिन हिप्पी के लिए सब स्वीकार नहीं है। वह दूसरों को ऐसे ही देखता है, जैसे
कि दूसरे उसको देखते हैं। कंडेमनेशन से, निंदा की नजर से। दूसरे लोगों को वह
कहता है 'स्कवॉयर', चौखटे लोग। वह स्वयं भर स्कवॉयर नहीं है। बाकी जितने लोग
हैं वे चौखटे हैं-जो दफ्तर जा रहे हैं, स्कूल में पढ़ा रहे हैं। दुकान कर रहे
हैं, पति हैं, पिता हैं। लेकिन किसी के लिए पति होना उतना ही सहज हो सकता है,
जितना किसी के लिए प्रेमी होना। और किसी के लिए एक ही स्त्री जीवन भर के लिए
सहज हो सकती है, जितना किसी अन्य का स्त्री को बदल लेना। लेकिन हिप्पी यदि
कहे कि स्त्रा का बदलना ही सहज है, तब फिर दूसरी अति पर वही भूल शुरू हो गयी।
इसलिए मैं इस सूत्र में भी उनसे राजी नहीं हूं। मैं राजी हूं कि प्रत्येक
व्यक्ति का अंगीकार होना जरूरी है।
और अंतिम बात। जब कोई वादों को भी जानकर और चेष्टा से विरोध करता है, तब चाहे
वह कितना ही कहे कि वाद नहीं है, वाद बनना शुरु हो जाता है। जिसको हम अ-कविता
कहते हैं, वह भी कविता ही बन जाती है। जिसको जापान में अनाटक, 'नो ड्रामा'
कहा जाता है, वह भी ड्रामा है। और जिसको हम अवाद कहते हैं वह भी नए तरह का
वाद हो जाता है। असल में मनुष्य जब तक वाद का विरोध भी करेगा तो भी वाद
निर्मित हो जाएगा। अगर अ-वादी किसी को होना है तो उसे तो मौन ही होना पड़ेगा।
उसे वाद के विरोध का भी उपाय नहीं है। इसलिए अवादी तो दुनिया में सिर्फ वे ही
लोग थे, जो चुप ही रह गए। क्योंकि बोले तो वाद बन जाए।
अब नागार्जुन है, वह सारे वादों का खंडन करता है। कोई उससे पूछे कि तुम्हारा
वाद क्या है तो वह कहता है, मेरा कोई वाद नहीं है। वह सबका खंडन करता है और
उसका अपना कोई वाद नहीं है। लेकिन तब सबका खंडन करना भी वाद बन सकता है।
असल में एंटी-फिलासफी भी फिलासफी ही है। नान-फिलासफिक होना बहुत मुश्किल है।
एटी-फिलासफिक होना बहुत आसान है। दर्शन के विरोध मे होने में कठिनाई नहीं है।
क्योंकि एक दर्शन फिर विकसित हो जाएगा, जो दर्शन का विरोध करेगा। लेकिन
नान-फिलासफिक होना-दर्शन के ऊपर चले जाना, बियांड-पार चले जाना तो सिर्फ
मिस्टिक के लिए संभव है, रहस्यवादी के लिवर संभव है, संत के लिए संभव है। जो
कहता है, सत्य के, सिद्धांत के, वाद के पार। इतना ही नहीं वह कहता है बुद्धि
के पार, विचार के पार, मन के पार, जहां मैं ही नहीं हूं वहां। जब सबके पार जो
शेष रह जाता है, वही है। लेकिन उसे तो कैसे कहें। अभी हिप्पी वहां नहीं
पहुंचा, लेकिन कभी पहुंच सकता है।
फिर हिप्पी बड़ी जमात है। उसमें वर्ग भी हैं। अगर हमें रास्ते में एक पीत
वस्त्रधारी भिक्षु मिल जाए तो उसे देखकर बुद्ध को नहीं तौलना चाहिए। काशी में
जो हिप्पी भीख मांग रहा है सड़क पर, उसे देखकर डा० तिमोती लियरी को या डा०
पर्ल्स को नहीं तौलना चाहिए। वे बड़े अद्भुत लोग हैं। लेकिन सभी वर्ग के लोग
इकट्ठे हो जाते हैं।
हिप्पियों का एक श्रेष्ठ वर्ग निश्चित ही पार जा रहा है। और इस बात की
संभावना है कि पश्चिम में मिस्टिसिज्म का जन्म हिप्पियों का जो श्रेष्ठतम
वर्ग है, उससे पैदा होगा। एक नए वैज्ञानिक युग में भी, बुद्धि को आग्रह करने
वाले युग में भी, बुद्धि-अतीत की ओर इशारा करने वाला एक वर्ग पैदा होगा।
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