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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


हिप्पियों के विद्रोह के संबंध में मेरी पहली दृष्टि तो यह है-पीछे से शुरू करूं, साइकेडेलिक ड्रग्स से-निश्चय ही रासायनिक तत्वों के द्वारा झलक पायी जा सकती है, लेकिन सिर्फ झलक, अवस्था नहीं।

महावीर या कबीर या बुद्ध के पास जो है, वह अवस्था है, झलक नहीं।
लेकिन झलक भी कीमती चीज है। झलक को अवस्था समझ लेना भूल है। तो हिप्पियों से यहां मेरा फर्क है। वे झलक को अवस्था समझ रहे हैं! झलक सिर्फ झलक है। और झलक किसी गोली पर निर्भर है वह व्यक्ति को रूपांतरित टांसफार्म नहीं कर पाती। गोली के असर के बाद आदमी वहीं का वहीं होता है।

लेकिन बुद्ध दूसरे आदमी हैं। उस अनुभव के बाद वे दूसरे आदमी है। सत्य की, ब्रह्म की, आत्मा की, मोक्ष की, निर्वाण की प्रतीति के बाद आदमी दूसरा आदमी है, पहला आदमी मर गया। यह दूसरा जन्म हुआ उसका, वह द्विज हुआ। यह दूसरा ही आदमी है। यह वही आदमी नहीं है।
लेकिन ड्रग्स के द्वारा जो झलक मिलती है, वह झलक ही है अवस्था नहीं है। हिप्पी इतना तो ठीक कहते हैं कि यह झलक कीमती है। और जिन्हें नहीं मिली उन्हें मिल जाए तो शायद वह अनुभव अवस्था की भी तलाश करें।
जैसे यहां मैं बैठा हूं। लंदन मैं नहीं गया हूं, न्यूयार्क मैं नहीं गया हूं, लेकिन एक फिल्म यहां बनाई जा सकती है, जिसमें मैं लंदन को देख लूं। लेकिन यह मेरा लंदन में होना नहीं है। हालांकि फिल्म को देखकर लंदन में होने का खयाल पैदा हो सकता है। एक यात्रा शुरू हो सकती है।

ड्रग्स यात्रा के पहले बिंदु पर उपयोगी हो सकते हैं। इससे मैं हिप्पियों से राजी हूं। और हिप्पी विरोधियों के विरोध में हूं, जो कहते हैं ड्रग्स का कोई उपयोग नहीं, कोई अर्थ नहीं। दूसरी बात में मैं हिप्पी विरोधियों से राजी हूं, क्योंकि यह अवस्था नहीं है। और हिप्पियों के विरोध में हूं, क्योंकि उन्होंने अगर झलक को अवस्था समझा और बाहर से आरोपित, फोर्स्ट केमिकल प्रभाव को उन्होंने समझा कि मेरी आत्मा नयी हो गयी तो वे निश्चित ही भूल में पड़े जा रहे हैं। शराबी सदा से भूल में है। इस भूल के मैं विरोध में हूं। लेकिन यह मुझे लगता है कि आने वाले मनुष्य के लिए साइकेडेलिक ड्रग्स का बहुत कीमती उपयोग किया जा सकता है।

दूसरी बात। हिप्पी क्रांति के विरोध में हैं विद्रोह के पक्ष में। लेकिन मजा यह है कि जितने हिप्पी गए छोड़कर समाज को उनका भी पैटर्न, ढांचा बन गया है। अगर आप बाल काटकर हिप्पियों मे पहुंच जाएं तो हिप्पी आपको ऐसे गुस्से से देखेंगे, जैसे गुस्से से बाल बढ़े आदमी को समाज देखता है! अगर आप हिप्पी समाज में कहें कि मैं रोज स्नान करूंगा तो आप उसी क्रोध से देखे जाएंगे, जिस तरह से किसी ब्राह्मण के घर में ठहरा हूं और कहूं कि आज स्नान न करूंगा। ऐसा यह जो विद्रोह है, वह विद्रोह रिएक्शनरी, प्रतिक्रियात्मक है।
हिप्पी स्नान नहीं करता। महावीर को मानने वाले मुनियों को बड़ा प्रसन्न हो जाना चाहिए। वे भी स्नान नहीं करते। हिप्पी गंदगी को ओढ़ता है। क्योंकि वह कहता है, जैसा मैं हूं, हू। अगर मेरे पसीने में बदबू आती है तो मैं सुगंध परफ्यूम न डालूंगा। आने दो पसीने में बदबू। पसीने में बदबू है। यह बिल्कुल ठीक है। लेकिन यह प्रतिक्रिया अगर है तो खतरनाक है लेकिन परफ्यूम से बदबू मिटाई जा सकती है। और दूसरे आदमी को बदबू झेलने के लिए मजबूर करना, दूसरे की सीमाओं का अनधिकृत अतिक्रमण, ट्रेसपास है। मेरे पसीने में बदबू है, मैं मजे से अपने पसीने में रहूं। लेकिन जब भी दूसरा आदमी मेरे पड़ोस में है, तो उसको भी मेरी बदबू झेलने के लिए मजबूर करना, तो हिंसा शुरू हो गयी। यानी उसकी स्वतंत्रता में बाधा डालना शुरू हो गया।
एक घटना मैंने कही सुनी है कि रवींद्रनाथ के पास गांधीजी मेहमान थे। सांझ को जा रहे थे दोनों घूमने तो रवीद्रनाथ ने कहा, मैं जरा तैयार हो लूं। पर उन्हें तैयार होने में बहुत देर लगी। गांधीजी को तैयार होने की बात में ही हैरानी थी। फिर देर होते देख उन्होंने झांककर भीतर देखा तो पाया कि रवींद्रनाथ आदमकद आइने के सामने खड़े स्वयं को सजाने में लीन हैं! गांधीजी ने कहा, यह क्या कर रहे हैं और इस उम्र में! तो कवि ने कहा, 'जब उम्र कम थी, तब तो बिना सजे भा चला जाता था, अब नहीं चलता है। और मैं किसी को कुरूप दिखू तो लगता है कि उसके साथ हिंसा कर रहा हूं।'
मैं मानता हूं कि रिएक्शनरी कभी भी ठीक अर्थों में रिबेलियस नहीं हो पाता है। प्रतिक्रियावादी जो सिर्फ प्रतिक्रिया कर रहा है, वह समाज से उल्टा हो जाता है। तुम ऐसे कपड़े पहनते हो, हम ऐसे पहनेंगे। तुम स्वच्छता से रहते हो, हम गंदगी से रहेंगे। तुम ऐसे हो, हम उल्टे चले जाएंगे। लेकिन उल्टा जाना विद्रोह नहीं है, प्रतिक्रिया है। मैं मानता हूं विद्रोह की बड़ी कीमत है। लेकिन हिप्पी प्रतिक्रिया में पड़ गया है। प्रतिक्रिया की कोई कीमत नहीं है।
विद्रोह तो एक मूल्य है, लेकिन प्रतिक्रिया एक रोग है।
और ध्यान रहे प्रतिक्रियावादी हमेशा उससे बंधा रहता है, जिसकी वह प्रतिक्रिया कर रहा है। अब ऐसा जरूरी नहीं है, कि एक आदमी नंगा आकर इसके कमरे में बैठे तो वह सहज ही हो। यह भी हो सकता है कि वह सिर्फ कपड़े पहनने वाले लोगों की प्रतिक्रिया में इधर नंगा आकर बैठ गया हो, सहज बिछल न हो। सहजता का तो मूल्य है, लेकिन असहजता कपड़े पहनने में हो ही नहीं सकती, ऐसा कौन कह सकता है। प्रतिक्रिया पकड़ रही है।
प्रतिक्रिया के परिणाम खतरनाक हैं और प्रतिक्रिया ज्यादा स्थायी नहीं होती, सिर्फ संक्रमण की बात होती है। इसलिए धीरे-धीरे प्रतिक्रिया भी सेटल, व्यवस्थित होती जा रही है। हिप्पियों का भी एक समाज बन गया, उसके भी नियम और कानून बन गए। उनकी भी आर्थोडाक्सी बन गयी है! उनका भी पुरोहित, पंडित नेता सब हो गया है! वहां भी आप जाएं तो आप जैसे हैं वे आपको बेचैनी देना शुरू कर देंगे।
अभी मैं एक घटना पढ़ रहा था। एक अमेरिकन पत्रकार महिला हिप्पियों का अध्ययन करने बहुत-से समाजों में गई। वह एक समाज में गई है, वहां भोजन चल रहा है हिप्पियों का तो उन्होंने चम्मचें नहीं ली हैं। हिंदुस्तान में क्या करेंगे? अगर हिप्पी आएं तो बड़ा मुश्किल पड़ेगा। अमेरिका में तो हाथ से खाना बगावत है। हिंदुस्तान में चम्मच से खाना भी बगावत हो सकता है।
हाथ से ही भोजन खा रहे हैं वे! हाथ से खाने की आदत भी नहीं है तो सब गंदे हाथ हो गए हैं। और इकट्ठा भोजन रखा हुआ है, वह सब गंदा हो गया है! और इस तरह भोजन खा रहे हैं! अब यह जो महिला पत्रकार है यह अपनी चम्मच उठाती है तो किसी ने उसकी चम्मच छीन ली। और उसका हाथ भोजन में डाल दिया है। अब वह बहुत घबड़ा गयी है। लेकिन वहां यही नियम है! अगर वह महिला हां भरती है तो मैं कहता हूं, अब वह महिला फिर कंफरमिस्ट हो गयी है। उसे इंकार करना चाहिए। लेकिन वहां इंकार करना मुश्किल है।

वहां एक हिप्पी ने एक स्त्री का ब्लाऊज फाड़ डाला है। उसके ऊपर उसने सब खाना डाल दिया और उसके शरीर से चाट रहा है। अब यह सब प्रतिक्रियाएं हो गयीं। यह पागलपन हो गया। हां, किसी प्रेम के क्षण में किसी स्त्री के शरीर का स्वाद भी अर्थपूर्ण हो सकता है। वह अनिवार्यतः अनर्थ नहीं है। लेकिन बस किसी क्षण में। लेकिन किसी स्त्री के शरीर पर शोरवा डालकर, उसे चाटकर तो वे सिर्फ मुंह दिखा रहे हैं तुम्हारे समाज को; वे यह कह रहे हैं कि क्या तुम समझते हो हमें।
गिंसबर्ग हिप्पी कवि है। एक छोटी-सी 'पोयट्स गेदरिंग', कवि सम्मेलन में बोल रहा है। साहस पर कोई कविता बोल रहा है। और उसमें अश्लील शब्दों का प्रयोग कर रहा है। एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि इसमें कौन-सा साहस है-इस गाली-गलौज का उपयोग करने में। तो गिंसबर्ग ने उत्तर में कहा, फिर साहस देखोगे? असली साहस दिखलाए? उस आदमी ने कहा, दिखलाओ। तो उसने पैंट खोल दिया और वह नंगा खड़ा हो गया! और उसने उस आदमी से कहा कि तुम भी नंगे खड़े हो जाओ, अगर साहसी हो तो। लेकिन नंगे खड़े होने के कौन-सा साहस है? नंगे खड़े होने में साहस है, ऐसा कहने वाला आदमी नंगा खड़ा होने से डरा हुआ होना चाहिए। अन्यथा साहस दिखाना न पड़े! 

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga