ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
इसलिए सवाल यह नहीं कि गंदी फिल्म क्यों है? सवाल यह है कि लोगों में जरूरत
क्यों है? यह तस्वीर जो पोस्टर लगती है, कोई ऐसे ही मुफ्त पैंसा खराब करा
करके नहीं लगाता, इसका कोई उपयोग है। इसे कहीं कोई देखने को तैयार है, मांग
है इसकी। वह मांग कैसे पैदा हुई? वह मांग हमने पैदा की हैं। स्त्री-पुरुष को
दूर करके, वह मांग पैदा कर दी। अब वह मांग 'को पूरा करने जब कोई जाता है तो
हमको लगता है कि गड़बड़ हो रही है। तो उसका और बाधाए डालो। उसको जितनी वह
बाधाएं डालेगा, वह नए रास्ते खोजेगा मांग के। क्योंकि मांग तो अपनी पूर्ति
मांगती है।
तो मैंने उनका कहा कि अगर सच में ही चाहते हो कि पोस्टर विलीन हो जाएं, तो
स्त्री-पुरुषों के बीच की बाधा कम करो। क्योंकि मैं नहीं देखता-आदिवासी समाज
है जहां, स्त्री-पुरुष सहज हैं करीब-करीब नग्न-वहां कोई पोस्टरा लगा
है? या कोई पोस्टर में रस ले रहा है?
जब पहली दफे ईसाई मिशनरी ऐसे कबीलों में पहुंचे, जहां लोग नग्न थे, तो उनको
यह भरोसा ही नहीं आया कि कोई नग्न स्त्री में भी रस ले सकता है, क्योंकि रस
लेने का कोई कारण नहीं है। जब तक हम वस्त्रों में ढांके हैं और दीवाले और
बाधाएं खड़ी किए हैं तब तक रस पैदा होगा, रस पैदा होगा, तो हम सोचते है कि-और
डर पैदा हो रहा है-तो इसका रोको।
मनुष्य की अधिक उलझने इसी भांति की हैं। कि जो सोचता है कि सीढ़ियां हैं
सुलझाव की, वही उपद्रव है, वही बाधाएं है।
तो मैं तो मानता हूं कि बच्चे बड़े हों, साथ बड़े हों; लड़के और लड़कियों के बीच
कोई फासला न हो; साथ देखे, दौड़े, बड़े हों। साथ स्नान करे, तैरें। ताकि
स्त्री-पुरुष के शरीर की नैसर्गिक प्रतीति हो। और वह प्रहाति कभी भी रुग्ण न
बन जाए। और उसके लिए कोई बीमार रास्ते न खोजने पड़ें।
और यह बिल्कुल उचित ही है। यह उचित ही है कि पुरुषों की खीस्त्री के शरीर में
उत्सुकता हो, स्त्री की पुरुषों के शरीर मे उत्सुकता हो। यह बिल्कुल
स्वाभाविक है। और इसमें कुछ भी कुरूप नहीं है और कुछ भी अशोभन नहीं है। अशो
भन तो तब होता है, जो हमने किया है। उससे अशोभन हो गई बात।
अब जिस स्त्री से मेरा प्रेम हो, उसके शरीर में मेरा रस होना स्वाभाविक है,
नहीं तो प्रेम भी नहीं होगा। लेकिन एक अनजान स्त्री को रास्ते में धक्का मार
दूं भीड़ में, यह अशोभन है। लेकिन इसके पीछे ऋषि-मुनियों का हाथ है। जिस
स्त्री से मेरा प्रेम है, उसे मैं अपने करीब, निकट ले लूं, उसका आलिगन करूं,
यह समझ में आने वाली बात है, इनमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन जिस स्त्री को
मैं जानता ही नहीं हूं, जिससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है, रास्ते पर मौका
भीड़ में मिल जाए तो मैं उसको धक्का मार दूं। उस धक्के में कुछ बीमार बात है।
वह धक्का क्यों पैदा हो रहा है? वह धक्का किसी जरूरत का रुग्ण रूप है। जिससे
प्रेम हो सकता है, उसको मैं कभी पास नहीं ले पाता! वह रुग्ण हो गई मेरी
वृत्ति, अब मैं धक्का मारने में भी रस ले रहा हूं। तो भीड़ में एक धक्का ही
मार कर चला गया तो भी समझो कि कुछ सुख पाया और सुख इसमे मिल नहीं सकता;
ग्लानि मिलेगी मन को, निदा मिलेगी, अपराध का भाव पैदा होगा; तो मैं समझूँगा
कि मैं पाप कर रहा हूं, और जितना मैं समझूंगा कि मैं पाप कर रहा हूं, उतना
स्त्री और मेरे बीच का फासला बढ़ता जाएगा। और जितना फासला बढ़ेगा, इसको मिटाने
की बेहूदी कोशिशे करूंगा, और यह चलता रहेगा।
तो मैं तो स्त्री-पुरुष को निकट लाना चाहता हूं, इतने निकट कि उनको यह
प्रतीति नहीं रह जानी चाहिए कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है।
स्त्री-पुरुष होना चौबीस घंटे का बोध नहीं होना चाहिए। वइ बीमारी हें, अगर
इतना बोध बना रहता है तो। स्त्री-पुरुष दोनों को चौबीस घंटे बोध नहीं होना
चाहिए। वह मिटेगा तभी, जब हम बीच में फासले मिटाएंगे।
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