ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
आदमी बेचैन हो जाते हैं, लेकिन उस तरफ उनको खयाल में नहीं आता।
सुबह जब पक्षी गीत गा रहे हैं तो उनको लगता है कि बड़ी दिव्य बात हो रही है।
लेकिन वह पक्षी जो पुकार लगा रहा है, वह सब काम-वासना है। और जब फूल खिलते
हैं ऋषि की बाटिका में तो वह सोचता है बड़ी अद्भुत बात है। और फूलों को जाकर
भगवान को चढ़ा रहा है। लेकिन सब फूल काम-वासना के रूप हैं'। वे वीर्याणु हैं।
उनमें-उनमें छिपा बीज है जन्म का। और फूलों पर तितलियां घूम कर उनके वीर्याणु
को लेकर दूसरे फूलों से जाकर मिला रही हैं। तो फूल देखकर तो ऋषि खुश होता है।
यह उसके खयाल में नहीं है कि फूल जो है, वह काम-वासना का रूप है। पक्षी का
गीत सुनकर खुश होता है। मोर नाचता है तो खुश होता है। कोयल पुकारती है तो खुश
होता है। लेकिन उसे पता नहीं, सिर्फ आदमी में ही क्या परेशानी है?
वही काम! लेकिन आदमी से क्या परेशानी है? वही काम! लेकिन आदमी के काम से वह
परिचित है, वह उसकी खुद की पीड़ा है। बाकी पूरी प्रकृति काम का फैलाव है। यहां
जो भी दिखाई पड़ रहा है, वह सबके भीतर काम छिपा हुआ है। सारा फैलाव सारा खेल
उसका। तो जो काम इतने गहरे में है, वह परमात्मा से जुडा होगा।
तंत्र कहता है: सबसे ज्यादा गहरी चीज काम-वासना है, क्योंकि उससे ही जन्म
होता है, उससे ही जीवन फैलता है। तो इस गहरे तंतु का हम उपयोग कर ले। इस तंतु
से लड़े न, बल्कि इस तंतु को धारा बना लें, जिसमें हम बह जाएं।
और काम-वासना को अगर कोई धारा बना ले, ध्यान बना ले, समाधि बना ले, तो दोहरे
परिणाम होते हैं। वह जो ऋषि निरंतर चाहता है-त्यागवादी-कि छुटकारा हो जाए, वह
भी हो जाता है। और दूसरा परिणाम यह होता है कि यह व्यक्ति काम-वासना से भी
छूट जाता है, और काम-वासना के कारण अहंकार से भी छूट जाता है।
तंत्र की साधना ही स्वस्थ साधना है।
तो मैं तौ विरोध में नहीं हूं। न तो मैं विरोध में हूं कि इस पर्त से बचो। न
बच सकते है। ऐसा ऊपर से बचेंगे तो भीतर अप्सराएं सताएंगी। उससे इस पृथ्वी की
स्त्रियों मे कुछ ज्यादा उपद्रव नहीं! बचने की बात ही मैं मानता हूं, गलत है।
भागना क्यों, डरना क्यों, जीवन जैसा है, उसके तथ्यों में जागरूक होना। और जब
मेरे मन मैं किसका चीज के प्रति आकर्षण है तो इस आकर्षण को समझने की कोशिश
करूं। क्या है यह आकर्षण? क्यों है यह आकर्षण? और इस आकर्षण को मैं कैसे
सृजनात्मक करूं कि इससे मेरा जीवन खिले और विकसित हो। यह मेरा विध्वंस न बन
जाए। और इस आकर्षण का मैं उपयोग कैसे करूं, यह सवाल है।
तो इस आकर्षण का गहरा उपयोग ध्यान के लिए हो सकता है! और स्त्री-पुरुषों की
सन्निधि बड़ी मुक्तिदायी हो सकती है। अगर कभी ऐसा हुआ तो मनुष्य और ज्यादा
समझदार और ज्यादा विचारपूर्ण हुआ। तब हम स्त्री-पुरुष के बीच की सारी बाधाएं
तोड़ देंगे। स्त्री-पुरुष के बीच की बाधाएं तोड़ते ही हमारी नब्बे परसेंट
बीमारियां विलीन हो जाएं। क्योंकि उन बाधाओं के कारण सारे रोग खड़े हो रहे हैं
हमकी दिखाई नहीं पड़ता। और चक्र ऐसा है कि जब रोग खड़े होते हैं तो हम सोचते
हैं और बाधाएं खड़ी करो, ताकि रोग खड़े न हों!
मैं एक गांव में था। और कुछ बड़े विचारक और संत-साधु मिलकर अश्लील पोस्टर
विरोधी एक सम्मेलन कर रहे थे। तो उनका खयाल हें कि अश्लील पोस्टर लगता है
दीवालों पर, इसलिए लोग काम-वासना से परेशान रहते हैं। जबकि हालत दूसरी है,
लोग काम-वासना से परेशान हैं इसलिए पोस्टर में मजा है। यह पोस्टर कौन देखेगा?
पोस्टर को देखने कौन जा रहा है? पोस्टर को देखने वही जा रहा है, जो
स्त्री-पुरुष के शरीर को देख ही नहीं सका। जो शरीर के सौंदर्य को नहीं देख
सका। जो शरीर की सहजता को अनुभव नहीं कर सका, वह पोस्टर देख रहा है।
पोस्टर इन्हीं गुरुओं की कृपा से लग रहे हैं. क्योंकि ये इधर स्त्री-पुरुष को
मिलने-जुलने नहीं देते, पास नहीं होने देते, तो इसका परवटेड, विकृत रूप है कि
कोई गंदी किताब पढ़ रहा है, कोई गंदी तस्वीर देख रहा है, कोई फिल्म बना रहा
है। क्योंकि आखिर यह फिल्म कोई आसमान से नहीं टपकती, लोगो की जरूरत है?
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