ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
और इसके गहरे परिणाम होगे-कि समाज की अश्लीलता, गंदा साहित्य गंदी फिल्में,
बेहूदा वृत्तियां, वे अपने आप गिर जाएं। और एक ज्यादा स्वस्थ मनुष्य का जन्म
हो। और यह जो स्वस्थ मनुष्य है, इसकी मैं आशा कर सकता हूं कि यह धार्मिक हो
सके। क्योंकि जो स्वस्थ ही नहीं हो पाया अभी, उसके धार्मिक होने की कोई आशा
मैं नहीं मानता।
तो एक तो धर्म हैँ, जो अधर्म में भी बुरा है, अस्वस्थ धर्म। उससे तो अधर्म
ठीक है। और एक धर्म है जो अधर्म से श्रेष्ठ है, और उसे मैं कहता हूं स्वस्थ
धर्म। जीवन की समझ, प्रतीति, अनुभव, होश-इससे पैदा हुआ धर्म।
स्त्री-पुरुष जितने निकट होंगे, उतना ही यह जो उपद्रव है, शांत हो जाए। और यह
उपद्रव शांत हो जाए तो असली खोज शुरू हो। क्योंकि आदमी बिना आकर्षण के नहीं
जी सकता। और अगर स्त्री-पुरुष का आकर्षण शांत हो जाता है तो वे और गहरे
आकर्षण की खोज मे लग जाते है। बिना आकर्षण के जाना मुश्किल है। वही प्रयोजन
है। और जो स्त्री-पुरुष में ही लड़ता रहता है-उसका आकर्षण तो कायम रहता है,
दूसरा आकर्षण का कोई उपाय नहीं है।
परमात्मा मेरे लिए प्रकृति में ही गहरे अनुभव का नाम है।
और जिस दिन वह अनुभव होने लगता है उस दिन, ये सारे, जिनसे हम बचना चाहते थे,
इनसे हम बच जाते हैं पर बिना कोई चेष्टा किए। एक तो कच्चा फल है, जिसको कोई
झटका देकर तोड़ ले, और एक पका हुआ फल है जो वृक्ष से गिर जाता है। न वृक्ष को
खबर होती है कि वह कब गिर गया; न फल को खबर होती है कब गिर गया। न फल को लगता
है कि कोई बड़ा भारी प्रयास करना पड़ा। न कही कुछ होता है। यह सब चुपचाप हो
जाता है।
तो जीवन के अनुभव से एक वैराग्य का जन्म होता है, जिसको मैं पका हुआ फल कहता
हूं। और जीवन में लड़ने से एक वैराग्य का जन्म होता है, जिसको मैं कच्चा फल
कहता हूं। सब तरफ घाव छूट जाते हैं। और उन घावों का भरना मुश्किल है। तो मैं
तो किसी ऐसे शास्त्रों के पक्ष में नहीं हूं।
मेरा तो मानना यह है कि जो भी प्रकृति से उपलब्ध है उसका समय, सर्वागीण
स्वीकार।
और उसी स्वीकार से रूपांतरण है। और यही रूपांतरण गहरा हो सकता है।
संघर्ष में मेरा भरोसा नहीं है। और इसी बात को मैं आस्तिकता कहता हूं। सब
त्यागियों को मैं नास्तिक कहता हूं। क्योंकि परमात्मा की सृष्टि उन्हें
स्वीकार नहीं। और जिनको परमात्मा की सृष्टि स्वीकार नहीं वे, परमात्मा भी
उन्हें मिल जाएगा तो स्वीकार करेंगे, मैं नहीं मानता। अस्वीकृति की उनकी आदत
इतनी गहरी है कि जब वे परमात्मा को भी देखेंगे तो हजार भूलें निकाल लेंगे कि
इसमें यह पाप है।
शोपनहार ने कहीं कहा है कि हे परमात्मा, तू तो मुझे स्वीकार है, तेरी सृष्टि
स्वीकार नहीं है। लेकिन इनको परमात्मा स्वीकार है तो उसकी सृष्टि
अनिवार्यरूपेण स्वीकृत हो जाए। और अगर उसकी सृष्टि स्वीकार नहीं है, तो बहुत
गहरे में हम उसे भी स्वीकार नहीं कर सकते। कैसे स्वीकार करेंगे? फिर या तो हम
परमात्मा से ज्यादा समझदार हो गए हैं। उससे ऊपर अपने को रख लिया कि हम उसमें
भी चुनाव करते हैं।
मेरा कोई चुनाव नहीं मैं तो मानता हूं, जो प्रकट है, वह अप्रकट का ही हिस्सा
है। जो दिखाई पड़ रहा है, उसके पीछे ही अदृश्य छिपा हुआ है। थोड़ी पर्त भीतर
प्रवेश करने की जरूरत है। और प्रेम जितना गहरा जाता है, इस जगत में कोई और
चीज इतनी गहरी नहीं जाती। मैं छुरा मार सकता हूं आपकी छाती में, वह इतना गहरा
जाएगा जितना मेरा प्रेम आपके भीतर गहरा जाएगा। प्रेम से गहरा तो कुछ भी नहीं
जाता। इसको भी जो छोड़ देता है, वह उथला सतह पर रह जाता है। तो मेरे मन में तो
ऐसे शाख अनिष्ट हैं। और जितने शीघ्र उनसे छुटकारा हो, उतना अच्छा। और ऐसे
ऋषि-मुनियों को चिकित्सा... मानसिक रोग है इन्हें।
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