ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
जिस दिन आपने उपवास किया है, उस दिन भोजन के स्वप्न उग जाएंगे। और अगर दो-चार
महीने आपको लंबा उपवास करना पड़े तो आप डिल्यूजन की हालत मे हो
जाएंगे-मस्तिष्क से जो भी देखेगा, भोजन ही दिखाई पड़ेगा। कुछ मी सुनेगा, भोजन
ही सुनाई पड़ेगा! कोई भी गंध आएगी, वह भौजन को हो गंध होगी। इससे कही कोई
संबंध बाहर का नहीं हें। इसके पूर्ततर जो अभाव पैदा हो गया हैं, वह प्रक्षेपण
कर रहा हैं।
तो जब इन ऋषि-मुनियों को ऐसा लगा कि स्त्री सब तरह से डिगाती हैं और उनके
ध्यान की अवस्था में आ जाती है। और वे बड़ी ऊंचाई पर चढ़ रहे थे और नीए गिर
जाते हैं। कोई न गिरा रहा है, न कहीं वे चढ़ रहे हैं, सब उनके मन का खेल है।
तो जिससे लड़ रहे थे, जिससे भाग रहे थे, उसीसे खिचकर नीचे गिर जाते है। तो
फिर स्वभावतः उन्होंने कहा कि स्त्री को देखना भी नहीं छूना भी नहीं। स्त्री
बैठा हो किसी जगह तो उस जगह भी एकदम मत बैठ जाना। कुछ काल व्यतीत हो जाने
देना, ताकि उस स्त्री वी ध्वनि-तरंगें उस स्थान से अलग हो जाए। अब यह बिल्कुल
रुग्ण-चित्त लोगों की दशा है। इतने भयभीत लोग! और जो स्त्री से इतने भयभीत
हो, वे कुछ और पा सकेगे, इसकी संभावना नहीं है।
इस तरह के लोगों ने जो बातें लिखी हैं, मै मानता हूं कि आज नहीं कल, हम उनको
विक्षिप्त, मनोविकार-परत शास्त्रों मे गिनेंगे। मेरा कोई समप्रर्ग्न इनको
नहीं है।
मेरा तो मानना ऐसा है कि जीवन में मुक्ति का एक ही उपाय है कि जीवन का जितना
गहन अनुभव हो सकें...और जिस चीज के हम जितने गहन अनुभव में उतर जाते है, उतना
ही उससे हमारा छुटकारा हो जाता है।
अगर निषेध से रस पैदा होता है तो अनुभव से वैराग्य पैदा होता हें।
मेरी यह दृष्टि है कि जिस चीज को हम जान लेते हैं जानते ही हमारा उससे जो
विक्षिप्त आकर्षण था, वह शांत होने लगता है।
और स्वभावतः काम का आकर्षण सर्वाधिक है-होगा। क्योंकि हम उत्पन्न काम से होते
हैं। और हमारे शरीर का एक-एक कण जीवाणु का कण है। माता-पिता के जिस कामाणु से
निर्माण होता है, फिर उसी का विस्तार हमारा पूरा शरीर है। तो हमारा रोआ-रोआ
काम सै निर्मित है। पूरी सृष्टि-काम सृष्टि है। इसमें होने का मतलब ही है,
काम-वासना के भीतर होना।
जैसे हम श्वास ले रहे हैं हवा में, उससे भी गहरा हमारा अस्तित्व कामवासना में
है। क्योंकि श्वास लेना तो बहुत बाद में शुरू होता है। बच्चा जब मां के पेट
से पैदा होगा और जब रोका, तब पहली श्वास लेगा, इसके पहले भी नौ महीने वह
जिंदा रह चुका है। और वह नौ महीने जो जिंदा रह चुका है, वह तो उसकी काम-ऊर्जा
का ही सारा फैलाव है। तो वह जो काम-ऊर्जा से हमारा सारा शरीर निर्मित है,
कण-कण निर्मित है, श्वास से भी गहरा हमारा उसमें अस्तित्व छिपा हुआ है। उससे
भागकर कोई बच नहीं सकता, क्योंकि भागोगे कहां, वह तुम्हारे भीतर है, तुम ही
हो! तो मैं कहता हूं, उससे भागने की कोई जरूरत नहीं, और भागने वाला उपद्रव
में पड़ जाता है। तो जीवन में जो है उसका सहज अनुभव उसका स्वीकार।
और जितना गहरा अनुभव होता है, उतना हम जाग सकते हैं।
इसलिए मैं तंत्र के पक्ष में हूं, त्याग के पक्ष में नहीं हूं। और मेरा मानना
है, जब तक त्यागवादी धर्म दुनिया से समाप्त नहीं होते, तब तक दुनिया सुखी
नहीं हो सकती, शांत भी नहीं हो सकती। सारे रोग की जड़ उनमें छिपी है।
तंत्र की दृष्टि बिल्कुल उल्टी है। तंत्र कहता है कि अगर स्त्री-पुरुष के बीच
आकर्षण है, तो इस आकर्षण को दिव्य बनाओ। इससे भागो मत, इसको पवित्र करो। अगर
काम-वासना इतनी गहरी है तो इससे तुम भाग सकोगे भी नहीं। इस गहरी काम-वासना को
ही क्यों न परमात्मा से जुडने का मार्ग बनाओ। और अगर सृष्टि काम से हो रही है
तो परमात्मा को हम काम-वासना से मुक्त नहीं कर सकते, नहीं तो कुछ होने का
उपाय नहीं रह जाता।
अगर कही भी कोई शक्ति है इस जगत में तो उसका हमें किसी-न-किसी रूप में
काम-वासना से संबंध जोड़ना ही पड़ेगा। नहीं तो इस सृष्टि के होने का कही कोई
आधार नहीं रह जाता। इस सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, वह किसी-न-किमी रूप में
परमात्मा से जुड़ा है। और हम आखें खोलकर चारो तरफ देखें तो सारा काम का फैलाव
है। आदमी है तो हम बेचैन हो जाते है-वे ऋषि-मुनि भी!
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