ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
|
248 पाठक हैं |
संभोग से समाधि की ओर...
जीने का इतना ही अर्थ है कि 'इग्जिस्ट' करते हैं। हम दो रोटी खा लेते हैं
पानी पी लेते हैं और कल तक के लिए जी जाते हैं। लेकिन जीना ठीक अर्थों में
तभी उपलब्ध होता है, जब हम 'एफ्ल्युएन्स' को, समृद्धि को उपलब्ध हों।
जीवन का अर्थ है 'ओवर फ्लोइंग'। जीने का अर्थ है, कोई चीज हमारे ऊपर से बहने
लगे।
एक फूल है, आपने कभी खयाल किया है कि फूल कैसे खिलता है पौधे पर? अगर पौधे को
खाद न मिले, ठीक पानी न मिले, तो पौधा जिंदा रहेगा, लेकिन फूल नहीं खिलेगा।
फूल 'ओवर फ्लोइंग' है। जब पौधे में इतनी शक्ति इकट्ठी हो जाती है कि अब
पत्तों को, शाखाओं को, जड़ों को कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, जब पौधे के पास
कुछ अतिरिक्त इकट्ठा हो जाता है, तब फूल खिलता है। फूल जो है, वह अतिरिक्त
है, इसलिए फूल सुंदर है। वह अतिरेक है। वह किसी चीज का बहुत हो जाने के बहाव
से है।
जीवन में सभी सौंदर्य अतिरेक हैं। सभी सौंदर्य 'ओवर फ्लोइंग' हैं ऊपर से बह
जाना है।
जीवन के सब आनंद भी अतिरेक हैं। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह सब ऊपर से बहा
हुआ है।
महावीर और बुद्ध राजाओं के बेटे हैं, कृष्ण और राम भी राजाओं के बेटे हैं! ये
'ओवर फ्लोइंग' हैं। ये फूल जो खिले हैं, गरीब के घर में नहीं खिल सकते थे।
कोई महावीर गरीब के घर में पैदा नहीं होगा, कोई बुद्ध भी गरीब के घर में पैदा
नहीं होगा। कोई राम और कोई कृष्ण भी नहीं।
गरीब के घर में ये फूल नहीं खिल सकते। गरीब सिर्फ जी सकता है, उसका जीना इतना
न्यूनतम है कि उससे फूल खिलने का कोई उपाय भी नहीं। गरीब पौधा है, वह किसी
तरह जी लेता है, किसी तरह उसके पत्ते भी हो जाते हैं, किसी तरह शाखाएं भी
निकल जाती हैं। लेकिन न तो वह पूरी ऊंचाई ग्रहण कर पाता है, न वह सूरज को छू
पाता है, न आकाश की तरफ उठ पाता है, न उसमें फूल खिल पाते हैं क्योंकि फूल तो
तभी खिल सकते हैं, जब पौधे के पास जीने से अतिरिक्त शक्ति इकट्ठी हो जाए।
जीने से अतिरिक्त जब इकट्ठा होता है, तभी फूल खिलते है।
ताजमहल भी वैसा ही फूल है। वह अतिरेक से निकला हुआ फूल है।
जगत में जो भी सुंदर है, साहित्य है, काव्य है, वे सब अतिरेक से निकले हुए
फूल हैं।
गरीब की जिंदगी में फूल कैसे खिल सकते है?
लेकिन हम रोज अपने को गरीब करने का उपाय करते चले जाते हैं? लेकिन ध्यान रहे,
जीवन में जो सबसे बड़ा फूल है परमात्मा का...वह संगीत साहित्य काव्य चित्र और
जीवन से छोटे-छोटे आनंद से भी ज्यादा शक्ति जब ऊपर इकट्ठी होती है, तब वह परम
फूल खिलता है परमात्मा का।
लेकिन गरीब समाज उस फूल के लिए कैसे उपयुक्त बन सकता है? गरीब समाज रोज दीन
होता जाता है, रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप जब दो बेटे पैदा करता है,
तो अपने से दुगुने गरीब पैदा करता जाता है। जब वह अपने चार बेटों में संपत्ति
का विभाजन करता है तो उसकी संपत्ति नहीं बंटती। संपत्ति तो है ही नहीं। बाप
ही गरीब था, बाप के पास ही कुछ न था, तो बाप सिर्फ अपनी गरीबी बांट देता है
और चौगुने गरीब समाज में, अपने बच्चों को खड़ा कर जाता
है।
हिंदुस्तान सैकड़ों सालों से अमीरी नहीं सिर्फ गरीबी बांट रहा है।
हां, धर्म-गुरु सिखाते हैं ब्रह्मचर्य! वे कहते हैं कि कम बच्चे पैदा करना हो
तो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। कितु गरीब आदमी के लिए मनोरंजन के सब साधन
बंद हैं। और धर्म-गुरु कहते हैं कि वह ब्रह्मचर्य धारण करे! अर्थात् जीवन में
जो कुछ मनोरंजन का साधन उपलब्ध है, उसे भी बह्मचर्य से बंद कर दे! तब तो गरीब
आदमी मर ही गया। वह चित्र देखने जाता है तो रुपया खर्च होता है। किताब पढ़ने
जाता है तो रुपया खर्च होता है। संगीत सुनने जाता है तो रुपया खर्च होता है।
एक सस्ता और सुलभ साधन था, धर्म-गुरु कहता है कि ब्रह्मचर्य से उसे भी बंद कर
दे! इसीलिए धर्म-गुरु की ब्रह्मचर्य की बात कोई नहीं सुनता, खुद धर्म-गुरु ही
नहीं सुनते अपनी बात। यह बकवास बहुत दिनों चल चुकी, उसका कोई लाभ नहीं हुआ।
उससे कोई हित भी नहीं हुआ।
|