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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


धर्म-गुरु सारी बातें ईश्वर पर थोप देता है।
अब सारी दुनिया के धर्म-गुरुओं ने सब बातें ईश्वर पर थोप दी हैं, और ईश्वर कभी गवाही देने आता नहीं कि उसकी मर्जी क्या है? वह क्या चाहता है? उसकी क्या इच्छा है? इंग्लैड और जर्मनी में अगर युद्ध हो, तो इंग्लैड का धर्म-गुरु समझाता है कि ईश्वर की इच्छा है कि इग्लैडं जीते। और जर्मनी का धर्म-गुरु समझाता है कि ईश्वर की इच्छा है, जर्मनी को जिताना। जर्मनी में उसी भगवान से प्रार्थना की जाती है कि अपने देश को जिताओ और इंग्लैड में भी पादरी और पुरोहित प्रार्थना करता है कि हे भगवान अपने देश को जिताओ!

ईश्वर की इच्छा पर हम अपनी इच्छा थोपते रहते हैं! ईश्वर बेचारा बिल्कुल चुप है। कुछ पता नहीं चलता कि उसकी इच्छा क्या है? अच्छा हो कि हम ईश्वर
पर अपनी इच्छाएं न थोपें। हम इस जीवन को सोचें, समझें और वैज्ञानिक रास्ता निकालें।
यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जो समाज जितना समृद्ध होता है, वह उतने ही कम बच्चे पैदा करता है। लेकिन दुःखी, दीन, दरिद्र लोग जीवन में किसी अन्य मनोरंजन और सुख की सुविधा न होने से सिर्फ सेक्स में ही सुख लेने लगते हैं उनके पास और कोई उपाय नहीं रहता।

एक अगर संगीत भी सुनता है, साहित्य भी पढ़ता है, चित्र भी देखता है, घूमने भी जाता है, पहाड़ की यात्रा भी करता है, उसकी शक्ति बहुत दिशाओं में बह जाती है। एक गरीब आदमी के पास शक्ति बहाने का और कोई उपाय नहीं रहता। उसके मनोरंजन का कोई और उपाय नहीं रहता, क्योंकि सब मनोरंजन खर्चीले हैं; सिर्फ सेक्स ही ऐसा मनोरजन हैं, जो मुफ्त उपलब्ध है। इसलिए गरीब आदमी बच्चे इकट्ठे करता चला जाता है।

गरीब आदमी इतने अधिक बच्चे इकट्ठे कर लेता है कि गरीबी बढ़ती चली जाती है। गरीब आदमी ज्यादा बच्चे पैदा करता है। गरीब के बच्चे और गरीब होते हैं वे और बच्चे पैदा करते जाते हैं और देश और गरीब होता चला जाता है। किसी न किसी तरह गरीब आदमी की इस भ्रामक स्थिति को तोड़ना जरूरी है। इसे तोड़ना ही पड़ेगा, अन्यथा गरीबी का कोई पारावार न रहेगा। गरीबी इतनी बढ़ जाएगी कि जीना असंभव हो जाएगा।

इस देश में तो गरीबी बढ़ ही गई है, जीना करीब-करीब असंभव हो गया है। कोई मान ही नहीं सकता कि हम जी रहे हैं। अच्छा हो कि कहा जाए कि हम धीरे-धीरे मर रहे हैं।
जीने का क्या अर्थ?

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga