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संभोग से समाधि की ओर...
जब परिस्थितियां बदल जाती हैं तब पुराने नियम विदा हो जाते हैं।
लेकिन आज भी घर में एक बच्चा पैदा होता है, तो हम बैंडबाजा बजवाते हैं!
शोरगुल करते हैं प्रसाद बांटते हैं! पांच हजार साल पहले बिछल ऐसी ही बात थी,
क्योंकि पांच हजार साल पहले दस बच्चे पैदा होते थे, तो सात और आठ मर जाते थे
और उस समय एक बच्चे का पैदा होना बड़ी घटना थी। समाज के लिए उसकी बड़ी जरूरत
थी। क्योंकि समाज में बहुत थोड़े लोग थे। लोग ज्यादा होना चाहिए नहीं तो पड़ोसी
शत्रु के हमले में जीतना मुश्किल हो जाएगा। एक व्यक्ति का बढ़ जाना बड़ी ताकत
थी, क्योकि व्यक्ति ही अकेली ताकत था। व्यक्ति से लड़ना था। पास के कबीले से
हारना संभव हो जाता, अगर संखया कम हो जाती। तब संख्या को बढ़ाने की कोशिश करना
जरूरी था। संख्या क्तिनी बढ़ जाए उतना कबीला मजबूत हो जाता था। इसलिए संख्या
का बड़ा महत्व था।
लोग कहते थे कि हम इतने करोड़ हैं। उसमें बड़ी अकड़ थी, उसमें बड़ा अहंकार था।
लेकिन वक्त बदल गया, हालतें बिल्कुल उल्टी हो गयी हैं। नियम पुराना चल रहा
है, हालतें बिल्कुल उल्टी हो गयी हैं!
अब जो जितनी ज्यादा संख्या में है, वह उतनी ही जल्दी मरने के उपाय में है। तब
तो जितनी ज्यादा संख्या में था, उतनी ज्यादा उसके जीतने की संभावना थी। आज
संख्या जितनी ज्यादा होगी, मृत्यु उतनी ही नजदीक हो जाएगी।
आज जनसंख्या का बढ़ना स्यूइसाइडल है, आत्मघाती है।
आज कोई समझदार मुल्क अपनी संख्या नहीं बढ़ा रहा है, बल्कि समझदार मुल्कों में
संख्या गिरने तक की संभावना पैदा हो गयी है, जैसे फ्रांस में। फ्रांस की
सरकार थोड़ी चिंतित हो गयी है, क्योंकि संख्या कहीं ज्यादा न गिर जाए, यह डर
भी पैदा हो गया है। लेकिन, कोई समझदार मुल्क अपनी सँख्या नहीं बढ़ा रहा है।
संख्या न बढ़ने के पीछ कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि यदि जीवन में सुख
चाहिए तो न्यूनतम लोग होने चाहिए। अगर दीनता चाहिए दुःख चाहिए, गरीबी चाहिए
बीमारी चाहिए, पागलपन चाहिए तो अधिकतम लोग पैदा करना उचित है।
जब एक बाप अपने पांचवें और छठवें बच्चे के बाद भी बच्चे पैदा कर रहा है तो वह
बच्चे का बाप नहीं, दुश्मन है। क्योंकि, वह उसे ऐसी दुनिया में धक्का दे रहा
है, जहां वह सिर्फ गरीबी ही बांट सकेगा। वह बेटे के प्रति प्रेम जाहिर नहीं
कर रहा है। बेटे के प्रति प्रेम जाहिर हो, तो वह सोचेगा कि इस बेटे को मिल
क्या सकता है? इसको पैदा करना अब प्रेम नहीं सिर्फ नासमझी है और दुश्मनी है।
आप दुनिया के समझदार मां-बाप हो सकते हैं इस बात को सोचकर कि आप कितने बच्चे
पैदा करेंगे। आने वाली दुनिया में संख्या दुश्मन हो सकती है। कभी संख्या उसकी
मित्र थी, कभी संख्या बढ़ने से सुख बढ़ता था, आज संख्या बढ़ने से दुःख बढ़ता है।
स्थिति बिल्कुल बदल गयी है।
आज जिन लोगों को भी इस जगत में सुख की, मंगल की कामना है, उन्हें यह फिक्र
करनी ही पड़ेगी कि संख्या निरंतर कम होती चली जाए।
हम अपने को अभागा बना सकते हैं, हमें उसका कोई भी बोध नहीं, हमें उसका कोई
ख्याल नहीं! 1947 में हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था, तब किसी ने
सोचा भी न होगा कि बीस साल में पाकिस्तान में जितने लोग गए थे, हम उससे
ज्यादा लोग पैदा कर लेंगे।
हमने एक पाकिस्तान फिर पैदा कर लिया।
1947 में जितनी संख्या पूरे हिंदुस्तान और पाकिस्तान को मिलाकर थी, आज अकेले
हिंदुस्तान की उससे ज्यादा है। यह संख्या इतने अनुपात से बढ़ती चली जा रही है!
और फिर दुःख बढ़ रहा है, दरिद्रता बढ़ रही है, दीनता बढ़ रही है, बेकारी बढ़ रही
है तो हम परेशान होते हैं। उससे डरते हैं और हम कहते हैं कि बेकारी नहीं
चाहिए, बीमारी नहीं चाहिए, हर आदमी को जीवन की सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए। और
हम यह भी नहीं सोचते कि जो हम कर रहे हैं उससे हर आदमी को जीवन की सारी
सुविधाएं कभी भी नहीं मिल सकती। हमारे बेटे बेकार ही रहेंगे। भिखमंगी और
गरीबी बढ़ेगी। लेकिन, हमारे धर्म-गुरु समझाते हैं कि यह ईश्वर का विरोध है,
संतति नियमन की बात ईश्वर का विरोध है!
तो क्या इसका यह मतलब नहीं हुआ कि ईश्वर चाहता है कि लोग दीन रहें, भीख
मांगें, गरीब हों, भूखों मरें, सड़कों पर नंगे घूमें। अगर ईश्वर यही चाहता है,
तो ऐसे ईश्वर की चाह को भी इंकार करना पड़ेगा। लेकिन, ईश्वर ऐसा कैसे चाह
सकता है?
हां, धर्मु-गुरु जरूर चाह सकते हैं। क्योंकि मजे की बात यह है कि दुनिया में
जितना दुःख बढ़ता है, धर्म-गुरुओं की दुकानें उतनी ही ठीक से चलती हैं। दुनिया
में सुख की दुकानें नहीं हैं। धर्म की दुकानें दुनिया के दुःख पर निर्भर हैं।
सुखी और आनंदित आदमी धर्म-गुरु की तरफ नहीं जाता। स्वस्थ और प्रसन्न आदमी
धर्म-गुरु की तरफ नहीं जाता! दुःखी, बीमार और परेशान व्यक्ति धर्म-गुरु की
तलाश करता है।
हां, सुखी और आनंदित आदमी धर्म की खोज कर सकता है, लेकिन धर्म-गुरु की नहीं।
सुखी और आनंदित आदमी अपनी तरफ से सीधे परमात्मा की खोज
पर जा सकता है, लेकिन किसी का सहारा मांगने नहीं जा सकता।
दुःखी और परेशान आदमी आत्म-विश्वास खो देता है। वह किसी का सहारा चाहता है।
किसी धर्म-गुरु के चरण चाहता है। किसी का हाथ चाहता है ओंर किसी का
मार्ग-दर्शन चाहता है।
दुनिया में जब तक दुःख है, तभी तक धर्म-गुरु टिक सकता है। धर्म तो टिकेगा
सुखी हो जाने के बाद भी, लेकिन धर्म-गुरु के टिकने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए धर्म-गुरु चाहेगा कि दुःख खत्म न हो जाएं, दुःख समाप्त न हो जाएं। उनके
अजीब-अजीब धंधे हैं।
मैंने सुना है, एक रात एक होटल में बहुत देर तक कुछ मित्र आकर शराब पीते रहे,
भोजन करते रहे। आधी रात जब वे विदा होने लगे तो मैनेजर ने अपनी पत्नी से कहा
कि ऐसे भले प्यारे, दिल-फेंक खर्च करने वाले लोग अगर रोज आएं तो हमारी जिंदगी
में आनंद ही आनंद हो जाए। चलते वक्त मैनेजर ने उनसे कहा, ''आप जब कभी
आया करें। बड़ी कृपा होगी। आप आए हम बड़े आनंदित हुए।'' जिस आदमी ने पैसे चुकाए
थे, उसने कहा, ''भगवान से प्रार्थना करना कि हमारा धंधा ठीक चले, हम रोज आते
रहेंगे।'' मैनेजर ने पूछा, ''लेकिन आपका धंधा क्या है?'' उसने कहा, ''यह मत
पूछो, तुम तो सिर्फ प्रार्थना करना कि हमारा धंधा ठीक से चलता रहे।'' फिर भी
उसने कहा, कृपाकर बता तो दें कि आपका धंधा क्या है?
उसने कहा कि मैं मरघट में लकड़ी बेचने का काम करता हूं। हमारा धंधा रोज चलता
रहे, तो हम बराबर आते रहेंगे। कभी-कभी ऐसा होता है कि धंधा बिछल नहीं चलता।
कोई गांव में मरता ही नहीं, लकड़ी बिल्कुल नहीं बिकती। जिस दिन गांव में
ज्यादा लोग मरते हैं उस दिन लकड़ी ज्यादा बिकती हैं और हम लोग चले आते हैं।
आपने सुना होगा डाक्टर लोग भी कुछ ऐसा ही कहते हैं जब मरीज ज्यादा होते हैं
तो कहते हैं सीजन अच्छा चल रहा है। आश्चर्य की बात है। अगर किन्हीं लोगों का
धंधा लोगों के बीमार होने से चलता हो, तो फिर बीमारी मिटना बहुत मुश्किल हो
जाएगी।
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