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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


गाय घास खाती है, हम गाय का दूध पी लेते हैं। हम सीधा घास खाएं तो मुश्किल होगी, बीच में मध्यस्थ गाय चाहिए। गाय घास को इस हालात में बदल देती है कि हमारे भोजन के योग्य हो जाए। आज नहीं तो कल, हम मशीन की गाय भी बना लेंगे, जो घास को इस हालत में बदल दे कि हम उसको खा लें। तब दूध जल्दी ही बन सकेगा। जब व्हेजिटेबल घी बन सकता है, तो व्हेजिटेबल दूध क्यों नहीं बन सकता? कोई कठिनाई नहीं है। भोजन का मसला तो हल हो जाएगा। लेकिन असली सवाल भोजन का नहीं है। असली सवाल ज्यादा गहरे है।
अगर आदमी की भीड़ बढ़ती जाती है, तो पृथ्वी कीड़े-मकोड़े की तरह आदमियों से भर जाएगी। इससे आदमी की आत्मा खो जाती। और उस आत्मा को देने का विज्ञान के पास कोई उपाय नहीं है। आत्मा खो ही जाएगी। और अगर भीड़ बढ़ती चली जाती है, तो एक-एक व्यक्ति पर चारो तरफ से बहुत अनजाना दबाव पडेगा। हमें अनजाने दबाव कभी दिखाई नहीं पड़ते।

आप जमीन पर चलते हैं आपने कभी सोचा कि जमीन का ग्रेव्हिटेशन, गुरुत्वाकर्षण आपको खींच रहा है। हम बचपन से ही इसके आदी हो गए हैं, इससे हमे पता नहीं चलता, लेकिन जमीन का बहुत बड़ा आकर्षण हमें पूरे वक्त खींचे है। अभी चांद पर जो यात्री गए हैं उन्हें पता चला कि जमीन उन्हे लौटकर वैसी नहीं लगी, जैसी पहले लगती थी। चांद पर वे यात्री साठ फीट छलांग भी लगा सकते है क्योंकि चांद की पकड़ बहुत कम है। चांद बहुत नहीं खींचता, जमीन बहुत जोर से खींच रही है। हवाएं चारों तरफ से दबाव डाले हुए हैं लेकिन उनका हमें पता नहीं चलता; क्योंकि हम उसके आदी हो गए हैं।

और बहुत-से अनजाने मानसिक दबाव भी हैं। गुरुत्वाकर्षण तो भौतिक दबाव है लेकिन चारों तरफ से लोगों की मौजूदगी भी हमको दबा रही है वे भी हमे भीतर की तरफ प्रेस कर रहे हैं। सिर्फ उनकी मौजूदगी भी हमे परेशान किए हुए है। अगर यह भीड़ बढ़ती चली जाती है, तो एक सीमा पर पूरी मनुष्यता के 'न्यूरोटिक', विक्षिप्त हो जाने का डर है।

सच तो यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान यह कहता है कि जो लोग पागल हुए जा रहे हैं, उन पागल होने वालों में नब्बे प्रतिशत पागल ऐसे हैं जो भीड़ के दबाव को नहीं सह पा रहे हैं। दबाव चारों तरफ से बढ़ता चला जा रहा है, और भीतर दबाव को सहना मुश्किल हुआ जा रहा है, उनके मस्तिष्क की नसें फटी जा रही हैं। इसलिए बहुत गहरे में सवाल सिर्फ मनुष्य के शारीरिक बचाव, फिजिकल सरवाइवल का ही नहीं है, उसके आत्मिक बचाव का भी है।
जो लोग यह कहते हैं कि संतति नियमन जैसी चीजें अधार्मिक हैं उन्हें धर्म का कोई पता नहीं है, क्योंकि धर्म का पहला सूत्र है कि व्यक्ति को व्यक्तित्व मिलना चाहिए और व्यक्ति के पास एक आत्मा होनी चाहिए। व्यक्ति भीड़ का हिस्सा न रह जाए।
लेकिन जितनी भीड़ बढ़ेगी, उतना ही हम व्यक्तियों की फिक्र करने में असमर्थ हो जाएंगे। जितनी भीड़ ज्यादा हो जाएगी, उतनी हमें भीड़ की फिक्र नहीं करनी पड़ेगी। जितनी भीड़ बढ़ जाएगी, उतनी ही हमें पूरे के पूरे जगत की इकट्ठी फिक्र करनी पड़ेगी। फिर यह सवाल नहीं होगा कि आपको कौन-सा भोजन प्रीतिकर है, और कौन-से कपड़े प्रीतिकर हैं और कैसे मकान प्रीतिकर हैं तब ये सवाल नहीं हैं। कैसा मकान दिया जा सकता है भीड़ को, कैसे कपड़े दिए जा सकते हैं भीड़ को, कैसा भोजन दिया जा सकता है भीड़ को, यह सवाल होगा। तब व्यक्ति का सवाल विदा हो जाता है और भीड़ के एक अंश की तरह आपको भोजन कपड़ा और अन्य सुविधाएं दी जा सकती हैं।

अभी एक मित्र जापान से लौटे हैं, वे कह रहे थे कि जापान में घरों की कितनी तकलीफ है। भीड़ बढ़ती चली जा रही है। एक नए तरह के पलंग उन्होंने ईजाद किए हैं। आज नहीं कल हमें भी ईजाद करने पड़ेंगे। वे 'मल्टी-स्टोरी' पलंग हैं! रात आप अकेले सो भी नहीं सकते! सब खाटें एक साथ जुड़ी हुई हैं एक के ऊपर एक! रात में जब आप सोते हैं तो अपने नम्बर की खाट पर चढ़कर सो जाते हैं। आप सोने में भी भीड़ के बाहर नहीं रह सकेंगे, क्योंकि भीड़ बढ़ती चली जा रही है, वह रात आपके सोने के कमरे में भी मौजूद हो जाएगी। पर दस आदमी एक ही खाट पर सो रहे हों, तो वह घर कम रह गया रेलवे कम्पार्टमेंट ज्यादा हो गया। रेलवे कम्पार्टमेंट में भी अभी 'टेन-टायर' नहीं हैं। लेकिन दस में भी मामला हल नहीं हो जाएगा।

अगर यह भीड़ बढ़ती जाती है तो वह सब तरफ व्यक्ति का 'एस्क्रोचमेंट' करेगी, वह व्यक्ति को सब तरफ से घेरेगी, सब तरफ से बंद करेगी। और हमें ऐसा कुछ करना पड़ेगा कि व्यक्ति धीरे-धीरे खोता ही चला जाए उसकी चिंता ही बैद कर देनी पड़े।

मेरी दृष्टि में मनुष्य की संख्या की विस्फोट, जनसंख्या का विस्फोट बहुत गहरे अर्थों में धार्मिक सवाल है, सिर्फ भोजन का आर्थिक सवाल नहीं है।

दूसरी बात ध्यान देने और सोचने की है कि आदमी ने अब तक जो जीवन व्यवस्था की थी, सामाजिक व्यवस्था की थी, उनकी सारी परिस्थितियां अब बदल गयी हैं। अब कोई परिस्थिति वही नहीं रह गयी है, जो आज से पांच हजार साल पहले मनु के जमाने में थी।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga