ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
|
248 पाठक हैं |
संभोग से समाधि की ओर...
अब लंदन मास्को, न्यूयार्क या वाशिंगटन में 'लिव्हिंग स्पेस' खो गयी है।
छोटे-छोटे कटघरों में आदमी बंद है। एक-एक घर में, एक-एक कमरे में दस-दस
बारह-बारह लोग बंद हैं। वहां वे पैदा होते हैं वहीं मरते हैं वहीं वे भोजन
करते हैं वही बीमार पड़ते हैं। एक-एक कमरे में दस-दस बारह-बारह, पंद्रह-पंद्रह
लोग बंद हैं। अगर वे विक्षिप्त हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। अगर वे पागल हो
जाए तो कोई आश्रर्य नहीं। वे पागल होंगे ही। वे पागल नहीं हो रहे हैं यही
आश्चर्य है। इतने कम पागल हो पा रहे हैं यही आश्चर्य है।
मनुष्य को खुला स्थान चाहिए जीने के लिए लेकिन संख्या जब ज्यादा हो जाए तो यह
बुराई हमें खयाल में नहीं आती। जब आप एक कमरे में होते है तब आप एक मुक्ति
अनुभव करते है। दस लोग आकर कमरे में सिर्फ बैठ जाएं, कुछ न करें, तो भी आपके
मस्तिष्क में एक अनजाना भार बढ़ना शुरू हो जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि
चारो तरफ बढ़ती हुई भीड़ का प्रत्येक व्यक्ति के मन पर एक अनजाना भार है। आप
रास्ते पर चल रहे हैं अकेले, कोई भी उस रास्ते पर नहीं है। तब आप दूसरे ढंग
के आदमी होते हैं और फिर उस रास्ते पर दो आदमी बगल की गली से निकलकर आ जाते
हैं। तो आप दूसरे ढंग के आदमी हो जाते हैं! उनकी मौजूदगी आपके भीतर कोई तनाव
पैदा कर देती है।
आप अपने बाथरूम में होते हैं तब आपने खयाल किया है कि आप वही आदमी नहीं होते,
जो बैठक घर में होते है। बाथरूम में आप बिल्कुल दूसरे आदमी होते हैं। बूढ़ा भी
बाथरूम में बच्चे जैसा उन्मुक्त हो जाता है। बूढ़े भी बाथरूम के आइने में
बच्चे जैसी जीभ दिखाते हैं मुंह चिढ़ाते हैं नाच भी लेते हैं। लेकिन अगर
उन्हें पता चल जाए कि किसी छेद में से कोई झांक रहा है, तो फिर वे एकदम बूढ़े
हो जाएंगे, उनका बचपना खो जाएगा। फिर वे सख्त और मजबूत होकर बदल जाएंगे।
हमें कुछ क्षण चाहिए जब हम बिल्कुल अकेले हो सकें।
मनुष्य की आत्मा के जो श्रेष्ठतम फूल हैं वे एकांत और अकेले में ही खिलते
हैं। काव्य संगीत अथवा परमात्मा की प्रतिध्वनि सब एकांत और अकेले में ही
मिलती है।
आज तक जगत में भीड़-भाड़ में कोई श्रेष्ठ काम नहीं हुआ भीड़ ने अब तक कोई
श्रेष्ठ काम किया ही नहीं।
जो भी जगत में श्रेष्ठ है-कविता, चित्र संगीत, परमात्मा प्रार्थना, प्रेम-वे
सब एकांत में और अकेले में ही फूले हैं।
लेकिन, वे सब फूल शेष न रह जाएंगे। मुर्झा जाएंगे, मुर्झा ही रहे हैं। वे सब
मिट जाएंगे। सब लुप्त हो जाएंगे, क्योंकि आदमी श्रेष्ठ से रिक्त हो जाएगा।
भीड़ चारों तरफ से अनजान दबाव डाले हुए है। सब तरफ आदमी ही आदमी हैं। बड़े मजे
की बात यह है कि आदमी जितने बढ़ते हैं व्यक्तित्व उतना ही कम हो जाता है। भीड़
में कोई आदमी इंडीवीजुअल नहीं होता, व्यक्ति नहीं होता।
भीड़ में निजता मिट जाती है, इडिवीजुअलटी मिट जाती है।
स्वयं का बोध कम हो जाता है, आप अकेले नहीं मात्र भीड़ के अंग होते हैं। इसलिए
भीड़ बुरे काम कर सकती है। अकेला आदमी इतने बुरे काम नहीं कर पाता।
अगर किसी मस्जिद को जलाना हो, तो अकेला आदमी उसे नहीं जला सकता, चाहे वह
कितना ही पक्का हिंदू क्यों न हो। अगर किसी मंदिर में राम की मूर्ति तोड़नी
हो, तो अकेला मुसलमान नहीं तोड़ सकता, चाहे वह कितना ही पक्का मुसलमान क्यों न
हो, उसके लिए भीड़ चाहिए। अगर बच्चों की हत्या करनी हो, स्त्रियों के साथ
बलात्कार करना हो और जिंदा आदमियों में आग लगानी हो. तो अकेला आदमी बहुत
कठिनाई अनुभव करता है, लेकिन भीड़ एकदम सरलता से करवा लेती है। क्यों?
क्योंकि, भीड़ में कोई व्यस्ति नहीं रह जाता और जब व्यक्ति नहीं रह जाता तो
दायित्व, रिस्पासबिलिटी, भी विदा हो जाती है। तब हम कह सकते हैं कि हमने नहीं
किया आप भी भीड़ में सम्मिलित थे।
कभी आपने देखा कि भीड़ तेजी से चल रही हो, नारे लगा रही हो, तो आप भी नारे
लगाने लगते हैं और आप भी तेजी से चलने लगते हैं। तेजी से चलती भीड़ में आपके
पैर भी तेज हो जाते हैं। नारा लगाती भीड़ में आपका नारा भी लगने लगता है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि शुरू-शुरू में मेरे पास बहुत
थोड़े लोग थे, दस-पंद्रह लोग थे। लेकिन दस-पंद्रह लोगों से हिटलर, कैसे हुकूमत
पर पहुंचा, यह अजीब कथा है। हिटलर ने लिखा है कि मैं अपने दस-पंद्रह लोगों को
ही लेकर सभा में पहुंचता था। उन पंद्रह लोगों को अलग-अलग कोनों पर खड़ा कर
देता था और जब मैं बोलता था तो उन पंद्रह लोगों को पता था कि कब ताली बजानी
है। वे पंद्रह लोग ताली बजाते थे और बाकी भीठु भी उनके साथ हो जाती थी! बाकी
भीड़ भी ताली बजाती थी।
कभी आपने खयाल किया है कि जब आप भीड़ में ताली बजाते हैं, तो आप नहीं बजाते,
भीड़ बजवा लेती है आपसे। जब आप भीड़ में हंसते हैं तो भीड़ ही आपको हंसा देती
है। भीड़ संक्रामक है, वह कुछ भी करवा लेती है। क्योंकि, वह व्यक्ति को मिटा
देती है, वह व्यक्ति की आत्मा को, जो उसका अपना होता है, उसे पोंछ डालती है।
अगर पृथ्वी पर भीड़ बढ़ती गयी, तो व्यक्ति विदा हो जाएंगे, भीड़ रह जाएगी।
व्यक्तित्व क्षीण हो जाएगा खत्म हो जाएगा, मिट जाएगा। यह भी सवाल नहीं कि
पृथ्वी आगे इतने जीवों को पालने में असमर्थ होगी? अगर हमने सब उपाय भी कर लिए
समुद्र से भोजन निकाल लिया निकाल भी सकेंगे, क्योंकि मजबूरी होगी, कोई उपाय
सोचना पड़ेगा। समुद्र से भोजन निकल सकेगा। हो सकता है, हवा से भी खाना निकाला
जा सके, और यह भी हो सकता है कि मिट्टी से भी हम भोजन ग्रहण कर सकें। यह सब
हो सकता है। सिर्फ गोलियां खाकर भी आदमी जिंदा रह सकता है। भीड़ बढ़ती गई, तो
भोजन का कोई हल तो हम कर लेंगे लेकिन आत्मा का हल नहीं हो सकेगा।
इसलिए मेरे सामने परिवार नियोजन केवल आर्थिक मामला नहीं है, बहुत गहरे अर्थों
में धार्मिक मामला है।
भोजन तो जुटाया जा सकेगा, उसमें बहुत कठिनाई नहीं है। भोजन की कठिनाई अगर लोग
समझते हैं तो बिल्कुल गलत समझते हैं। अभी समुद्र भरे पड़े हैं। अभी समुद्रों
में बहुत भोजन है। वैज्ञानिक प्रयोग यह कह रहे हैं कि समुद्रों के पानी से
बहुत भोजन निकाला जा सकता है। आखिर मछली भी तो समुद्र से भोजन ले रही है।
लाखों तरह के जानवर समुद्र से, पानी से भोजन ले रहे हैं। हम भी पानी से भोजन
निकाल सकते हैं। हम मछली को खा लेते हैं तो हमारा भोजन बन जाता है। और मछली
ने जो भोजन लिया है, वह पानी से लिया। अगर हम एक ऐसी मशीन बना सके जो मछली का
काम कर सके, तो हम पानी से सीधा भोजन पैदा कर लेंगे। आखिर मछली भी एक मशीन का
काम करती है।
|