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संभोग से समाधि की ओर...
'प्रेम और विवाह'
जनसंख्या विस्फोट
पृथ्वी के नीचे दबे हुए पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए समुद्र की सतह में
खोजे गए बहुत-से ऐसे पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं, जिनका अब कोई निशान शेष
नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्वी बहुत-से सरीसृप
प्राणियों से भरी हुई थी। लेकिन आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्त उनका कोई
प्रतिनिधि नहीं है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके
पूर्वज हाथियों से भी पांच गुने बड़े थे। वे सब कहां खो गए इतने शक्तिशाली पशु
पृथ्वी से कैसे विलुप्त हो गए? किसी ने उन पर हमला किया? किसी ने उन पर
एटमबम, हाइड्रोजन बम गिराए? नहीं उनके खत्म होने की अद्भुत कथा है।
उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे खत्म हो जाएंगे। वे खत्म हो गए अपनी संतति
के बढ़ जाने के कारण। वे इतने बढ़ गए कि पृथ्वी पर जीना उनके लिए असंभव हो
गया। भोजन कम हुआ, पानी कम हुआ, 'लिव्हिग स्पेस' कम हुआ, जीने के लिए जितनी
जगह चाहिए वह कम हो गयी। उन पशुओं को बिल्कुल आमूल नष्ट हो जाना पड़ा।
ऐसी दुर्घटना आज तक मनुष्य-जाति के जीवन में नहीं आयी है, लेकिन भविष्य में आ
सकती है। आज तक नहीं आयी, उसका कारण यह था कि प्रकृति
ने निरंतर मृत्यु को और जन्म को संतुलित रखा था। बुद्ध के जमाने में दस आदमी
पैदा होते थे, तो सात या आठ जन्म के बाद मर जाते थे। दुनिया की आबादी कभी
इतनी नहीं बढ़ी थी की कमी पड़ जाए, खाने की कमी पड़ जाए। विज्ञान और आदमी की
निरंतर खोज ने और मृत्यु से लड़ाई लेने की होड़ ने यह स्थिति पैदा कर दी है कि
आज दस बच्चे पैदा होते हैं तो उनमें से मुश्किल से एक बच्चा मर पाता है।
स्थिति बिल्कुल उल्टी हो गयी है। उम्र भी लम्बी हुई। आज रूस में डेढ़ सौ वर्ष
की उम्र के भी हजारों लोग हैं। औसत उम्र अस्सी और बयासी वर्ष तक कुछ मुल्कों
में पहुंच गयी है। स्वाभाविक परिणाम जो होना था, वह हुआ कि जन्म की दर पुरानी
रही, किंतु मृत्यु की दर हमने कम कर दी। अकाल होते थे, किंतु अकाल में मरना
हमने बंद कर दिया। महामारियां आती थी प्लेग होता था, मलेरिया होता था, हैजा
होता था वे सब हमने बंद कर दिए। हमने मृत्यु के बहुत-से द्वार रोक दिए और
जन्म के सब द्वार खुले छोड़ दिए। मृत्यु और जन्म के बीच जो संतुलन था, वह
विलुप्त हो गया।
1945 में हिरोशिमा व नागासाकी में एटम बम गिरे, उनसे एक लाख आदमी मरे। इस समय
लोगों को खतरा है कि एटम बम बनते चले गए तो सारी दुनिया नष्ट हो जाएगी।
लेकिन, आज जो लोग समझते हैं वे कहते हैं कि दुनिया के नष्ट होने की संभावना
एटम बम से बहुत कम है, दुनिया के नष्ट होने की नयी संभावना है, वह है-लोगों
के पैदा होने से! एक एटम बम गिराकर हिरोशिमा में एक लाख आदमी हमने मारे,
लेकिन हम प्रतिदिन डेढ़ लाख आदमी सारी दुनिया में बढ़ा लेते हैं।
एक हिरोशिमा क्या दो हिरोशिमा रोज हम पैदा कर लेते हैं! दो लाख आदमी प्रतिदिन
बढ़ जाते हैं।
इसका डर है कि यदि इसी तरह संख्या बढ़ती चली गयी, तो इस सदी के पूरा होते-होते
हिलने के लिए भी जगह शेष न रह जाएगी और तब सभाएं करने की जरूरत नहीं रह
जाएगी; क्योंकि तब हम लोग चौबीस घंटे सभाओं में होंगे। आदमी को न्यूयार्क और
बंबई में चौबीसों घंटे हिलने की फुरसत नहीं है। उसे सुविधा नहीं है, अवकाश
नहीं है।
इस समय सबसे बड़ी चिंता, जो मनुष्य जाति के हित के संबंध में सोचते है, उन
लोगो के समक्ष अति तीव्र हो जाना सुनिश्चित है कि यदि हमने मृत्यु-दर को रोक
दिया और जन्म-दर को पुराने रास्ते से चलने दिया, तो बहुत डर है कि पृथ्वी
हमारी संख्या से ही डूब जाए और नष्ट हो जाए। हम इतने ज्यादा हो गए हैं
कि
जीना असंभव हो गया है। इसलिए जो भी विचारशील हैं वे यही कहेंगे कि जिस भांति
हमने मृत्यु-दर को रोका है, उसी भांति जन्म-दर को भी रोकना बहुत महत्त्वपूर्ण
है।
पहली बात तो यह ध्यान में रख लेनी है कि जीवन एक अवकाश चाहता है। जंगल में
जानवर मुक्त हैं मीलों के घेरे में घूमता है, दौड़ता है। उसे कटघरे में बंद कर
दें, तो उसका विक्षिप्त होना शुरू हो जाता है। बंदर भी मीलों नाचा करते हैं।
पचास बंदरों को एक मकान में बंद कर दें, तो उनका पागल होना शुरू हो जाएगा।
प्रत्येक बंदर को एक 'लिव्हिंग स्पेस' खुली जगह चाहिए जहां वह जी सके।
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